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Sunday, 24 November, 2024
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विश्व जल दिवस: ‘कर्मनाशा’ भारत की एक ऐसी नदी जिसे माना जाता है अपवित्र

कर्मनाशा नदी अब कई स्थानों पर सूख चुकी है. बिहार में मिलों और तमाम औद्योगिक इकाइयों का गंदा पानी नदी में छोड़ा जा रहा है, जिसके कारण ये पूरी तरह विषाक्त हो चुकी है.

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काले सांप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल ज़हर पीने वाले की मौत रुक सकती है, लेकिन जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू ले, वह फिर हरा नहीं हो सकता. कर्मनाशा नदी के बारे में नदी के किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी में बाढ़ आए तो बिना मानुस की बलि लिए लौटती ही नहीं….

हिन्दी के मशहूर कथाकार डॉ. शिव प्रसाद सिंह की कहानी कर्मनाशा की हार के ये अंश उस नदी के बारे में हैं जो प्रचलित किंवदंतियों-आख्यानों में एक अपवित्र नदी मानी गई है, क्योंकि वह कर्मों का नाश करती है. उसके जल को छूने भर से सारे पुण्य खत्म हो जाते हैं. वैतरणी की तरह. वही वैतरणी, जिसे स्वर्ग जाने से पहले इस पाप नदी को पार करना पड़ता है. कहावत है कि कर्मनाशा को हर साल प्राणों की बलि चाहिए. बिना बलि लिए उसकी बाढ़ उतरती ही नहीं.

आज विश्व जल दिवस है, इस मौके पर एक ऐसी नदी की कहानी जानना जरूर है जिसे अपवित्र मना गया है. कर्मनाशा दुनिया की पहली ऐसी नदी है जिसके जल को अछूत माना जाता है, ऐसा कहा जाता है कि जो भी इस नदी के जल को छूता है वो अपवित्र हो जाता है, इतना ही नहीं, ये भी कहा जाता है कि, इस नदी के पानी से खेती करने से सारे फसल बर्बाद हो जाते हैं. हालांकि इन सबसे इतर सच्चाई कुछ और ही है.

दरअसल कर्मनाशा बेहद उदास नदी है. गंगा की सगी बहन. मनहूस होने के कारण गंगा भी इसे अहमियत नहीं देती. शायद गंगा को गुमान था कि वो पतित पावनी और पाप नाशिनी है. सबके पापों को हर लेती है. इसके ठीक उलट कर्मनाशा का जल स्पर्श पुण्यहीन कर देता है…. मनुष्य के बने-बनाए काम बिगड़ जाते हैं. जब सच पता चलता है कि कर्मनाशा जीवन देती है तो गंगा का भ्रम दूर हो जाता है….

कर्मनाशा नदी को लेकर तमाम कथा-कहानियां पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हमारी परंपरा का जरूरी हिस्सा बनकर पहले से ही हमारे पास ही मौजूद थी. सच यह है कि कर्मनाशा हमारी अपनी नदी है. हमारे पड़ोस की नदी है. और मेरे लिए तो इसका महत्व कुछ ज्यादा ही है. इसी नदी का पानी माइनर के जरिए हमारे गांव उतरौत में भी आता है. बचपन से मुझे याद है कि इसी नदी से निकलने वाली माइनर हमारे घर-आंगन और खेतों को सालों-साल से सींचती रही है. इसी माइनर में उतरकर छपाक-छपाक नहाते हुए अक्सर अपने पिता से पिटते थे, लेकिन सदाबहार के डंडों की मार और मां की डाट भी हमारे जुनून को बेअसर कर देती थी….

सच यह है कि दुनिया भर की सभी नदियां प्राकृतिक या दैवीय स्रोतों से अवतरित हुईं, लेकिन कर्मनाशा का स्रोत मानवीय है. संभव है कि वह अस्पृश्य और अवांछित है. कर्मों का नाश करने वाली है. कथा-पुराण, आख्यान, लोक विश्वास जो भी कहें, इस सच्चाई को झुठलाने का कोई ठोस कारण नहीं है कि कर्मनाशा एक जीती-जागती नदी का नाम है. बारिश के दिनों में इसके तट पर वैसा ही जीवन राग-खटराग बजता रहता है, जैसा दूसरी नदियों के किनारे बजता है. नदी के पेट में दूर तक फैले हुए लाल बालू का मैदान, चांदनी में सीपियों के चमकते हुए टुकड़े, सामने के ऊंचे अरार पर घन-पलास के पेड़ों की आरक्त पांतें, चारों ओर जल-विहार करने वाले पक्षियों का स्वर हर किसी को अपनी आगोश में लेने को विवश कर देते हैं.


