scorecardresearch
Wednesday, 18 December, 2024
होमसमाज-संस्कृतिभीष्म साहनी: भ्रष्टलोक में आदर्शवाद की बानगी है 'मोहन जोशी हाज़िर हो'

भीष्म साहनी: भ्रष्टलोक में आदर्शवाद की बानगी है ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’

मोहन जोशी हाज़िर हो सिनेमा के अक्ष में भीष्म साहनी को मौजूदा वक्त में देखना और समझना इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि देश के तमाम बड़े शहरों के आलीशान इमारतों का जो सच हमारे सामने दिखता है...उसकी पूरी तस्वीर उन शहरों के चॉल और झुग्गी बस्तियों से होकर गुज़रती है.

Text Size:

कई लघु कथाओं, उपन्यास, नाटकों के लेखक होने के अलावा भीष्म साहनी एक शानदार अभिनेता भी थे. जो उनके अलग रूप को सामने लाता है. जिस पर बहुत ही कम चर्चा होती है. उपन्यास के पन्नों पर दर्ज़ अक्षर हों या सिनेमाई पर्दे पर किया गया अभिनय भीष्म साहनी दोनों ही भूमिका में सामाजिक समस्याओं को जीवंत कर देते हैं. बंटवारे की विभीषिका पर लिखा उपन्यास ‘तमस’ जिस पर 1988 में गोविंद निहलानी ने ‘तमस‘ नाम से ही फिल्म भी बनाई, उसमें भी साहनी का हरनाम सिंह का किरदार दमदार है.

‘तमस’ बंटवारे के उन भयावह दिनों को बयां करती है जिसे पढ़कर या सुनकर हर किसी के ज़हन में रह-रहकर टीसें उभरती हैं. हरनाम सिंह के किरदार में भीष्म साहनी बड़ी ही गंभीरता से बंटवारे के दंश को उभारते हैं.

कुछेक फिल्मों में ही उन्होंने काम किया लेकिन सिनेमाई पर्दे पर उन्हें देखकर ज़रा भी नहीं लगता कि वो कैमरे के सामने थोड़े भी असहज हों. बड़ी ही सहजता के साथ उन्होंने फिल्मों में अपना किरदार अदा किया है. संवादों और हाव-भाव की सरलता से उन्होंने गंभीर विषयों को भी आसानी से पर्दे पर उतार दिया.

उन्होंने 1993 में आई फिल्म लिटिल बुद्धा में भी काम किया लेकिन जो ख्याति उनकी लेखनी को मिली वो उनके अभिनय को नहीं मिल सकी. यहां तक कि बहुत से लोग ये भी नहीं जानते कि भीष्म साहनी अभिनेता भी थे.

साहनी आजादी के वक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े हुए थे और रिफ्यूजी लोगों के लिए रीलीफ का काम देखते थे. 1948 में उन्होंने इंडियन पीपुल्स थिएटर असोसिएशन (इप्टा) के साथ काम करना शुरू कर दिया जिसके साथ उनके बड़े भाई और जाने-माने अभिनेता बलराज साहनी पहले से ही जुड़े हुए थे.

8 अगस्त 1915 को रावलपिंडी (पंजाब) में जन्में भीष्म साहनी लेखक, पटकथा लेखक, अभिनेता, सामाजिक कार्यकर्ता थे. उन्हें साहित्य के लिए 1998 में पद्म भूषण भी दिया गया था. उनके उपन्यास तमस को 1975 में साहित्य अकादमी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया.

उनकी लेखनी को लेकर अक्सर बातें होती रही हैं लेकिन उनके अभिनय पर ज्यादा बात नहीं होती. आइए ‘मोहन जोशी हाज़िर हो ‘ फिल्म में उनके किरदार पर एक नज़र डालते हैं.


यह भी पढ़ें: कोरोना काल क्या शास्त्रीय संगीत की तबीयत को भी बिगाडे़गा


भ्रष्टलोक में आदर्शवाद

1984 में बनी फिल्म मोहन जोशी हाज़िर हो… में भीष्म साहनी ने अपने किरदार से बड़े शहरों की चकाचौंध के पीछे की जो दुनिया है जिसे बंबईया भाषा में चॉल कहते हैं वहीं उत्तर भारत में झुग्गी बस्तियां…..इन इलाकों की सच्ची तस्वीर लाकर सामने रख दी.

सिनेमा के शुरू में ही ये फिल्म आमजनों के भीतर गहरे तक बसे उस तिलिस्म को तोड़ देती है जिसमें बड़े शहरों को लेकर सिर्फ चकाचौंध की ही कल्पना की जाती है. गीत के बोल के सहारे मायानगरी बंबई (मुंबई) की जो तस्वीर इसमें खींची गई है…वो तस्वीर शहर में बसे एक चॉल में आकर पूरी होती है. जहां मोहन जोशी (भीष्म साहनी) और उसका परिवार रहता है.

