मेरठ के हाशिमपुरा में 31 साल पहले हुए नरसंहार में दिल्ली हाईकोर्ट ने सभी 16 अभियुक्तों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई है. विभूति नारायण राय उक्त घटना के समय उत्तर प्रदेश पुलिस में थे. प्रस्तुत है उनकी आंखों देखी.
जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो ज़िन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोड़ते. एक दु:स्वप्न से वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सीने पर सवार रहतें हैं. हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही अनुभव है. 22/ 23 मई सन 1987 की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमज़ोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना और हर अगला कदम उठाने के पहले यह सुनिश्चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पड़े – सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है .
उस रात दस-साढे दस बजे हापुड़ से वापस लौटा था. साथ ज़िला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी थे जिन्हें उनके बंगले पर उतारता हुआ मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुंचा. निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट्स पड़ी मुझे घबराया हुआ और उड़ी रंगत वाला चेहरा लिये सब इंसपेक्टर वीबी सिंह दिखायी दिया जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था. मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में कुछ गंभीर घटा है. मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया .
वीबी सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता पाना संभव नहीं लग रहा था. हकलाते हुये और असंबद्ध टुकड़ों में उसने जो कुछ मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिये काफी था. मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पीएसी ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है. क्यों मारा? कितने लोगों को मारा? कहां से लाकर मारा? स्पष्ट नहीं था.
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कई बार उसे अपने तथ्यों को दुहराने के लिये कह कर मैंने पूरे घटनाक्रम को टुकड़े-टुकड़े जोड़ते हुये एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की. जो चित्र बना उसके अनुसार वीबी सिंह थाने में अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि लगभग 9 बजे उसे मकनपुर की तरफ से फायरिंग की आवाज सुनायी दी. उसे और थाने में मौजूद दूसरे पुलिस कर्मियों को लगा कि गांव में डकैती पड़ रही है. आज तो मकनपुर गांव का नाम सिर्फ रेवेन्यू रिकार्ड्स में है. इस समय के गगनचुम्बी आवासीय इमारतों, मॉल और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों वाले मकनपुर में 1987 में दूर-दूर तक बंजर जमीन पसरी हुयी थी.
इसी बंजर जमीन के बीच की एक चकरोड पर वीबी सिंह की मोटर सायकिल दौड़ी. उसके पीछे थाने का एक दारोगा और एक अन्य सिपाही बैठे थे. वे चक रोड पर सौ गज भी नहीं पहुंचे थे कि सामने से तेज रफ्तार से आता हुआ एक ट्रक दिखायी दिया.
अगर उन्होंने समय रहते हुये अपनी मोटर सायकिल चक रोड से नीचे न उतार दी होती तो वह ट्रक उन्हें कुचल देता. अपना संतुलन संभालते-संभालते जितना कुछ उन्होंने देखा उसके अनुसार ट्रक पीले रंग का था और उस पर पीछे 41 लिखा हुआ था, पिछली सीटों पर खाकी कपड़े पहने कुछ लोग बैठे हुये दिखे. किसी पुलिस कर्मी के लिये यह समझना मुश्किल नहीं था कि पीएसी की 41 वीं बटालियन का ट्रक कुछ पीएसी कर्मियों को लेकर उनके सामने से गुजरा था. पर इससे गुत्थी और उलझ गयी.
इस समय मकनपुर गांव से पीएसी का ट्रक क्यों आ रहा था? गोलियों की आवाज के पीछे क्या रहस्य था ? वीबी सिंह ने मोटर सायकिल वापस चक रोड पर डाली और गांव की तरफ बढ़ा. मुश्किल से एक किलोमीटर दूर जो नजारा उसने और उसके साथियों ने देखा वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला था. मकनपुर गांव की आबादी से पहले चक रोड एक नहर को काटती थी. नहर आगे जाकर दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर जाती थी. जहां चक रोड और नहर एक दूसरे को काटते थे वहां एक पुलिया थी.
पुलिया पर पहुंचते-पहुंचते वीबी सिंह के मोटर सायकिल की हेडलाइट जब नहर के किनारे उगे सरकंडों की झाड़ियों पर पड़ी तो उन्हें गोलियों की आवाज का रहस्य समझ में आया. चारों तरफ खून के ताजा थक्के थे.अभी खून पूरी तरह से जमा नही था और जमीन पर उसे बहते हुए देखा जा सकता था. नहर की पटरी पर, झाड़ियों के बीच और पानी के अन्दर रिसते हुए जख्मों वाले शव बिखरे पड़े थे.
