यौन उत्पीड़न के लिए कई महिलाओं के निशाने पर आए सेलिब्रिटी कंसल्टेंट सुहेल सेठ को जानने वाले बयान कर रहे हैं उनके दंभ तथा अहंकार के क़िस्से.
नई दिल्ली: जब वे सवाल उठाती हैं और वे उठाएंगी ही, तब मुझे कहना ही पड़ेगा कि मैंने किसी से बात नहीं की है.
मैंने कई सूत्रों को करीब दर्जनभर फोन किए और सबने ज़ोर दिया कि उन्हें गुमनाम ही रखा जाए. उन्होंने फुसफुसाहट भरी आवाज़ में बातें की और उन पार्टियों के बारे में बताया, जिनमें देर रात तक लोगों के जाम बेहद महंगी शराब से हमेशा भरे रहते; गुरुग्राम के सबसे पॉश इलाके में 6000 वर्गफुट के उनके घर, साफ़सफ़ाई और सादगी भरी साजसज्जा के बारे में.
कहानियां न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के उनके घर के आगे के पोर्च में खड़ी चमचमाती काली मर्सिडीज की भी सुनाई गईं. और उनके जीवन में आईं तथा फिर बाहर हो चुकीं महिलाओं, कई महिलाओं के किस्से भी शेयर किए गए.
उनके एक परिचित ने कहा, सुहेल सेठ ‘हरदिलअज़ीज़ दोस्त’ हैं, लेकिन फिलहाल तो ‘मैं नहीं चाहता कि मेरा नाम किसी भी तरह इस सबसे जुड़े.’ लुटियन्स की दिल्ली की सुरक्षा करने वाली दीवारें उलटे रखे पिरामिड के आकार की हैं, इस तक पहुंचने के गलियारे जीतने ऊपर जाओ उतने चौड़े होते जाते हैं. सेठ सीधे शिखर तक पहुंच गए और एक संपर्क सूची के बूते अपनी एक विरासत तैयार करने में कामयाब हो गए.
अरुण जेटली सरीखे केंद्रीय मंत्री, रत्न टाटा तथा अनिल अंबानी सरीखे उद्योगपतियों, आर. करंजावाला जैसे कानूनविदों से दोस्ती; शाहरुख खान के साथ सेल्फी, राजदीप सरदेसाई तथा बरखा दत्त जैसे ऊंचे पत्रकारों की सोहबत के बूते सेठ भारत के धनवान तथा ताकतवर इलीटों की जमात में बड़े आराम से पैर फैलाकर बैठते हैं.
लेकिन आज, सेलिब्रिटी कंसल्टेंट सुहेल सेठ के ब्रांडिंग कौशल का भारी इम्तेहान हो रहा है क्योंकि उनकी साख को अब तक का सबसे बड़ा झटका लगा है. उनके ऊपर हाल के दिनों में यौन उत्पीड़न तथा हमले के कई आरोप लगाए गए हैं. ‘मीटू’ के जलजले ने उन्हें अचानक इस तरह घेर लिया जिसके लिए वे तैयार नहीं थे और नतीजतन वे इसका फौरन कोई उपाय भी नहीं कर सकते.
और सबसे बड़ी विडम्बना शायद यह है कि जिस ‘हैशटैग’ ने उन्हें चित कर दिया है वह उन्हें उस अमेरिकी अभिनेत्री से उपहार में मिला था जिसकी मेहमाननवाज़ी उन्होंने हाल में अपनी एक शानदार पार्टी में की थी. रोज़ मैकगोवन नाम की यह महिला मूवी मुग़ल हार्वे विनस्टाइन पर यौन दुराचार का आरोप लगाने वाली पहली है.
पिछले साल ही इसने विज्ञापन जगत के बादशाह माने गए सेठ के साथ उनके घर पर पार्टी करते हुए फोटो खिंचवाई थी. सही समय और सही जगह पर सही लोगों के साथ दिखना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता रही है, लेकिन अचानक वे कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं.
ट्विटर और फेसबुक खामोश है और उनके हाई फाई दिनोंदिन जीवन के परदे पर प्रायः नज़र आने वाले मेहमान कलाकारों ने उन्हें कई दिनों से सेट पर नहीं देखा है. यहां तक कि उनकी ब्रांडिंग कंसल्टेंसी कंपनी ‘काउन्सेलेज’ की वेबसाइट का भी ‘इन दिनों निर्धारित अपग्रेडेशन’ हो रहा है.
