नई दिल्ली: हिंदी साहित्य में गांव-गिरांव और हाशिए पर खड़े लोगों की ज़िंदगियों को आवाज़ देने वाले मशहूर लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह के जीवन के 75 साल पूरे होने पर मंगलवार शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया.
राजकमल प्रकाशन द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का नाम रखा गया था— ‘उपलक्ष्य 75’, जो इस वर्ष 75 वर्ष पूरे कर रहे वरिष्ठ लेखकों को समर्पित है. इसी अवसर पर बिस्मिल्लाह की नई किताब ‘स्मृतियों की बस्ती’ का लोकार्पण भी किया गया.
सभागार खचाखच भरा था, लोग ज़मीन पर बैठकर भी लेखक को सुनने पहुंचे. कार्यक्रम में आलोचक प्रोफेसर संजीव कुमार और द वायर उर्दू के संपादक फ़ैयाज़ अहमद वजीह ने बिस्मिल्लाह से बातचीत की. वहीं तसनीफ़ हैदर और रंगकर्मी नेहा राय ने उनकी कृतियों के अंशों का पाठ किया.
कार्यक्रम की शुरुआत में तसनीफ़ हैदर ने कहा, “अब्दुल बिस्मिल्लाह उस परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो असल मायनों में बेआवाज़ लोगों को आवाज़ देती है. उनकी कहानियों में वह पीड़ा और संघर्ष झलकता है जिसे समाज अक्सर दबा देता है.”
संवाद के दौरान बिस्मिल्लाह ने कहा, “मेरा जीवन एकरेखीय नहीं रहा. बचपन इलाहाबाद और मध्यप्रदेश में बीता, मां-पिता के निधन के बाद कई जगह रहना पड़ा. जीवन के अलग-अलग रंग मेरी रचनाओं में उतरते रहे.”
उन्होंने आगे कहा, “संस्कृति का धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता। जैसे भाषा का कोई धर्म नहीं होता, वैसे ही संस्कृति भी भौगोलिक होती है. मेरा धर्म यही है कि हमेशा पीड़ित के साथ खड़ा रहूं और अत्याचारी के खिलाफ—चाहे वह औरत हो या मर्द.”
मुस्लिम समाज की सामाजिक स्थिति और जातीय विमर्श पर लिखने को लेकर उन्होंने कहा कि धर्म परिवर्तन के बावजूद जाति व्यवस्था खत्म नहीं हुई और वही पीड़ा उनकी रचनाओं में दिखाई देती है.
राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने अपने संबोधन में कहा, “अब्दुल बिस्मिल्लाह तर्क-वितर्क के अखाड़े के अप्रतिम खिलाड़ी हैं. संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू और हिंदी पर उनकी गहरी पकड़ है. उनकी रचनाएं ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’, ‘कुठांव’ और ‘समर शेष है’ हिंदी साहित्य की धरोहर हैं.”
उन्होंने यह भी बताया कि ‘उपलक्ष्य 75’ राजकमल की नई कार्यक्रम शृंखला की शुरुआत है, जिसके तहत इस वर्ष 75 वर्ष पूरे कर रहे प्रतिष्ठित लेखकों पर विशेष आयोजन किए जाएंगे.