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गाजीपुर के दिलदारनगर के मिर्चा गांव के साहित्यकार सिद्धेश्वर सिंह कहते हैं कि सत्य घटना पर आधारित कहानी ‘कर्मनाशा की हार’ अंधविश्वास, जात-पात, ऊंच-नीच के बंधन को तोड़ती है. कहानी में गांव में आई बाढ़ को रोकने के लिए एक ओझा मनुष्य बली देने की बात कहता है. अज्ञानता में फंसे ग्रामीण उसकी बात मान लेते हैं. गांव की एक विधवा औरत और उसके बच्चे को इसके लिए चुना जाता है. इस विधवा औरत से गांव के ब्राह्मण का छोटा भाई प्यार कर बैठता है. कहानी आगे बढ़ती है तो एक छोटी बच्ची छबीली समाज के भ्रम को तोड़ने का काम करती है. ब्राह्मण भैरो पांडेय को सच्चाई का ज्ञान होता है और अंत में वे फूलमत को अपनी बहू बना लेते हैं.

साहित्यकार सिद्धेश्वर बताते हैं कि कर्मनाशा की हार में बार-बार त्रिशंकु का जिक्र आता है. डॉ. राजबली पांडेय के हिन्दू शब्दकोश के मुताबिक सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु की कथा के साथ कर्मनाशा के उद्गम को जोड़ा गया. त्रिशंकु को सत्यवादी हरिश्चंद्र का पिता बताया जाता है. तैत्तिरीय उपनिषद में इसी नाम से एक ऋषि का उल्लेख भी मिलता है. त्रिशंकु दो ऋषियों वशिष्ठ और विश्वामित्र की आपसी प्रतिद्वंद्विता और द्वेष के शिकार होकर अधर में लटक गए. विश्वामित्र उन्हें स्वर्ग भेजना चाहते थे, जबकि वशिष्ठ मुनि ने अपने मंत्र बल से उन्हें आकाश मार्ग में ही उल्टा लटका दिया. तभी से वो लटके हुए हैं. उनके मुंह से जो लार-थूक गिरा उससे कर्मनाशा नदी का उद्भव हुआ. गंगा की तरह इस नदी में लोग सिक्के प्रवाहित नहीं करते.

साहित्यकार सिद्धेश्वर ये भी कहते हैं कि किसी अलौकिक कहानी को सच मान लेने से कर्मनाशा को महत्वहीन, मूल्यहीन और अपवित्र मान लिया जाना ठीक नहीं है. नदी के अपवित्र होने के कोई तार्किक कारण हैं ही नहीं. तर्क को सच का बोध कराती है इनकी एक कविता पढ़िए –

फूली हुई सरसों के

खेतों के ठीक बीच से

सकुचाकर निकलती है कर्मनाशा की पतली धारा कछार का लहलहाया पीलापन

भूरे पानी के शीशे में

अपनी शक्ल पहचानने की कोशिश करता है 

धूप में तांबे की तरह चमकती है

घाट पर नहाती हुई स्त्रियों की देह

नाव से हाथ लपकाकर

एक एक अंजुरी जल उठाते हुए

पुरनिया-पुरखों को कोसने लगता हूं मैं –

क्यों-कब-कैसे कह दिया

कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा !

ला बताओ

फूली हुई सरसों

और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में

कोई भी नदी

आखिर कैसे हो सकती है अपवित्र ?

