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Sunday, 22 December, 2024
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शम्सुर्रहमान फारूकी- उर्दू की सबसे रौशन मीनार

शम्सुर्रहमान फारूकी की शख्सियत, उनके काम, लेखनी और साहित्यिक दुनिया में उनके मकां को समझने के लिए दिप्रिंट ने मशहूर दास्तांगो हिमांशु बाजपेयी से बात की.

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नई दिल्ली: उर्दू अदब की जानी-मानी शख्सियत और पद्म श्री शम्सुर्रहमान फारूकी का गुरुवार को 85 वर्ष की उम्र में इलाहाबाद में इंतकाल हो गया.

उर्दू साहित्य के रौशन सितारों में से एक फारूकी कोरोना से संक्रमित हुए थे और उससे बीते महीने ही ऊबर चुके थे. उनके निधन की जानकारी मिलते ही उनके चाहने वालों ने उन्हें उनकी रचनाओं, एक शानदार आलोचक और दास्तांगोई को दोबारा स्थापित करने वाले के तौर पर याद किया.

शम्सुर्रहमान फारूकी का जन्म 30 सितंबर 1935 को उत्तर प्रदेश में हुआ था. अंग्रेज़ी में उन्होंने अपनी एमए की डिग्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की थी.

शम्सुर्रहमान फारूकी की शख्सियत, उनके काम, लेखनी और साहित्यिक दुनिया में उनके मकां को समझने के लिए दिप्रिंट ने मशहूर किस्सागो या दास्तांगो हिमांशु बाजपेयी से बात की.


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‘उर्दू की दुनिया का सबसे बड़ा आदमी’

शम्सुर्रहमान फारूकी को याद करते हुए बाजपेयी ने कहा, ‘उर्दू की दुनिया में इस वक्त उनसे बड़ा आदमी कोई नहीं था. अभी के वक्त में वो उर्दू के सबसे बड़े आदमी थे. उनकी जो इल्मी लियाकत (ज्ञान) थी, उसका भंडार उनके पास बहुत था.’

उन्होंने कहा, ‘उर्दू की दुनिया में वो अफसानवी शख्सियत थे.’

बाजपेयी ने कहा कि फारूकी साहब अपने काम के जरिए उर्दू के रुतबे का पर्याय बन गए. उनका काम ही उन्हें जानने के लिए काफी है.

उन्होंने कहा कि उर्दू का दरख्त इसलिए भी फलता-फूलता रहेगा क्योंकि अपनी तपस्या से फारूकी साहब ने उसे सींचा है.

उनके काम में उनका व्यक्तित्व कितना झलकता था इस पर बाजपेयी ने कहा कि उनके लिखने-बोलने में सिर्फ ज्ञान और काम ही झलकता था. उनकी शख्सियत उनके ज्ञान से बनती है और उनके पास चमत्कृत करने वाली मेधा थी.


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‘मीर को समझने के लिए अलग दुनिया खोलते हैं फारूकी साहब’

उर्दू अदब के बड़े शायर मीर तकी मीर पर फारूकी साहब का काम शानदार है. 18वीं शताब्दी के मशहूर शायर मीर तकी मीर के चार वाल्यूम पर उनके काम शेर-ए-शोर-अंगेज़ के लिए उन्हें 1996 में सरस्वती सम्मान मिला था.

बाजपेयी ने कहा कि मीर जो खुदा-ए-सुखन हैं- अगर उन्हें समझने के लिए कोई मुस्तनद हवाला (प्रमाणित स्त्रोत) है तो वो फारूकी साहब हैं.

उन्होंने कहा, ‘जब मीर को उनके जरिए समझते हैं तो एक अलग दुनिया खुलती है. जब तक मीर इस दुनिया में रहेंगे तब तक फारूकी साहब अपने काम के जरिए दुनिया में रहेंगे.’

‘मीर को उनके बिना समझना मीर को अधूरा समझना है.’


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कई चांद थे सरे आसमां

फारूकी साहब की सबसे चर्चित रचनाओं में कई चांद थे सरे आसमां है. मुगलिया बादशाहत के समय को उन्होंने इसमें दर्ज किया है और एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा है.

बाजपेयी ने कहा कि फारूकी साहब ने ये साबित किया कि वो न केवल आलोचक थे बल्कि फिक्शन लिखते हुए भी वो बेहतरीन नज़र आए. इसी की मिसाल है कई चांद थे सरे आसमां.

