‘भारत एक अजीब देश है. इस देश में सत्ता हासिल करने वालों को नहीं त्याग करने वालों को सम्मान मिलता है.’ यह बात सुभाषचंद्र बोस ने अपनी प्रेमिका एमिली को लिखे एक खत में कहा था.
महात्मा गांधी भारतीय चिंतन और इसकी ऐतिहासिक यात्रा में ऐसे ही त्याग करने वाले पुरुष के तौर पर याद किए जाते हैं जो पूरे विश्व को अपने वैचारिक और व्यक्तिगत स्थापनाओं से प्रभावित करते आ रहे हैं.
एक तरफ भारत को यह गौरव प्राप्त है कि इस देश में गांधी जैसे व्यक्ति ने जन्म लिया वहीं दूसरी तरफ नथूराम गोडसे जैसा कलंकित व्यक्ति भी इसी धरती से है जिसने गांधी की हत्या की.
गांधी की हत्या, उसके कारण, साजिश और विकृत मानसिकता के उभार को अपनी हालिया किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा ‘ में लेखक अशोक कुमार पांडेय ने प्रमाणिक स्त्रोतों के जरिए दर्ज किया है.
किताब की भूमिका में लेखक स्पष्ट तौर पर कहते हैं, ‘यह किताब इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह है.’
उनके अनुसार, ‘उसने ‘गांधी को क्यों मारा’ एक ऐसा सवाल है जिस पर रोज़ इतना कुछ कहा जाता है कि सौ साल पहले का समय किसी मिथक में बदल जाता है जबकि उस कायराना हत्या से संबंधित हज़ारों पन्नों के दस्तावेज अब भी मौजूद हैं.’
लेखक के अनुसार इतिहास की छेड़छाड़ में उनके गायब होते जाने से पहले उन्हें एक किताब में सहेज लेना सार्थक हो सकता है, शायद जरूरी भी.
संयोग ही है कि इसी महीने गांधी की 73वीं पुण्यतिथि है. ऐसे समय में इस किताब के जरिए गांधी की हत्या से जुड़े तथ्यों और लगातार फैलाए जा रहे अफवाहों को विराम देना बेहद जरूरी हो जाता है.
इस किताब में लेखक ने न केवल गांधी हत्या की साजिश का जिक्र विस्तार से किया है बल्कि उस मानसिकता के उभार के लिए ‘विकृत विचारधारा’ की भी बखूबी पड़ताल की है जिसके तार हिंदू महासभा, हिंदुत्ववादी संगठनों से लेकर हिंदुत्व के सबसे बड़े पैरोकारों में से एक विनायक दामोदर सावरकर तक जाते हैं.
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नथूराम गोडसे- गांधी का हत्यारा
नथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में एक प्रार्थना सभा के दौरान हत्या कर दी थी. लेकिन यह उसका पहला प्रयास नहीं था. वो काफी पहले से इसकी योजना बना रहा था जिसमें नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा के साथ अन्य लोग भी शामिल थे.
लेखक के अनुसार गोडसे और उसके साथी और तमाम हिंदुत्ववादी संगठन ‘हिंदू राष्ट्र के स्वप्न ‘ में महात्मा गांधी को बाधा के तौर पर देखते थे.
लेखक ने चुन्नीभाई वैद्य को उद्धृत करते हुए लिखा है- ‘गांधी जी की हत्या दशकों के व्यवस्थित ब्रेनवाशिंग का परिणाम थी. गांधी जी कट्टरपंथी हिंदुओं की राह का कांटा बन चुके थे और वक्त के साथ-साथ यह असंतोष फोबिया बन गया.’
लेखक ने किताब के एक पूरे खंड में गोडसे द्वारा लाल किला ट्रायल के दौरान आत्माराम की अदालत में बोले गए झूठों को अपने तथ्यों के आधार पर खारिज किया है और दावा किया है कि गोडसे के बयान महज झूठ थे.
आम जनमानस में एक अफवाह सबसे ज्यादा प्रचलित है कि गांधी ने दबाव डालकर पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाये. इस अफवाह को तमाम स्त्रोतों के जरिए लेखक ने गलत साबित किया है और इसे गोडसे और उसके समर्थित संगठनों की साजिश बताया है.
