धीदो रांझा अपने गांव तख़्त हज़ारा से निकलने के बाद से हीर को महीनों से ढूंढ़ रहा था. वह गांव के रांझा कुनबे के मुखिया मौजू चौधरी के आठ बेटों में सबसे छोटा था. पिता ने सबसे ज्यादा प्यार उसे ही दिया था. उसके सभी बड़े भाइयों की शादी हो चुकी थी. धीदो बेफ़िक्र होकर ज़िंदगी जीता था. वह पिता के पशुओं को चराता और बांसुरी बजा कर गाय-भैसों को सुनाता था.
मौजू की अचानक मौत के बाद धीदो की ज़िंदगी बदतर हो गई. भाइयों ने ज़मीन बांट ली और धीदो के हिस्से में पथरीली-बंजर ज़मीन आई. अब उसके भाई उसे नाकारा-निकम्मा कहने लगे और भाभियां ताने देने लगीं. वे कहतीं, ‘यह तो यहाँ-वहां आवारागर्दी करके और बांसुरी बजा कर ही रईस बन जाएगा.’ एक भाभी ने ताना मारा, ‘ये हीर सयाल को ब्याह कर लाएगा.’ फिर सब यह कहते हुए हंस पड़ीं, ‘हां-हां, जब वह हीर सयाल को दुल्हन बना कर लाएगा, तब हम उसके लिए एक कमरा भी सजाकर रखेंगे.’ भाई उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहते, ‘वह बेवकूफ हल चलाना और खेत सिंचना तक नहीं जानता. भला वह खाने के लिए अनाज कहां से पैदा करेगा!’ यह सच था कि धीदो के भाई खेती किया करते थे, लेकिन उसे पिता ने लाड़-प्यार में खेती-बाड़ी के बारे में कुछ नहीं सिखाया था. पिता के जीते जी उसे कोई इस कमी का एहसास कराने की हिम्मत भी नहीं करता था. लेकिन, अब हालात कुछ और थे.
धीदो ने मेहनत से खेती शुरू की. अब उसके पास कोई चारा भी नहीं था. गरीबी के चलते वह अलग रहने की स्थिति में भी नहीं था. वह खेतों में जी-तोड़ मेहनत करता था, लेकिन उसकी छोटी भाभी नूरन की वजह से वह गांव छोड़ने के लिए मजबूर हो गया. नूरन बहुत सुंदर थी. गांव की औरतें उसकी तुलना हीर सयाल से करती थीं. उसकी बड़ी-बड़ी काली आंखें, उभरा वक्षस्थल और पतली कमर थी. जब सूरज आसमान में चढ़ जाता, वह धीदो के लिए खेत में खाना लेकर आती थी. वह बाकी भाभियों जैसी कठोर नहीं थी. खाना देते समय वह नरमी से बात करती और धीदो उसके लिए बांसुरी बजाता. वह कहती, ‘तुम बहुत सुंदर हो. कोई लड़की तुम्हें ठुकराएगी नहीं.’ भाभी की यह बात सुन धीदो मुस्कुरा देता था. फिर वह यह भी कहती थी, ‘तुम कमाते नहीं हो, इसलिए किसी बेटी का बाप तुम्हें दामाद नहीं बनाएगा. तुम्हारे भाइयों ने भी तुम पर ज़ुल्म किया है. उन्होंने तुम्हारा सब कुछ ले लिया.’
एक दिन, धूप तेज़ थी और धीदो थककर खेत के पास ही बरगद के पेड़ की छांव में सो गया था. नूरन खाना लेकर आई. सुनसान जगह पर उसे अकेला देख, वह उसके पास जाकर लेट गई. धीदो जगा तो देखा कि भाभी उसके सिर और छाती पर अंगुलियां फिरा रही है. धूप की किरणें उसके बालों से छन कर धीदो के चेहरे पर पड़ रही थीं. उसके हाथ नूरन के गालों और होंठों तक पहुंच गए. नूरन ने अपने होंठ उसके होंठों से लगाते हुए कहा, ‘मुझे अपना लो, मैं तुम्हारी हूं.’ भाभी की आंखें वासना से भरी थीं, लेकिन धीदो की प्रतिक्रिया एकदम ठंडी रही. उसने अपनी बांसुरी उठाई और चल दिया. नूरन को उम्मीद नहीं थी कि उसकी पेशकश वह इस तरह ठुकरा देगा. इसके बाद तो भाभी ने देवर को खूब बुरा-भला कहा, ‘तू सड़क पर भीख मागेगा… कुत्ते की मौत मरेगा… भूखा मरेगा…’
धीदो वहां से चला गया, लेकिन उसे पता नहीं था कि जाना कहां है. गांव की सीमा पर पहुंच कर वह एक क्षण के लिए रुका. वह मन ही मन सोचने लगा, ‘मुझे याद नहीं कि कभी मैं इस गांव के बाहर गया हूं. इसकी सीमा मैंने कभी नहीं लांघी.’ अगले ही पल वह निकल पड़ा.