सवाल ये है कि कर्मनाशा को बदनाम करने के लिए झूठे किस्से-कहानियां क्यों गढ़ी गई? इस सवाल पर साहित्यकार डा.अरविंद मिश्र का तर्क ये है कि मगध क्षेत्र में बौद्ध राजधर्म बन गया था. उसके कारण सनातनियों को मार-मारकर भगाया जा रहा था. सनातन धर्म से जुड़े लोगों ने नदी को अपवित्र बताकर लोगों को दक्षिण की ओर जाने से प्रतिबंधित करने के लिए कर्मनाशा पर बुराइयों का आरोपण करना शुरू कर दिया. वैतरणी की तरह काल्पनिक कहानियां गढ़ दी गईं. सनातनियों और बौद्धों के वैचारिक द्वंद्व विभेद का कहर कर्मनाशा पर टूटा. लोकजीवन में लंबे वैचारिक संघर्ष के चलते कर्मनाशा अभिशप्त नदी बन गई.

दूसरी ओर, बौद्ध धर्म में गहरी आस्था रखने वाले बनारस के जाने-माने एक्टिविस्ट डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं कि बौद्ध धर्म हिंसा में यकीन करता ही नहीं था. सनातन धर्म से जुड़े लोगों ने बौद्ध धर्मावलंबियों के प्रभाव को रोकने और अपने मुनाफे के लिए कर्मनाशा को बदनाम किया.


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यूपी-बिहार का बंटवारा करने वाली कर्मनाशा यूपी के सोनभद्र, चंदौली, वाराणसी और गाजीपुर से होकर गुजरती है. बिहार के कैमूर से निकलने वाली इस नदी की लंबाई करीब 192 किलोमीटर है. कर्मनाशा अब कई स्थानों पर सूख चुकी है. कुछ स्थानों पर नदी में इलाकाई ग्रामीण इस पर खेती भी कर रहे हैं. बिहार में मिलों और तमाम औद्योगिक इकाइयों का गंदा पानी नदी में छोड़ा जा रहा है, जिसके कारण कर्मनाशा पूरी तरह विषाक्त हो चुकी है.

यूपी में कर्मनाशा नदी पर पांच बड़े बांध-नगवां, भैसौड़ा, औरवाटांड़, मूसाखांड और लतीफशाह बने हैं. इन बांधों से लाखों हेक्टेयर जमीन पर लहलहाती हैं फसलें. चंदौली के नौगढ़ में इस नदी पर एक खूबसूरत जल प्रपात है- कर्मनाशा वाटरफाल. जो अपनी मनोरम सुंदरता से हर किसी को रोमांच से भर देता है. करीब 35 मीटर ऊंचे जल प्रपात में बारहो-मास दुधिया पानी गिरता रहता है. इस झरने को देखकर कोई भी कह सकता है कि कर्मनाशा एक जीती-जागती नदी का नाम है. इसकी अपवित्रता के बारे में कहीं भी कोई ठोस सबूत नहीं है.

(रिज़वाना तबस्सुम स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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4 टिप्पणी

  1. Rizwana Tabbasum ji “vishv jal diwas” par Karmnsha nadi ka zikr karne aur itni sahajta se apni abhivyakti prakat karne ke liye badhai. Siddheshwar ji ki kavita ka ullekh kar bachpan ki suni-padhi mithya ko door kar diya. Dhanyawad.

  2. रिजवाना जी ,, आपने कर्मनाशा नदी की ओर ध्यान आकर्षित किया इसके लिए आभार. .
    लेकिन आपकी बात पूरी-पूरी सच साबित नहीं होती है क्योंकि वर्तमान समय में कर्मनाशा नदी के किनारे बसे गांव के लोग अपने खेतों की सिंचाई इसी नदी से करते हैं और फिर भी फसल नष्ट नहीं होती ।। किसी के नाम रख देने से उसका कर्म नहीं बदल जाता है ।।

    वैसे तो गंगा नदी में भी हर साल बाढ़ आता है और हर साल सैकड़ो जान जाती है तो गंगा को तो कोई नहीं बोलता है कि ये जान लेने वाली नदी है ।। ये कोरा झूठा है कि गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं वरना कोई भी व्यक्ति यहाँ पर कष्ट नहीं झेलता । हजारों पाप कर के गंगा में डुबकी लगा लेता और उसका पाप समाप्त हो जाता ।।

  3. Maine ye bat Bachpan me suni thi ki koi esi Nadi hai jiske uper se gujrne ya jal chhune se vyakti ke sare punyo ka Nash ho Jat hai ajj us bat ka pat chala to bahut achchha lga lekn Bo Nadi kaise apavitra ho Jo logo ka palan posan krti hai “dhanyavad”

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