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Saturday, 23 November, 2024
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राजस्थान का शेरगढ़, UP के गाजीपुर का गहमर है योद्धाओं का गांव, देश सेवा के लिए भेजे हैं हजारों सपूत

शेरगढ़, यह 33 गांवोंवाली जोधपुर जिले की एक तहसील और देश के अनेक योद्धाओं की जन्मस्‍थली है. अपने नाम के अनुरूप ही इस स्‍थान ने देश के लगभग सभी युद्धों और अभियानों में अपने अनेक शेर, अनेक सपूत भेजे हैं,

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युद्ध विधवाओं से मेरी पहली बातचीत हमारी रेजिमेंट द्वारा आयोजित वेलफेयर कैंप में हुई थी. मेरी उनमें और उनके जीवन संघर्षों में रुचि जागी और मैं उनके बारे में काफी-कुछ पढ़ने लगी. मैंने स्‍थानीय लोगों और सेवानिवृत्त अधिकारियों से इस बारे में बात करना शुरू किया. तब मुझे देश की ऐसी कई जगहों के बारे में पता चला, जिन्होंने देश की सेवा के लिए अपनी माटी के हजारों सपूत भेजे हैं.

शेरगढ़, यह 33 गांवोंवाली जोधपुर जिले की एक तहसील और देश के अनेक योद्धाओं की जन्मस्‍थली है. अपने नाम के अनुरूप ही इस स्‍थान ने देश के लगभग सभी युद्धों और अभियानों में अपने अनेक शेर, अनेक सपूत भेजे हैं, फिर चाहे वह प्रथम विश्वयुद्ध हो या करगिल युद्ध, आतंकरोधी अभियान हों या देश के उत्तरी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में होनेवाले दूसरे सैन्य अभियान. यहां घर-घर में या तो शहीद या फिर देश की सीमाओं पर तैनात एक सैनिक है. कहा जाता है कि यहाँ जब भी किसी के घर बेटा होता है तो परिवार उसे देश-सेवा में भेजने की शपथ जरूर लेता है. इन ग्रामीणों में देश‍भक्ति की भावना इतनी प्रबल है कि जब यहाँ का कोई बेटा सशस्त्र बलों में चयन के बाद प्रशिक्षण के लिए रवाना होता है तो वह पूरे गाँव के लिए जश्न का दिन होता है.

शेरगढ़ के रहनेवाले उम्रदराज धर्मवीर ने मुझसे कहा, “हमें अपने गांव पर गर्व है, जहां कण-कण में देश‍भक्ति है. हम देश-सेवा में अपने सिर्फ एक नहीं, बल्कि हर बेटे का बलिदान करने को तैयार हैं.”

गहमर, यह पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले का एक गांव है. यहां के करीब 18,000 निवासी इस समय भारतीय सेना में सेवारत हैं और 10,000 से ज्यादा सेना से सेवानिवृत्त हो चुके हैं. यहां के बहुत से घरों में तो एक से ज्यादा लोग सेना में सेवाएं दे रहे हैं. यह गांव वाराणसी से महज 90 किलोमीटर दूर है.

सिर्फ पुरुष ही नहीं, बल्कि अपने पतियों, बेटों और पोतों को खो चुकी इस जगह की महिलाएं भी अपनी मातृभूमि के प्रति वही समर्पण भावना रखती हैं. उन्हें इस बात का कोई पछतावा नहीं, वे कभी इस बात का दु:ख नहीं जतातीं कि उनके परिवार का एक शख्स बहुत जल्दी चला गया और कई मामलों में तो फिर कभी नहीं लौटा. दरअसल, यहां की महिलाओं के लिए यही जीवन-दर्शन है. उनका मानना है कि अगर परिवार मजबूत नहीं होगा तो संकट की घड़ी में उनका सैनिक मजबूत कैसे रह पाएगा? सभी बातें आपस में जुड़ी हुई हैं. यहां के बहुत से युवाओं का कहना है, “हमने अपने बचपन या किशोरावस्‍था में अपने पिता को कम ही देखा है, क्योंकि वे अकसर कहीं दूर तैनात होते थे.”


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स्‍थानीय निवासी पूजा कहती हैं कि जब भी उनके पिता घर लौटते, तभी उनके लिए दीवाली होती, जश्न का मौका होता, फिर चाहे वह साल का कोई भी महीना क्यों न हो! उनकी मां ने ही उन्हें और उनके भाई को पाल-पोसकर बड़ा किया. वे ही उनके दादा-दादी का भी ध्यान रखतीं और घर के बाकी कामों के साथ अपने मवेशियों की देखरेख भी करतीं. पूजा एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षिका हैं और उनकी शादी भी एक सैनिक से हुई है. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, अब वे भी नौकरी के साथ-साथ अपने बच्‍चों, सास-ससुर और अपने छोटे ननद-देवर का खयाल भी रख रही हैं. उनका बेटा सूरज 5 साल का है और वे उसे अभी से फौज में भेजने के लिए तैयार कर रही हैं.