जिन दायरों में सेठ घूमते थे उनमें घूमने वाले अब उनके बारे में दो तरह की बातें करते हैं— कभी वे यह कबूल करते हैं कि वे मन बहलाने वाले, खुशमिजाज़ आदमी हैं; तो कभी उन्हें यह एहसास होता है कि काश उन्होंने काफी पहले ही सेठ के दंभ पर लगाम लगाया होता.
सेठ के एक पत्रकार मित्र ने दिप्रिंट से कहा कि “मेरा ख्याल है कि हम सब इनकार की मुद्रा में थे. हम उनके तौरतरीके को माफ करते थे क्योंकि आपको पता ही है कि ‘वे बस सुहेल थे’. मेरा ख्याल है कि वे महिलाओं से जिस तरह बात करते थे या उनके बारे में जिस तरह की बातें करते थे उनके बारे में कुछ लोगों ने उनसे बात की थी. लेकिन हमने कभी उनसे आपत्ति नहीं की, जो कि करनी चाहिए थी.”
शैतान बच्चा
सेठ मई 1963 में पश्चिम बंगाल में जन्में, जहां कलकत्ता में उनके पिता की एक केमिकल फैक्ट्री थी. सेठ ने शुरुआती स्कूली पढ़ाई लड़कों के ला मार्टिनेयर स्कूल में की. आठ वर्ष कि उम्र में उन्हें ‘रातोरात ट्रेन में बैठा दिया गया और फिर नैनीताल के सेंट जोसफ कॉलेज में नाम लिखा दिया गया, क्योंकि मेरे पापा की फैक्ट्री के कामगारों से मेरी जान को खतरा था.’
यह बात सेठ के भाई स्वपन सेठ ने मार्च 2015 में ‘द हफ़िंग्टन पोस्ट’ में छपे लेख में लिखी थी. स्वपन के मुताबिक, सुहेल एक शरारती बच्चे थे और उन्हें सज़ा दिलवा देते थे, जब वे उनके साथ मोटरसाइकिल पर होते तो उन्हें रेडलाइट जंप करने को मजबूर कर देते.
वैसे, सेठ को अपने ऊपर गर्व है कि वे अपने परिवार को प्यार करते हैं और उसके प्रति वफादार हैं, खासकर अपनी मां के प्रति. कई वर्षों के बाद जब उन्होंने न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के अपने फ्लैट में आयोजित पार्टी में भारत के राजनीतिक गढ़ की तमाम अहम शख़्सियतों को आमंत्रित किया, तब उनकी मां उनके साथ खड़ी थीं.
2015 में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को दिए इंटरव्यू में कहा था, ‘हर दिन मैं अपनी मां के साथ ही खाना खाता हूं. यह है कलकत्ता की परवरिश… मैं दुनिया में सबसे ज़्यादा अपने पेरेंट्स को प्यार करता हूं. मेरा मानना है कि केवल दो लोग ही आपको बिना शर्त प्यार करते हैं या फिर आपका कुत्ता करता है.’
कुत्तों कि बात करें तो, दुनिया को लगभग संयोग से पता चला कि उन्होंने अपने कुत्ते का नाम गूगल रख दिया है. लीक हुए टेपों उन्हें लॉबीइस्ट नीरा राडिया को यह समझाते हुए सुना जा सकता है कि ऐसा उन्होंने किया क्योंकि ‘हम जो चीज़ नहीं ढूंढ पाते उसे वह ढूंढ निकालता है.’
कम उम्र में ही सेठ थिएटर के मुरीद हो गए थे. स्वपन ने लिखा है कि किस तरह उनका भाई ‘सुबह छह बजे उठ जाता और सुही सेक्सी ऑन द माइक नामक पात्र में तब्दील हो जाता था. वह गाने गाता और मैं डाइनिंग टेबल पर तबला बजाता था.’ मंच पर प्रस्तुति देने कि उनका शौक बड़े होने पर भी जारी रहा, ड्राइंग रूम की गप्पबाज़ियों में उन्हें सहजता और आत्मविश्वास से शेक्सपियर के उद्धरण देता सुना जा सकता था. जाधवपुर विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए वे थिएटर भी करते रहे.
कॉलेज से निकलने के बाद विज्ञापन उद्योग में उन्हें पहली नौकरी ‘कोंट्रैक्ट एडवरटाइज़िंग’ में मिली, जिसे हिंदुस्तान थॉमसन असोसिएट्स (अब जेडब्लूटी) ने गठित किया था. वहां सेठ ने शीबेन दत्त के मातहत काम किया. ब्रांच मैनेजर की, जिसे सेठ ने ‘परले दर्जे का ईडियट’ तक कह डाला था, कार्यशैली से मतभेद के कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और चेयरमैन राम राय द्वारा गठित नई कंपनी ‘रेस्पोंस इंडिया’ में चले गए. इसके बाद कुछ समय तक ओगील्वी ऐंड माथर में काम किया. वहां एक ऐड मैन के तौर पर
उन्होंने उस समय टाटा स्टील के टाइटनों (रूसी मोदी और आदित्य कश्यप) से संपर्क साध लिया. 2015 में ‘मिंट ऑन संडे’ में सेठ ने इस संपर्क के बारे में लिखा, ‘पोर्ट पीते हुए और सिगार चबाते हुए हम प्रायः हरेक मीटिंग को खत्म करते थे.’