धीदो एक गांव से दूसरे गांव भटकता रहा. धूप तेज़ हो जाने पर किसी पेड़ की छांव में सुस्ताते हुए पक्षियों व जानवरों के लिए बांसुरी बजाने लगता. धूप कम होती तो फिर निकाल पड़ता. कभी-कभी लोग उसे खाना दे देते तो उनके लिए भी बांसुरी बजा देता. उसके पास खाना खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, लेकिन वह भीख नहीं मांगता था. रात में कभी किसी खाली पड़ी झोपड़ी में रुक जाता तो कभी किसी गाँव का कोई व्यक्ति अपने यहां वरामदे में सोने का इंतजाम कर देता था.
शुरू में जब वह निकला था तो भाइयों और भाभियों के दिए ज़ख्मों से खुद को चोटिल महसूस करता था. उसे ख़ुशी भरे वे दिन याद आते थे जब पिता के मवेशी चराते और बांसुरी बजाते बेफिक्री से दिन बीता करते थे. उसे याद आया कि सभी गाय-भैंस उसे पहचानती थीं. वह अपने पिता को याद करके दुखी हो उठा. पिता ने उसे जीवनभर बिना किसी उम्मीद के एक बेफ़िक्र ज़िंदगी दी थी.
कुछ वक्त बीत जाने के बाद, वह फिर से ख़ुश रहने लगा. दुख का एहसास गायब हो गया. भटकते-भटकते उसके पैरों में छाले पड़ गए और कई बार पेट भी खाली रहता, फिर भी उसे सुकून महसूस होता था. वह किसी गांव में रुकता और अपने चैन के लिए बंशी बजाता था. लेकिन उसे सुनने के लिए स्त्री-पुरुष जमा हो जाते. वे उसकी तारीफ करते और उसे खाना भी देते.
उसे कुछ पता नहीं था कि उसकी यात्रा कहां खत्म होगी. वह चिनाब नदी के किनारे पहुंचा. वहां कई नाव खड़ी थीं. नदी के उस पार एक हरा-भरा, समृद्ध गांव था. एक बड़ी नाव में औरतें और बच्चे जाने को तैयार बैठे थे. धीदो की इच्छा हुई कि वह उस गांव में जाए. उसने नाविक से कहा कि उसे भी बैठा ले. नाविक ने किराया मांगा. धीदो के पास बांसुरी के अलावा कुछ नहीं था. उसने नाविक को बांसुरी पकड़ा दी. नाविक ने मना कर दिया और नाव खेने लगा.
धीदो ने अपने कपड़े और बांसुरी सिर पर बांध कर नदी में छलांग लगा दी. वह तैर कर नाव के पीछे-पीछे आने लगा. नाव पर बैठी महिलाओं में से कुछ ने उसके प्रति हमदर्दी दिखाई तो कुछ ने नाविक का पक्ष लिया. उन्हीं में से एक औरत ने सवाल किया, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’ उसने कहा, ‘धीदो रांझा.’ एक बोली, ‘जल्दी तैरो, रांझा.’ दूसरी ने नाववाले से कहा, ‘लुड्डन, लुड्डन, नाव तेज चलाओ.’ ‘रांझा, रांझा! आओ.’ ‘तेज चलाओ लुड्डन.’ लुड्डन बोला, ‘तुम सब बहुत मोटे और भारी हो.’
