पुणे: ‘मैं अपने दोनों पैरों में पांच-पांच किलो के घुंघरू बांधता था और गले में ढोलकी लटकाकर जब मंच पर बजाना शुरू करता था तो शरीर का रोम-रोम खिल उठता था. अब ऐसे पुराने खयालों को सोच-सोचकर रात बीत जाती है. कानों में पब्लिक की सीटियां गूंजती हैं. उनकी फरमाइशों को मन ही मन सुन-सुनकर नगाड़े बज उठते हैं. देखिए, यह पूरा साल कोरोना की वजह से बेकार चला गया. मेले और यात्राएं बंद हैं. अब हर दिन रोजी-रोटी का संकट है. ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब हमारे घर का कोई आदमी रोता न हो. जिंदगी चलाने के लिए साहूकार से कर्ज लिया है. हमें तो लगता नहीं है कि यह कर्ज जीते जी चुका भी सकेंगे. यही चिंता में दिन कट रहे हैं.’
ये शब्द हैं 65 वर्षीय तमाशा कलाकार दामोदर कांबले के. वे सांगली जिले में मिरज शहर के रहवासी हैं और पिछले साल इस क्षेत्र के आसपास कवलपुर, सवलाज, बस्तवडे, सावर्डे, चिंचणी, कवडेमहाकाल, बोरगाव, नागज, घाटनांद्रे, इरली, तिसंगी और पाचगाव में आयोजित कई तमाशा आयोजनों के दौरान भाग ले चुके हैं. दामोदर कांबले को इस बात का डर है कि अगले साल भी तमाशा के कार्यक्रम होंगे या नहीं. वहीं, उनकी उम्र को देखते हुए साथी कलाकार उन्हें कोरोना से बचने की नसीहत देते हुए भी नहीं थकते हैं. इस तरह, उन्हें रोजी-रोटी की चिंता भी है और कोरोना से बीमार होने का डर भी.
बता दें कि पश्चिम महाराष्ट्र के सांगली जिले में हर वर्ष लोक नाट्य तमाशा मंडल का कार्यालय गुड़ी पर्वा (मार्च-अप्रैल) त्यौहार में खुलता है. इसके साथ ही सांगली, सतारा, कोल्हापुर और सोलापुर से लेकर पड़ोसी राज्य कर्नाटक के बेलगाम, वीजापुर और बागलकोट जिलों में जात्रा यानी मेले और यात्राएं शुरू हो जाती हैं. इस दौरान सभी तमाशा कार्यक्रमों की रुपरेखा सांगली जिले के वीटा शहर में तय की जाती है. इसके लिए सभी तमाशा मंडलों के प्रतिनिधि वीटा आते हैं. वीटा स्थित तमाशा मंडल के प्रबंधक के परामर्श से इस दौरान सुपारी ली जाती है. यानी तमाशा आयोजन के लिए आयोजकों से एक निश्चित राशि ठहराई जाती है. इसके तहत जात्रा में रात को होने वाले मुख्य आयोजन के अलावा अगले दिन कुश्ती का आयोजन भी शामिल होता है.
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इसके बाद नर्तकियों के मुकाबले से लेकर अन्य गतिविधियों के लिए आयोजक और तमाशा मंडलियों के बीच समझौते किए जाते हैं. समझौता तय होने पर तमाशा मंडल आयोजक से निश्चित राशि लेना स्वीकार करता है. इस तरह, वह आयोजक से 25 हजार से लेकर 60 हजार रुपए तक की सुपारी उठाता है. लेकिन, अफसोस की इस वर्ष कोरोना लॉकडाउन के कारण इस तरह के समझौते हुए ही नहीं.
तमाशा मंडल में काम करने वाली एक अन्य कलाकार छाया नगजकर बताती हैं कि पारंपरिक तमाशा में गण, गवलण, बतावणी और वागनाट्य प्रमुख होते हैं और आयोजक इस तरह के तमाशों की मांग तमाशा मंडलों से करता है. बीते कुछ वर्षों से यह देखने को भी मिला है कि दर्शक तमाशा में नए फिल्मी गानों की मांग भी करता है. इस दौरान कलाकार शरीर पर नऊवारी (मराठी शैली की विशेष साड़ी) और पैरों में पांच-पांच किलो के घुंघुरू पहनकर मंच पर अपने हुनर का जादू बिखेरता है.