उन्होंने कहा, ‘जब ये नोवेल आई तो लोगों के होश उड़ गए. ऐतिहासिक नोवेल को लेकर उन्होंने एक नई दुनिया खोल दी.’

1960 के दशक में उन्होंने लिखना शुरू किया था. उनकी चर्चित रचनाओं में कई चांद थे सरे आसमांमीर तकी मीरगालिब अफसाने की हिमायत मेंद सेक्रेट मिरर शामिल है.

‘दास्तांगोई का उनसे बड़ा जानकार कोई नहीं’

साहित्यिक विधाओं से अलग दास्तांगोई पर भी फारूकी साहब की गजब की पकड़ थी. उन्हें दास्तांगोई को दोबारा स्थापित करने का भी श्रेय दिया जाता है.

इसे याद करते हुए किस्सागो बाजपेयी ने कहा कि फारूकी साहब से जबर्दस्त हवाला दास्तांगोई का कोई दूसरा नहीं है. वो हमारे वक्त के इस विधा के सबसे बड़े जानकार थे.

उन्होंने बताया, ‘उन्हीं की प्रेरणा से दास्तांगोई फिर से स्थापित हुई जिसे उनके भतीजे महमूद फारूकी लेकर आए.’


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मुद्दों पर बेबाक राय

बाजपेयी ने कहा कि फारूकी साहब जो कहते थे वो उसपर कायम रहते थे. वो हमेशा अपने समय और लोगों से आमने सामने रहे और मुखर तौर पर बोलते रहे.

उन्होंने बताया, ‘फारूकी साहब ने उर्दू में शबखूं जैसे मैगजीन निकाली. उर्दू की शबखूं जैसी खिदमत किसी ने नहीं की है. वो इसके जरिए अनेक मुद्दों पर बात रखते रहे और उनकी मुद्दों पर मजबूत राय होती थी.’

उन्होंने कहा कि उर्दू का रूतबा जिन लोगों की वजह से कायम है उनमें फारूकी साहब हैं. उनकी ज़हानत विश्व स्तरीय थी. वो अंग्रेजी के भी बड़े जानकार थे.

बाजपेयी ने कहा, ‘उर्दू भाषा के वो सबसे बड़े आलोचक थे.’

उन्होंने कहा, ‘फारूकी साहब की वजह से हिंदुस्तान को ये रुतबा हासिल था कि ये कहा जा सके कि उर्दू का जो सबसे रौशन मीनार है वो भारत में है.’


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इलाहाबाद को बनाया अपना केंद्र

फारूकी साहब ने अपनी जिंदगी का लंबा वक्त इलाहाबाद में बिताया. फारूकी साहब इलाहाबाद में ही शबखूं पत्रिका के संपादक थे.

बाजपेयी ने कहा कि उन्होंने इस भ्रम को तोड़ा कि दिल्ली में बैठकर ही साहित्यिक दुनिया में नाम बनाया जा सकता है. वो इलाहाबाद में रहते हुए उर्दू के सबसे बड़े आदमी थे.

फारूकी साहब के जाने पर उन्होंने कहा, ‘उनका न रहना वाकई में वो कमी है जो नहीं पूरी हो सकती. उनकी प्रतिभा और मेधा हैरान कर देने वाली थी. उनका सामने होना कई युनिवर्सिटीज के बराबर था. हिंदी और उर्दू में उनसे ज्यादा हैरान करने वाला कोई दूसरा शख्सियत नहीं था.’

‘उर्दू बड़े शख्सियतों से खाली नहीं हुआ है लेकिन फारूकी साहब जैसा आदमी एक ही था.’

उन्होंने कहा, ‘अगर किसी समाज को फारूकी साहब के बारे में नहीं पता है तो वो उसकी बदकिस्मती है.’

बाजपेयी ने कहा, ‘एक आम आदमी की जो सीमा होती है फारूकी साहब उससे ऊपर थे. किसी भी खेमे का व्यक्ति हो वो इस बात पर एकमत होगा कि उनका टेलेंट सुपरह्यूमन की तरह था.’

उन्होंने कहा, ‘हम अपनी आने वाली नस्लों को बता पाएंगे कि हमने उन्हें देखा और सुना है. ज्ञान का उत्कर्ष क्या हो सकता है, ये फारूकी साहब को देखकर पता चलता है.’

‘उनके जैसा व्यक्ति दूसरा नहीं है. वो अपने साथ सैकड़ों साल की तहजीब के साथ थे.’

(दास्तांगो हिमांशु बाजपेयी से बातचीत पर आधारित)


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