महिलाओं के लिए यह खेल हो गया था और इस रोमांच के बीच नाव हिलने लगी. धीदो की हिम्मत भी जवाब देने लगी. वह कोई माहिर तैराक भी नहीं था. वह नाव से पीछे रह गया और किसी तरह अपना सिर पानी से बाहर रखते हुए हाथ-पैर मार रहा था. नाव में बैठे लोग समझ गए थे कि अब रांझा के लिए नदी पार कर पाना संभव नहीं है. सब औरतों ने एक साथ शोर मचाया, ‘रांझा डूब जाएगा! उसे नाव में ले लो.’ ‘उसे देखो, वह डूब रहा है. नाव धीरे करो. क्या तुम चाहते हो कि वह डूब कर मर जाए? अगर वह डूबा तो जिम्मेदार तुम ही होगे. अल्लाह के वास्ते! किराए की खातिर सवारी की जान दांव पर मत लगाओ.’ महिलाओं की इस गुहार के बाद लुड्डन को भी लगा कि युवक की जान बचाना ज़रूरी है. उसने नाव रोक दी.
महिलाओं ने आवाज़ लगाते हुए रांझा की ओर हाथ बढ़ाया और नाव के निकट पहुंचते ही उसे नाव में खींच लिया. इस दौरान सारी महिलाओं के एक ही तरफ आ जाने से नाव भी डगमगाने लगी थी. लुड्डन को बीच नदी में नाव का संतुलन बनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. उसने महिलाओं से नाव के बीच में आने के लिए कहा.
महिलाओं में से किसी ने धीदो को अपनी ऊनी चादर ओढ़ाई तो किसी ने दुपट्टे से उसका बदन सुखाया. धीदो के पेट में पानी चला गया था. वह बेहोश हो गया. महिलाओं ने उसे लिटा कर छाती और पैरों को दबा कर पानी निकालने की कोशिश की. कुछ देर बाद उसने आंखें खोलीं और बैठने की कोशिश की. महिलाएंं उसे एक गद्दीदार सीट के पास लेकर गईं.
लुड्डन बोला, ‘यह सीट हीर सयाल की है.’ इस पर एक महिला ने कहा, ‘तुम्हें याद भी है कि आखिरी बार वह कब नाव में बैठी. वह बचपन में बैठा करती थी. अब बड़ी हो गई है. अब वह नाव में नहीं बैठती.’ कुछ महिलाएं धीदो को उस गद्दीदार सीट तक ले गईं. उन्होंने उसे वहां बैठा दिया.
महिलाओं की बातें सुन कर धीदो को पहली बार हीर सयाल के बारे में जानकारी मिली. उसने उसके बारे में सुना तो था, लेकिन सोचा भी नहीं था कि कभी उसे देखने का मौका भी मिलेगा. उसने मन ही मन सोचा कि यह नाव हीर के गांव ही जा रही है.
अब तक हीर संभल कर बैठ गया और बेहतर भी महसूस करने लगा. उसने अपनी बांसुरी निकाली और उन महिलाओं के लिए बजाने लगा, जिन्होंने उसकी जान बचाई थी. बांसुरी की धुन से सब मंत्रमुग्ध हो गए. मां की छाती से चिपके बच्चों को भी गांव के जादूगर के जादू से ज्यादा आनंद रांझा की बांसुरी की धुन में आ रहा था. बांसुरी की धुन चिनाब नदी की धारा से जुगलबंदी करती लग रही थी. लुड्डन भी कुछ देर के लिए चप्पू चलाना भूल कर बंशी की धुन में खो गया. जब उसे एहसास हुआ कि नाव उल्टी दिशा में जाने लगी, तब अचानक उसने चप्पू निकाल कर चलाना शुरू किया.
झांग में नदी किनारे नाव पहुंची तो सवारियां गईं. उन्हें जल्दी घर पहुंच कर काम-धंधे में लगना था. लुड्डन भी वापसी यात्रा के लिए नाव को तैयार करने लगा. धीदो नाव से उतर कर नदी किनारे एक स्थान पर बैठ गया. दो लड़के भी नाव से उतरने के बाद घर नहीं जाकर वहीं रुक गए. उन्हें और बांसुरी सुननी थी. उन्होंने धीदो से बंशी बजाने का आग्रह किया. उसने भी लड़कों को निराश नहीं किया. जब तक वे लड़के चले नहीं गए और हीर अपनी सहेलियों के साथ वहाँ आ नहीं गई, तब तक वह बंशी बजाता ही रहा.
