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Wednesday, 22 May, 2024
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सफल व्यक्ति के असफल अनुभव भी रोचक लगते हैं, ऐसी ही कहानियों की बानगी है ‘ट्वेल्थ फेल’

सफल आदमी को अपना संघर्ष खुद लिखने की आजादी होती है. असफल का संघर्ष कोई सुनना नहीं चाहता और सफल के असफल अनुभव भी रोचक लगते हैं. बारहवीं फेल होना आज मनोज शर्मा का यूएसपी बन गया है.

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सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करते युवा लगातार पढ़ते हैं इतना कि आसपास का होश भी नहीं रहता. बस पढ़ते जाओ-पढ़ते जाओ. ऐसे में किसी भी परीक्षा की तैयारी करने वाले या कुछ बेहतर का सपना देखने वाले को अनुराग पाठक का लिखा उपन्यास ‘ट्वेल्थ फेल ‘ पढ़ने की सलाह देना थोड़ा दुस्साहस है. खास तौर पर यह ध्यान रखते हुए कि उनका एक-एक मिनट कीमती है. बावजूद इसके ट्वेल्थ फेल आपके जूनून को नए सिरे से परिभाषित करती है.

किताब की भूमिका दृष्टि आईएएस कोचिंग के संचालक विकास दिव्यकीर्ति ने लिखी है. भूमिका बहुत छोटी है और उसे पढ़कर किताब के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता. चूंकि विकास इस किताब के मुख्य चरित्र मनोज को जानते हैं शायद इसीलिए उन्होंने यह जिम्मेदारी उठाई. भूमिका लिखना एक मौका होता है- एक पूरे दौर को अपनी आंखों से गुजरते बदलते देखने को बयां करने का. कुछ–कुछ ‘परदे के पीछे’ या ‘मेकिंग ऑफ सिनेमा’ टाइप.

विकास दिव्यकीर्ति का देशभर में सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे युवाओं के बीच एक सम्मान है, उन्होंने हिन्दी माध्यम के छात्रों को दौड़ में बने रहने का भरोसा दिया है. अंग्रेज़ीदां माहौल में सबसे पीछे खड़े बच्चे की आंखों में चमक पैदा कर देना बड़ी बात है. यही असफलता, भरोसा और संघर्ष इस कहानी का मूल है. आशा की जानी चाहिए कि किताब के अगले संस्करण में भूमिका को वह विस्तार दिया जाएगा जो इस कहानी की पठनीयता को ओर बढ़ा दे.

कहानी सीधी सी है बारहवीं फेल हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाला एक युवा संघर्ष करता है और अपने आखिरी अटेंप्ट में आईपीएस बन जाता है. वह युवा मनोज शर्मा है और इन दिनों मुंबई में पोस्टेड है. इस सीधी सपाट कहानी को अनुराग के शिल्प ने रोचक बना दिया है. अनुराग खुद एक सरकारी अधिकारी हैं और इंदौर में पोस्टेड हैं.

मुरैना के जौरा तहसील के बिलग्राम की बुढ़िया की यह बात पाठकों के दिमाग में अंत तक बनी रहती है- ‘लल्ला तू फर्स्ट से पास होयेगो.’ वह बूढ़ी मां यह बात उस लड़के से कहती है जो सिर्फ झूठी तारीफ पाने के लिए छत पर घूम-घूम कर पढ़ता है.

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झूठ से शुरू होने वाली इस कहानी में मनोज ईमानदारी का दामन थामता है. ऐसा क्यों हुआ इसकी कोई स्पष्ट वजह नहीं है. लेकिन बारहवीं में फेल होने का धब्बा, मां का संघर्ष और पिता की जिद यह सब मिलकर मनोज को ईमानदार बनातेा है. या फिर इलाके के एसडीएम से मुलाकात मनोज की सोच को बदल देती है. इन सबसे बढ़कर तीन दिन भिखारियों के साथ गुजारी रातें शायद मनोज की सोच को मांजती है. इतना ज्यादा मांजती है कि वो एक वक्त का खाना भी उधार में नहीं खाता और बदले में बर्तन मांजता है.