मोहन जोशी हाज़िर हो  सिनेमा के अक्ष में भीष्म साहनी को मौजूदा वक्त में देखना और समझना इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि देश के तमाम बड़े शहरों के आलीशान इमारतों का जो सच हमारे सामने दिखता है…उसकी पूरी तस्वीर उन शहरों के चॉल और झुग्गी बस्तियों से होकर गुज़रती है. इसी विषय को बड़ी बारीकी और संजीदगी से सैयद अख्तर मिर्ज़ा निर्देशित मोहन जोशी हाज़िर हो….पेश करती है. और इसके संवाद में जो सरलता सुधीर मिश्रा, युसुफ मेहता और मिर्जा ने बरती है वो इसे हर खासोआम से जोड़ने की कुव्वत रखती है.

मोहन जोशी (भीष्म साहनी) फेमिली वेलफेयर के लिए बेस्ट फिल्म का नेशनल अवार्ड जीतने वाली इस फिल्म के मुख्य किरदार हैं जिसके आसपास एक पूरी भ्रष्ट व्यवस्था काम करती है लेकिन फिर भी वो आदर्शवाद में यकीं करता है और उसे लगता है कि उसकी मांगें पूरी हो सकती हैं.

मोहन जोशी जो कि एक बूढ़ा रिटायर्ड व्यक्ति है अपनी पत्नी रोहिनी (दीना पाठक) के साथ मिलकर चाहता है कि उसके जर्जर मकान की मरम्मत हो जाए. इसके लिए वो चॉल के मालिक कुंदन कपाड़िया (अमज़द खान) के पास जाते हैं लेकिन वो सिरे से उनकी मांगों को खारिज़ कर देता है.

कपाड़िया बिल्कुल भी नहीं चाहता कि वो उन मकानों को ठीक कराए बल्कि वो उन्हें जमींदोज़ कर उस पर महंगे डिलक्स घर बनवाना चाहता है जिसे वो बेच सके.

मकान मालिक से चल रहे संघर्ष के बीच मोहन जोशी मामले को अदालत में लड़ने के बारे में सोचता है और कुंदन को समन भिजवा देता है. हालांकि उसे कानूनी व्यवस्था की बिल्कुल समझ नहीं होती है.

जोशी मानता है कि अगर वो अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगा तो उसे न्याय मिल जाएगा. इसमें वो चॉल के सभी लोगों का सहयोग मांगता है लेकिन कोई भी उसका साथ नहीं देता. फिर भी वो अपनी लड़ाई जारी रखता है.


यह भी पढ़ें: कोरोनावायरस के दौर में उम्मीदों और संभावनाओं की बानगी बनती कला


मलकानी (नसीरुद्दीन शाह) और गोखले (सतीश शाह) को जोशी अपने वकील के तौर पर रखता है लेकिन इसके बाद उसकी समस्याओं में इजाफा ही होता चला जाता है. वकीलों के लालच में जोशी इस कदर फंस जाता है कि उसकी पत्नी और बहू को गहने तक बेचकर केस लड़ना पड़ता है. बदले में उन्हें सिर्फ अदाली लेटलतीफी ही मिलती है. न्याय के लिए जोशी सिर्फ अदालत के चक्कर लगाने पर मजबूर हो जाता है.

इस बीच कुंदन कपाड़िया के गुंडे और उसके वकील जोशी को हर तरह से धमकाने की कोशिश करते हैं और उस पर नए मुकदमे लगा देते हैं.

अदालती चक्कर लगाकर थक-हार चुके जोशी और उसकी पत्नी एक दिन पार्क में आकर बैठते हैं. उसी वक्त उधर से कुछ मजदूर अपनी मांगों को लेकर नारे लगाते हुए गुज़रते हैं. तभी रोहिनी कहती है कितना अच्छा है कि सब मिलकर अपनी मांगों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन इसके उलट जोशी अपने मामले में अकेला ही लड़ रहा होता है.

फिर धीरे-धीरे जोशी की बहू आशा (दीप्ति नवल) और उसका बेटा अपने पिता के मामले में साथ देने लगते है. जोशी के प्रयासों को देख चॉल के सभी लोग उसकी सराहना करते हैं और मिलकर लड़ने की बात कहते हैं. चॉल के इंसपेक्शन के लिए अदालत के जज आते हैं और वो मकान की जांच कराने की बात कहते हैं.

अदालती और व्यवस्थात्मक तौर-तरीकों से जोशी परेशान और थक चुका होता है. तभी जज के सामने ही जोशी पर मकान का एक हिस्सा गिर जाता है…और मलबे के उठते धुएं में वर्ग संघर्ष की एक पूरी कहानी खत्म हो जाती है.

share & View comments