छाया नगजकर बताती हैं, ‘मार्च में कोरोना के कारण तालाबंदी लग गई. यही समय होता है जब तमाशा शुरू होता है. पर, इसी समय सब सिनेमाहाल बंद हुए और मनोरंजन के सभी व्यवसायों पर पाबंदी लगा दी गई. इसलिए गांव-गांव में तमाशे भी रुक गए. तमाशा का तो गणित ही यही होता है कि जितनी अधिक भीड़ उतनी अच्छा तमाशा. पर, तालाबंदी में तो भीड़ जमा करने पर ही मनाही थी. ऐसे में तमाशा होना ही नहीं था. सवाल है कि जिन कलाकारों को सिर्फ तमाशा खेलना आता है उनकी रोजी-रोटी महीनों तक बिना तमाशे के कैसे चलती.’ जाहिर है कि तमाशा में काम करने वाले लोक नाट्य कलाकारों का पूरा सीजन ही बेकार चला गया है. लेकिन, उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि क्या अगले वर्ष भी तमाशे के आयोजन होंगे. क्योंकि, कोरोना की नई लहर और नए रूप को लेकर सभी कलाकार आशंकित हैं.
दामोदर कांबले को तमाशा की दुनिया में लोग ‘बालम’ नाम से जानते हैं. इसी तरह, छाया नागजकर तमाशा में आमतौर पर ‘मौसी’ की भूमिका निभाती है, इसलिए उन्हें अक्सर इसी तरह संबोधित किया जाता है. वहीं, इनके अलावा अन्य कई कलाकार कोरोना-काल में बेकार हो चुके हैं और जगह-जगह छोटे-मोटे काम कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, कोई कलाकार खेतों में मजदूरी करता है तो कोई जानवरों को चराने के लिए जंगली-पहाड़ी इलाके में जाता है.
‘बालम’ और ‘मौसी’ जिस तमाशा मंडली से जुड़े हैं उसमें अन्य 30 कलाकारों का परिवार भी आश्रित है. लेकिन, फिलहाल तमाशा की दुनिया से अलग होकर इन्होंने जाना कि बिना पैसों के जिंदगी उनके आगे किस तरह का तमाशा दिखा रही है. घर पर पड़े वाद्य-यंत्रों में जंग न लग जाए, इसलिए वे उन्हें खाली समय में बजाते हैं और भूखे रहकर भी कई बार तमाशे का अभ्यास करते हैं. लॉकडाउन के दौरान ही इन्होंने तमाशों की कहानियों और उनके प्रदर्शनों में कई तरह के बदलाव भी किए हैं. यह सब ये इस उम्मीद में कर रहे हैं कि मौजूदा दिन कट जाएंगे और एक दिन जिंदगी जब पहले की तरह फिर पटरी पर लौटेगी तो वे दर्शकों को अपनी रचनात्मकता दिखाएंगे.
दूसरी तरफ, एक अन्य तमाशा मंडली में नृत्य करने वाले तासगाव के चरण पारधी बताते हैं कि कोरोना लॉकडाउन में सभी लोगों की माली हालत तंग हो गई है, इसके बावजूद कई लोगों ने उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाए हैं. वे कहते हैं, ‘खाली समय में बेकार बैठा नहीं जाता है. इसलिए मैंने तमाशे के लिए 12 नए गाने तैयार किए हैं. कल जब समय कोरोना से मुक्त होगा तो लोग जानेंगे कि हमने घर में बैठकर नया क्या तैयार किया है.’
वहीं, तमाशा लोक नाट्य के जानकार भास्कर सदाकले बताते हैं कि आज स्थिति यह है कि तमाशा के मंच पर सुंदर कपड़े पहनने वाला राजा हकीकत में रंक बन चुका है. यही हालत नर्तकी की है. जबकि, जरूरत है कि एक लोक नाट्य कलाकार को सम्मानजनक तरीके से जीने के अवसर तलाशने की. वास्तव में तमाशा मराठी की एक अद्भुत लोक नाट्य विधा है जिसे कोरोना के समय भी जिंदा रहना चाहिए. लेकिन, अफसोस कि ऐसी कला को जीवित रखने वाले जमीनी कलाकारों को मौजूदा संकट से बाहर निकालने के लिए कहीं कोई कुछ खास कोशिश नहीं हो रही है.
(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
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