इन महिलाओं में कमाल का भावनात्मक और मानसिक हौसला था. इनसे बात करते हुए मैं अकसर यह सोचकर हैरान होती थी कि आखिर इन्हें जीवन का ऐसा व्यावहारिक दृष्टिकोण कहां से मिला! तमाम कष्टों और मुसीबतों का सामना करते हुए भी ये ऐसे रहती हैं, जैसे यही सहज जीवन हो! खुद मेरे पति फौज में हैं और उनकी पोस्टिंग भी दूर-दराज की आर्मी यूनिट्स में रही है. मैं जानती हूं कि तब कैसे मेरा हर दिन प्रार्थना में कटता था. मैं यही प्रार्थना करती रहती थी कि उनकी
यूनिट से उन्हें कोई ऐसा बुलावा न आ जाए, जो मेरे जीवन की दिशा ही बदल दे.
कभी-कभी मैं एक अनजाने डर से घिर जाती थी. मुझे बुरे सपने आते थे, मैं छोटी-से-छोटी बात पर भावुक हो जाती थी और ऐसी स्थिति में भी अपने बच्‍चों के लिए हर छोटा-बड़ा काम निपटा रही होती थी. इन महिलाओं के जीवन में भी ये भावनात्मक उतार-चढ़ाव रोज ही आते होंगे, पर वे इन पर विजय पाना जानती हैं. एक तरह से इसने मुझे उनसे काफी जोड़ा.
शेरगढ़ से कुछ ही दूर झुंझनू जिला है, जिसने सिर्फ करगिल युद्ध में ही अपने करीब 125 सैनिक खोए हैं. यहां भी हर घर में एक सैनिक है. यहां सेवारत, सेवानिवृत्त और काररवाई में शहीद सैनिकों की संख्या सबसे ज्यादा है. इस जिले में ऐसे परिवार भी हैं, जहां अपने पिता और पुरखों की विरासत को आगे बढ़ाते हुए सैनिकों की पांचवीं पीढ़ी सेना में है. यहाँ का गांव धनुरी ‘सैनिकों और शहीदों का गांव’ के रूप में विख्यात है, क्योंकि यह 250 सेवारत, 300 सेवानिवृत्त और 20 काररवाई में शहीद सैनिकों का गांव है. तीन युद्ध कैदी अकेले इस गांव से हैं.
इस गांव के लोगों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भी हिस्सा लिया है. यहाँ ऐसी अनेक महिलाएं हैं, जो युद्ध विधवा हैं या जिन्होंने अपने बेटे को देशहित में बलिदान कर दिया है. लेकिन जितनी भी महिलाओं से मैं मिली, उनमें से किसी की भी आंखों में आंसू नहीं थे, क्योंकि उन्हें गर्व है अपने सैनिकों पर और इस बात पर भी कि वे ही उनकी ताकत रही हैं.

कम्मावनपेट्टई, तमिलनाडु का ऐसा ही एक अन्य गांव है, जहां हर परिवार से एक सदस्य को भारतीय सेना में भेजने की परंपरा है. वर्तमान में इस गाँव के करीब 1,000 सैनिक सेना में सेवारत हैं.

ऐसा नहीं है कि इन स्‍थानों के युवाओं के पास सेना की नौकरी के अलावा कोई और विकल्प नहीं हैं. बहुत विकल्प हैं. लेकिन ये लोग जान की बाजी लगाकर भी देश-सेवा करना चाहते हैं और इसके लिए भारतीय सेना से बेहतर क्या हो सकता है! जब आप इन गांवों के लोगों के साहस के बारे में जानते हैं तो आपको इस बात का भी गर्व होता है कि हमारी मिट्टी ने ऐसे सपूतों को भी पैदा किया है, जिनकी देशभक्ति की तुलना कोई राजनेता, फिल्मी सितारा या खिलाड़ी नहीं कर सकता. मैं यहां की हर उस बहादुर महिला को सलाम करती हूँ, जिसने देश-सेवा के लिए अपने पति, बेटे या भाई को खोया है और फिर भी अपने बेटे को सेना में भेजने की तैयारी कर रही है!

यहां के लोग राजनीति में विश्वास नहीं करते. रवींद्र सिंह के दो बेटों का जीवन सेना को समर्पित रहा है, एक सेवानिवृत्त हो चुके हैं और दूसरे अभी भी सेना में सेवारत हैं. वे कहते हैं, “राजनेता आते-जाते रहते हैं, आज सत्ता में कोई पार्टी है तो कल दूसरी होगी, पर भारतमाता की रक्षा तो हमें ही करनी है.”

(‘सैनिक के शहीद होने के बाद शुरू होती है पत्नी की जंग’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 350₹ की है.)


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