वीबी सिंह और उसके साथियों ने घटनास्थल का मुलाहिजा कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि वहां क्या हुआ होगा? उनकी समझ में सिर्फ इतना आया कि वहां पड़े शवों और रास्ते में दिखे पीएसी की ट्रक में कोई संबंध ज़रूर है. साथ के सिपाही को घटनास्थल पर निगरानी के लिये छोड़ते हुये वीबी सिंह अपने साथी दारोगा के साथ वापस मुख्य सड़क की तरफ लौटा.
थाने से थोड़ी दूर गाजियाबाद-दिल्ली मार्ग पर पीएसी की 41वीं बटालियन का मुख्यालय था. दोनों सीधे वहीं पहुंचे. बटालियन का मुख्य द्वार बंद था .काफी देर बहस करने के बावजूद भी संतरी ने उन्हें अंदर जाने की इजाजत नहीं दी. तब वीबी सिंह ने ज़िला मुख्यालय आकर सब कुछ मुझे बताने का फैसला किया. जितना कुछ आगे टुकड़ों टुकड़ों में बयान किये गये वृतांत से मैं समझ सका उससे स्पष्ट हो गया कि जो घटा है वह बहुत ही भयानक है और दूसरे दिन गाजियाबाद जल सकता था.
पिछले कई हफ्तों से बगल के जिले मेरठ में सांप्रदायिक दंगे चल रहे थे और उसकी लपटें गाजियाबाद पहुंच रहीं थीं. मैंने सबसे पहले ज़िला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी को फोन किया. वे सोने जा ही रहे थे. उन्हें जगे रहने के लिये कह कर मैंने ज़िला मुख्यालय पर मौजूद अपने एडिशनल एसपी, कुछ डिप्टी एसपी और मजिस्ट्रेटों को फोन कर करके जगाया और तैयार होने के लिये कहा. मुझे पता था कि 41वी बटालियन के कमान्डेंट जोधसिंह भंडारी शहर में रहते थे क्योंकि अभी बटालियन में निर्माण कार्य शैशवावस्था में ही थे. उन्हें भी सूचना देने की व्यवस्था की गयी और अगले चालीस-पैंतालीस मिनटों में सात-आठ वाहनों में लदे-फंदे हम मकनपुर गांव की तरफ लपके.
वहां पहुचने में हमें मुश्किल से पन्द्रह मिनट लगे होंगे. नहर की पुलिया से थोड़ा पहले हमारी गाड़ियां खड़ीं हो गयीं. नहर के दूसरी तरफ थोड़ी दूर पर ही मकनपुर गांव की आबादी थी लेकिन कोई गांव वाला वहां नहीं दिख रहा था. लगता था कि दहशत ने उन्हें घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया था. थाना लिंक रोड के कुछ पुलिस कर्मी जरूर वहां पहुंच गये थे.
उनकी टार्चों की रोशनी के कमजोर वृत्त नहर के किनारे उगी घनी झाड़ियों पर पड़ रहे थे पर उनसे साफ देख पाना मुश्किल था. मैंने गाड़ियों के ड्राईवरों से नहर की तरफ रुख करके अपने हेड़लाइट्स ऑन करने के लिये कहा. लगभग सौ गज चौड़ा इलाका प्रकाश से नहा उठा. उस रोशनी में मैंने जो कुछ देखा यह वही दु;स्वप्न था जिसका जिक्र मैंने शुरू में किया है.
गाड़ियों की हेड लाइट्स की रोशनियां झाड़ियों से टकरा कर टूट-टूट जा रहीं थीं इसलिये टार्चों का भी इस्तेमाल करना पड़ रहा था. झाड़ियों और नहरों के किनारे खून के थक्के अभी पूरी तरह से जमे नहीं थे, उनमें से खून रिस रहा था. पटरी पर बेतरतीबी से शव पड़े थे- कुछ पूरे झाड़ियों में फंसे तो कुछ आधे तिहाई पानी में डूबे. शवों की गिनती करने या निकालने से ज्यादा जरूरी मुझे इस बात की पड़ताल करना लगा कि उनमें से कोई जीवित तो नहीं है.
वहां मौजूद हम सबने अलग-अलग दिशाओं में टार्चों की रोशनियां फेंक-फेंक कर अंदाज लगाने की कोशिश की कि कोई जीवित है या नहीं. बीच-बीच में हम हांक भी लगाते रहे कि यदि कोई जीवित हो तो उत्तर दे … हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं …. उसे अस्पताल ले जायेंगे. पर कोई जवाब नहीं मिला. निराश होकर हममें से कुछ पुलिया पर बैठ गये.