अक्सर गांधी को बंटवारे का जिम्मेदार बोल दिया जाता है. इसे भी लेखक ने कई प्रमाणों के जरिए स्थापित किया है कि गांधी अंत अंत तक देश के बंटवारे के खिलाफ थे.
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भगत सिंह- ‘क्रांतिकारी मनीषा के प्रतीक’
लेखक ने लिखा है- ‘अपने बयान में (मुकदमे के दौरान) भगत सिंह का नाम लेते तुम्हें तो शर्म नहीं आई लेकिन अगर उन्होंने सुना होता कहीं से तो जरूर शर्म से गड़ गए होते.’
भगत सिंह की क्रांतिकारी यात्रा को भी संक्षिप्त तौर पर लेखक ने इस किताब में समेटा है. उन्होंने भगत सिंह के कई लेखों को उद्धृत करते हुए उनके वैचारिक पहलू को भी स्पष्ट तौर पर दर्ज किया है.
गांधी को लेकर अक्सर ये सवाल उठाया जाता है कि उन्होंने भगत सिंह की फांसी रुकवाने का प्रयास नहीं किया. लेखक ने इस मान्यता का जवाब देते हुए कहा है कि अगर गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह कि रिहाई की बात जोड़ी जाती तो यह समझौता टूट जाता.
लेखक ने भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए गांधी द्वारा लिखी चिट्ठियों का भी हवाला दिया है और सावरकर के अनुयायियों को घेरा है और पूछा है कि सावरकर और हिंदुत्ववादी संगठनों ने भगत सिंह को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की?
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गांधी हत्या में सावरकर की ‘भूमिका’
गांधी हत्या की जांच के लिए 22 मार्त 1965 को एक आयोग का गठन किया गया. जिसका पहला अध्यक्ष उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील गोपाल स्वरुप पाठक को बनाया गया. लेकिन 21 नवंबर 1966 को यह जिम्मेदारी जस्टिस जीवनलाल कपूर को दी गई जिनके नाम से कपूर आयोग को जाना गया.
लेखक ने लिखा है- ‘770 पेजों की यह रिपोर्ट पढ़ते हुए जो बात एकदम साफ उभरकर आती है वह यह है कि महात्मा गांधी की हत्या और हत्या के षड्यंत्र में जो व्यक्ति शामिल थे वे हिंदू राष्ट्र दल से संबंध सावरकरवादी थे जो सावरकर के अंधभक्त थे और उसे नेता की तरह मानते थे.’
बता दें कि लाल किला ट्रायल के दौरान साक्ष्यों के अभाव में सावरकर को दोषी करार नहीं दिया जा सका था. कपूर आयोग की रिपोर्ट 30 सितंबर 1969 को आई लेकिन इसके तीन साल पहले ही सावरकर दुनिया से विदा हो चुके थे.
किताब बड़े विस्तार से गांधी की हत्या के पूरे प्रकरण की पड़ताल करती है और तमाम प्रमाणिक स्त्रोतों के जरिए आम जनमानस में कई संगठनों द्वारा प्रचार किए जा रहे अफवाहों के पुलिंदों को ध्वस्त करती है.
भाषाई तौर पर भी ये किताब पाठकों को समृद्ध करती है. जिस हिंदुस्तानी भाषा (हिंदू और उर्दू) का इस्तेमाल लेखक ने किया है उसी के हिमायती महात्मा गांधी भी उम्र भर रहे और इस बात को किताब में दर्ज भी किया गया है.
एक चीज़ जो पाठक के सामने मुश्किलें पैदा करती है वो है कहीं कहीं किताब में पैसिव वॉयस में लिखावट. लेकिन कुछ खामियों के इतर गांधी की हत्या की साजिश की पड़ताल प्रमाणित स्त्रोंतों के जरिए अशोक कुमार पांडेय की किताब बखूबी करती है. जिसे मौजूदा दौर में जानना और लोगों तक पहुंचाना बेहद जरूरी है.
(उसने गांधी को क्यों मारा किताब के लेखक हैं अशोक कुमार पांडेय. इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है)
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