भिखारियों के साथ बिताए वक्त के साथ ही मनोज का असली संघर्ष शुरू होता है. जो लाइब्रेरी में नौकरी और आटा चक्की पर काम तक जाता है. हर संघर्ष उसे अंदर से मजबूत बनाता है. किताब में ऐसे कई किस्से हैं जो इसे स्वेट माडर्न और डेल कारनेगी जैसों के लिखे मोटिवेशनल किस्सों से खुद को अलग खड़ा करते हैं. घटनाओं को हास्य, भावनाओं और सहजता से कहा गया है और कहीं ज्ञान देने की कोशिश नहीं है इसलिए पढ़ते समय ऐसा नहीं लगता कि आप भाषण सुन रहे हैं.

इस बीच अच्छे लोग भी मिले और बदली परिस्थितियों में मनोज यूपीएससी की तैयारी के लिए दिल्ली आ गया. यहां भी उसका संघर्ष जारी रहा. अमीरों के कुत्तों के टहलाया और ट्यूशन फीस के लिए कोचिंग संचालकों ने मदद की. अपनी गर्लफ्रेंड के मोटिवेट करने पर उसने फोकस होकर पढ़ाई की. ऐसे कई छोटे-छोटे पहलू हैं जो कहानी को रोचक बनाते हैं.

अपने पहले मेन्स एग्जाम में मनोज ‘टुरिज्म इन इंडिया’ की जगह ‘टेररिज्म इन इंडिया’ पर निबंध लिख आते हैं. यह घटना बताती है कि उनका पढ़ाई का स्तर क्या था. शायद ऐसी ही गलतियां उन हजारों छात्रों को मनोज से जोड़ देतीं हैं जो साधारण होते हुए भी बड़े सपने देखते हैं. जैसा कि गोबर उठाता उनका दोस्त राकेश कहता है, ‘तो बन जाएगो उसमें कौन सी बड़ी बात है. ऊपर से कोउ ना आवतें. आदमी ही बनते है एसडीएम.’

ट्वेल्थ फेल, एक सपना दिखाती है, वह सपना जो दूर नहीं है और उसे देखने के लिए आंखें बंद करने की जरूरत भी नहीं है. मनोज शर्मा कोई हीरो टाइप नहीं दिखते जो ईमानदारी के हथियार से जीवन संघर्ष को जीत रहे हैं, वो ऐसे साधारण दिखते हैं कि कोई भी छात्र उनमें खुद को देख लें और यही बात उन्हें खास बनाती है.

ये संघर्ष के किस्से हैं. सफल आदमी को अपना संघर्ष खुद लिखने की आजादी होती है. असफल का संघर्ष कोई सुनना नहीं चाहता और सफल के असफल अनुभव भी रोचक लगते हैं. बारहवीं फेल होना आज मनोज शर्मा का यूएसपी (यूनिक सेलिंग पाइंट) बन गया है. वे इसे चाहे जैसे व्याख्यित कर सकते हैं क्योंकि लोग सुनना चाहते हैं.


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लेकिन ऊपर लिखे किसी भी कारण से इस किताब को नहीं पढ़ना चाहिए. बल्कि इस कहानी को उस भरोसे का मूल जानने के लिए पढ़ना चाहिए जिसके सहारे कोई युवक शहर छोड़कर गांव आता है. वो एक आग जो एक लाइन भी अंग्रेजी ना जानने वाले और हिंदी गलत लिखने वाले के भीतर धधकती है. मुरैना के जिस इलाके से मनोज आते हैं वहां इंडस्ट्रीज ना के बराबर हैं. खेती का रकबा भी ज्यादातर परिवारों के पास बेहद कम हैं, रोजगार के कोई साधन नहीं. वहां लड़के टैम्पों चलाने या भजिए की दुकान खोलने की प्लानिंग करते हैं. इस जगह में पलने और पढ़ने वाले छात्रों के भीतर एक हर हाल में कुछ कर गुजरने की जरूरत होती है. ज्यादातर यह जरूरत गलत रास्ता पकड़ लेती है जिसके लिए भिंड-मुरैना जैसे इलाके चर्चित रहे हैं. इस एलीमेंट को बिहार और यूपी के बड़े हिस्से के हिसाब से देखिए तो आसानी से समझ आता है कि प्रतियोगी परिक्षाओं में इन क्षेत्रों से ज्यादा नाम क्यों आते हैं. इनके बनिस्पत वे छात्र जिनके पास सुविधाएं हैं वे पीछे रह जाते हैं.