मैंने और ज़िला मजिस्ट्रेट ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है. हमारे पड़ोस में मेरठ जल रहा था और 60 किलोमीटर दूर बैठे हम उसकी आंच से झुलस रहे थे. अफवाहों और शरारती तत्वों से जूझते हुए हम निरंतर शहर को इस आग से बचाने की कोशिश कर रहे थे. यह सोचकर दहशत हो रही थी कि कल जब ये शव पोस्टमार्टम के लिए ज़िला मुख्यालय पहुंचेंगे तो अफवाहों के पर निकल आयेंगे और पूरे शहर को हिंसा का दावानल लील सकता है.
हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी इसलिये जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और जरूरी लिखा-पढ़ी करने के लिये कह कर हम लिंक रोड थाने के लिये मुड़े ही थे कि नहर की तरफ से खांसने की आवाज सुनायी दी. सभी ठिठक कर रुक गये. मैं वापस नहर की तरफ लपका. फिर मौन छा गया. स्पष्ट था कि कोई जीवित है लेकिन उसे यकीन नहीं है कि जो लोग उसे तलाश रहें हैं वे मित्र हैं.
हमने फिर आवाजें लगानी शुरू की, टार्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अंत में हरकत करते हुये एक शरीर पर हमारी नजरें टिक गयीं. कोई दोनो हाथों से झाड़ियां पकड़े आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पड़ा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत! दहशत से बुरी तरह कांप रहा और काफी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वालें हैं, जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे हमे इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था.
गोली दो जगह उसका मांस चीरते हुये निकल गयी थी. भय से नि;श्चेष्ट होकर वह झाड़ियों में गिरा तो भाग दौड़ में उसके हत्यारों को पूरी तरह यह जांचने का मौका नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया. दम साधे वह आधा झाड़ियों और आधा पानी में पड़ा रहा और इस तरह मौत के मुंह से वापस लौट आया. उसे कोई खास चोट नहीं आयी थी और नहर से सहारा देकर निकाले जाने के बाद अपने पैरों पर चलकर वह गाड़ियों तक आया था. बीच में पुलिया पर बैठकर थोड़ी देर सुस्ताया भी.
लगभग 21 वर्षों बाद जब हाशिमपुरा पर किताब लिखने के लिये सामग्री इकट्ठी करते समय मेरी उससे मुलाकात हाशिमपुरा में उसी जगह हुयी जहां से पीएसी उसे उठा कर ले गयी थी, वह मेरा चेहरा भूल चुका था लेकिन मेरा परिचय जानते ही जो पहली बात उसे याद आयी वह यह थी कि पुलिया पर बैठे उसे मैने किसी सिपाही से मांग कर बीड़ी दी थी.
बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपरान्ह तलाशियों के दौरान पीएसी के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस पचास लोगों को ले जाया गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ्तार कर जेल ले जाया जा रहा है. वे लगातार प्रतीक्षा करते रहे कि जेल आयेगा और उन्हें उतार कर उसके अंदर दाखिल कर दिया जायेगा. वे सभी वर्षों से मेरठ में रह रहे थे और कुछ तो यहीं के मूल बाशिंदे थे- इस लिये कर्फ्यू लगी सूनी सड़कों पर जेल पहुचनें में लगनें वाला वक्त कुछ ज्यादा तो लगा पर बाकी सब कुछ इतना स्वाभाविक था कि उन्हें थोड़ी देर बाद जो घटने वाला था उसका जरा भी आभास नही हुआ. जब नहर के किनारे उतार कर उन्हें एक-एक कर मारा जाने लगा तब उन्हे रास्ते भर अपने हत्यारों के खामोश चेहरों और उनके फुसफुसाकर एक दूसरे से बात करने का राज समझ में आया.
इसके बाद की कथा एक लंबी और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुड़े हुयें हैं. मैंने 22 मई 1987 को जो मुकदमें गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर पर दर्ज कराये थे वे पिछले 31 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुये अभी भी अदालत में चल रहें हैं और अपनी तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहें हैं.
मैं लगातार सोचता रहा हूं कि कैसे और क्योंकर हुई होगी ऐसी लोमहर्षक घटना? होशोहवास में कैसे एक सामान्य मनुष्य किसी की जान ले सकता है? वह भी एक की नहीं पूरे समूह की? बिना किसी ऐसी दुश्मनी के जिसके कारण आप क्रोध से पागल हुए जा रहों कैसे आप किसी नौजवान के सीने से सटाकर अपनी रायफल का घोड़ा दबा सकतें है? बहुत सारे प्रश्न है जो आज भी मुझे मथते हैं .