scorecardresearch
Friday, 20 December, 2024
होमसमाज-संस्कृतिउपहार कांड के सच और झूठ की परतों से परदे उठाती ‘ट्रायल बाय फायर’

उपहार कांड के सच और झूठ की परतों से परदे उठाती ‘ट्रायल बाय फायर’

प्रशांत नायर का निर्देशन काफी असरदार है. कैमरा आपकी बेचैनी बढ़ाता है और लोकेशंस विश्वसनीयता. सीरीज का अंत आपको सुन्न कर देता है और यहीं आकर यह सफल हो जाती है.

Text Size:

13 जून 1997, शुक्रवार का दिन. निर्माता-निर्देशक जे.पी. दत्ता की फिल्म ‘बॉर्डर’ की रिलीज़ का दिन. ‘संदेशे आते हैं हमें तड़पाते हैं…’ जैसे यादगार गाने वाली यह फिल्म टिकट-खिड़की पर सुपरहिट रही थी. इस फिल्म से जुड़े लोग और इसे पहले दिन देख चुके सिनेप्रेमी 13 जून की वह तारीख नहीं भूल सकते. लेकिन इनके अलावा भी कुछ ऐसे परिवार हैं जो ताउम्र इस तारीख को नहीं भुला पाएंगे.ये वे लोग हैं जिन्होंने उस मनहूस दिन दिल्ली के ‘उपहार’ सिनेमा में ‘बॉर्डर’ के उस शो में लगी आग में अपने 59 करीबियों को खोया था और बाद में बरसों तक इस आस में अदालतों के चक्कर भी लगाए थे कि शायद कभी गुनहगारों को सज़ा मिलेगी.

‘उपहार अग्निकांड’ के नाम से चर्चित रहा यह केस हैरान करता है कि कैसे हमारे न्यायतंत्र में कुछ मामले इतने लंबे खिंचते चले जाते हैं कि या तो न्याय होता नहीं है और यदि होता भी है तो उसमें से ‘न्याय’ की खुशबू गुम हो चुकी होती है. पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर आई वेब-सीरिज ‘ट्रायल बाय फायर’ दरअसल उसी खुशबू के गुम होने का सफर दिखाती है.

उस अग्निकांड में अपनों को खोने के बाद कुछ लोग तो मायूस होकर बैठ गए थे तो कुछ गुस्से में थे लेकिन तय नहीं कर पा रहे थे कि करें तो क्या करें. लेकिन नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति ने न तो आपा खोया और न ही ये लोग थक कर बैठे. बल्कि उन्होंने तय किया कि वे कुछ ऐसा करेंगे जिससे समाज में बदलाव आए. नीलम और शेखर के दोनों बच्चे उज्ज्वल और उन्नति उस दिन मारे गए थे. यह सीरिज दिखाती है कि कैसे उन्होंने ‘उपहार’ सिनेमा के मालिक और दिल्ली के नामी बिल्डर्स अंसल बंधुओं के साथ-साथ हर उस व्यक्ति के खिलाफ मोर्चा खोला जिसकी लापरवाही के चलते वह आग लगी और लोग उस आग में फंस कर मारे गए.

उपहार-पीड़ितों की एक एसोसिएशन बनाने से लेकर लोगों को उसमें जोड़ने, ढेरों धमकियों का सामना करने, सामने से मिल रहे लालच से न डिगने और उससे भी बढ़ कर लगातार खुद का व दूसरों का हौसला बनाए रखने वाले इस दंपती की कोशिशों से ही यह नतीजा निकला कि शॉपिंग मॉल्स, सिनेमाघरों, स्कूलों व बड़ी इमारतों में आग से निबटने के उपायों के प्रति लोग व सरकारें सतर्क हुईं. यह सीरिज उनकी इन्हीं कोशिशों, उनके इसी संघर्ष को बड़े ही कायदे से दिखाती है.

वेब-सीरिज ‘ट्रायल बाय फायर’

नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति ने लगभग बीस साल लंबे अपने संघर्ष को ‘ट्रायल बाय फायर’ नामक एक उपन्यास के रूप में लिखा. उनके इसी उपन्यास पर बनी यह सीरिज अपने सात एपिसोड में उपहार में आग लगने के कारणों के साथ-साथ उसके बाद हमारे तंत्र की लापरवाही, असंवेदनशीलता और लाचारी को तो दिखाती ही है, इस दुर्घटना से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़े कुछ लोगों के जीवन में भी झांकती है. यह ताकाझांकी इस घटना से पहले और बाद, दोनों समय में की गई है.

लेखकों ने जिस तरह से इस कहानी को फैलाया और समेटा है, वह सराहनीय है. हालांकि इस प्रयास में कुछ एक सीक्वेंस गैरजरूरी भी लगे हैं और बहुत सारी जगहों पर कहानी की रफ्तार भी बेहद धीमी है जिससे उकताहट होने लगती है. मगर फिर ध्यान आता है कि उन 59 मारे गए लोगों के परिजनों को बीस साल से भी ज्यादा वक्त तक चलते रहे केस के दौरान कितनी उकताहटें हुई होंगी. यह सीरिज असल में आपको उन्हीं उकताहटों को महसूस कराने का काम करती है.

संवाद कई जगह बहुत अच्छे हैं. किरदारों का ढांचा उन्नत है और उनमें लिए गए कलाकारों ने भरपूर दमदार अभिनय किया है. अभय देओल और राजश्री देशपांडे ने तो पुरस्कार के काबिल काम किया है. बाकी सभी कलाकार अपने-अपने किरदार में समाए रहे हैं, फिर चाहे वे बार-बार आए हों या एक-दो बार. आशीष विद्यार्थी, शिल्पा शुक्ला, राजेश तैलंग, चेतन शर्मा, अनुपम खेर, रत्ना पाठक शाह, शार्दूल भारद्वाज, सिद्धार्थ भारद्वाज, हर किसी का अभिनय प्रभावी रहा है.

प्रशांत नायर का निर्देशन काफी असरदार है. कैमरा आपकी बेचैनी बढ़ाता है और लोकेशंस विश्वसनीयता. सीरिज का अंत आपको सुन्न कर देता है और यहीं आकर यह सीरिज सफल हो जाती है.

एक सच यह भी है कि यह सीरिज न तो उपहार अग्निकांड के पीड़ितों के जख्मों को कुरेदती है और न ही उन पर मरहम लगाती है, यह तो बस उनके उस पीड़ादायक सफर को दिखाती है जो उन्होंने अपनों को गंवाने के बाद बरसों तक तय किया.

(संपादनः अलमिना खातून)


यह भी पढ़ें: किंग खान इज़ बैक: विवादों के बीच फिल्म पठान हुई रिलीज़ -VHP ने लिया यू-टर्न, बोली- नहीं करेंगे विरोध


share & View comments