चूंकि मनोज शर्मा और उनकी पत्नी श्रद्धा आज सरकारी सेवा में हैं इसलिए उन्होंने अपनी कहानी कहते समय विवादास्पद मुद्दों पर बात नहीं की. ऐसा संभव नहीं कि मुखर्जी नगर में रहते हुए सफलता को लेकर आशंकित लड़के आरक्षण को लेकर बहस ना करते हों या क्षेत्रवाद हावी ना रहता हो या फिर अंग्रेजी का फोबिया टकराव का कारण ना बनता हो.

हलांकि मनोज के इंटरव्यू में अंग्रेजी को लेकर पूछे गए सवाल और उनके पीछे छिपा बोर्ड का भेदभाव बेहतरीन तरीके से लिखा गया है. बानगी देखिए– मनोज को अंग्रेजी बोलने में घबराया देखकर पानी पीने के लिए दिया जाता है, वे पानी पीने से यह कहकर इंकार कर देते हैं कि पानी कॉच के गिलास में है और मैं सिर्फ स्टील के गिलास में पानी पीता हूं. नाराज बोर्ड चैयरमैन जानना चाहते हैं इससे क्या फर्क पड़ता है, पानी तो फिर भी पानी है इस पर मनोज का जवाब होता है– वही तो मैं भी कह रहा हूं, सेवा की नीयत जरूरी है, वह किस भाषा में की जाएगी इससे क्या फर्क पड़ता है.

फिर भी वाजीराम के अंग्रेजी छात्र और दृष्टि के हिंदी छात्रों के बीच कभी तो बात मुलाकात होती होगी. यूपीएससी बोर्ड का हिंदी को लेकर रवैया उसके रिजल्ट में दिखता है. पहले से लेकर सौ तक की रैंक में अंग्रेजी वाले ही सलेक्ट होते हैं. पिछले कुछ सालों से टॉपर की लिस्ट में इंजीनियरों ने मजबूत पकड़ बनाई है. हिंदी के हालात यह है कि इंटरव्यू के दौरान अंग्रेजी का अनुवादक भी रखा जाता है.

आज के दौर में जब संवेदनाओं के सरोकार व्यक्ति की पॉकेट देखकर तय किए जाते हैं, मनोज कुछ जरूरतमंदों के लिए भीख मांगता है वह भी तब जब उसकी अपनी जेब खाली होती है. इस घटना से गुजरते हुए आप यह जान पाते हैं कि जिद, संघर्ष, प्रेम, भरोसा सब आपस में मिलकर एक संवेदनशील इंसान का निर्माण करते हैं.


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कहानी का एक मजबूत पक्ष प्रेम है. जो भरोसा देता है. गलतियां करता है और फिर उठ खड़ा होता है. मनोज और श्रद्धा के रिश्ते में श्रद्धा की परिपक्वता पाठक को आनंदित करती है. यह रिश्ता बताता है कि आप किसी से भी प्रेम करके मोटिवेट हो सकते हैं बस उसे बांधने की कोशिश मत कीजिए. प्रेम, प्रेम ही होता है वो नौकरी लगने की शर्तों पर नहीं टिका होता. किताब बेहतरीन तरीके से बताती है कि खुद पर भरोसा कीजिए, जुटे रहिए और एक दिन ऐसा आएगा कि ट्रैफिक पुलिस का वह हाथ जो आपकी बाइक को रोकने के लिए सामने आता है एकाएक आपको सेल्यूट करने के लिए उठ जाएगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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1 टिप्पणी

  1. Imandari or mehanat hi jeevan ko savarti h jeevan ko ujjawal banati h, parisaram karte rahne se manjil milti h

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