उनके पेशेगत आख्यान के पार्श्व में जैज़ संगीत चलता रहता था, मर्द सूट में सजे होते और महिलाएं उनके चुटकुलों पर ठहाके लगाती रहतीं. अस्सी के दशक का कलकत्ता सेठ के लिए असली ‘मैड मैन’ वाले दौर का शहर था—‘चमकदार, सुसंस्कृत, नफीस, और पूरी तरह से मनमौजी.’
‘शामों में प्रायः हमें विशिष्ट महिलाओं के साथ देखा जाता था, जो संडे क्लब में चहचहाती रहतीं. क्लब का माहौल तब आज के मुक़ाबले ज्यादा सभ्य था.’
नेटवर्क कैसे बनाया
उम्दा ज़िंदगी की चाहत से भरे सेठ ने 1996 में अपने भाई स्वपन के साथ मिलकर विज्ञापन एजेंसी ‘इक्वस’ बनाई. उनके एक दोस्त ने दिप्रिंट को बताया कि कंपनी का यह नाम पीटर शेफर के 1973 के नाटक ‘इक्वस’ पर रखा गया.
इस नए अध्याय की शुरुआत के लिए ज़रूरी था कि बड़ी मछलियों को फंसाया जाए और केवल कलकत्ता की न हों. पत्रकार मिहिर शर्मा ने इस पेशेगत परिवर्तन के बारे लिखा है कि सेठ ने हिंदुस्तान लिवर के मार्केटिंग हेड शुनु सेन का दरवाज़ा खटखटाया और ‘उन्हें अपने तीन परिचितों के नाम बताए जिनमें रूसी मोदी का नाम सबसे पहला था.’
उसी साल सेठ ने सेन को ‘क्वांदरा’ नाम की दो सदस्यीय कंसल्टेंसी खोलने के लिए राज़ी कर लिया. सेन उस समय मार्टिन सोर्रेल द्वारा स्थापित डब्लूपीपी के मुखिया थे. डब्लूपीपी को उस समय दुनिया में विज्ञापन और पीआर कारोबार का सबसे बड़ा नाम था. सोर्रेल कि बहुराष्ट्रीय पीआर कंपनी ने ‘इक्वस’ में अच्छा खासा निवेश कर दिया. ‘इक्वस’ बाद में डब्लूपीपी के ‘रेड सेल’ नेटवर्क का एक हिस्सा बन गई. मीडिया इंडस्ट्री के एक सूत्र ने दि प्रिंट को बताया कि ‘शुनु ने सेठ को विज्ञापन जगत में खूब आगे बढ़ाया, कई लोगों से उनके संपर्क बनाए.’
‘सेठ बातों के धनी तो हैं ही, चार्मिंग भी हैं, और अच्छी अंग्रेज़ी बोलते हैं, ऊंचे विषयों की अच्छी जानकारी रखते हैं. एक आदर्श ऐड मैन बनने कि सारी खूबियां उनमें हैं.’
यह कलकतिया शख्स, जो अभी भी ट्वीट करता रहता है कि वह कलकत्ता को बहुत ‘मिस’ करता है और ‘पार्क स्ट्रीट के हाई कल्चर’ को याद करता रहता है, धीरे-धीरे और जानते-बूझते घोसले से उड़ गया. शर्मा कहते हैं कि कलकत्ता पर किताब लिखने के लिए उन्होंने जिस शख्स को साथी लेखक के तौर पर चुना वह थे खुशवंत सिंह, जिनकी रग-रग में दिल्ली समाया था.
अगला दशक सेठ ने भारत के आला सीईओ, सेलिब्रिटियों और नेताओं के बोर्डरूम से लेकर लिविंग रूम में अपनी जगह पक्की करने में लगाया. 1999 में सेठ ने अपने गुरु और पार्टनर सेन के साथ मिलकर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए विज्ञापन अभियान चलाया. जून 2002 तक सेठ ने इतनी सांस्कृतिक, सामाजिक, और आर्थिक पूंजी जमा कर ली कि अकेले उड़ान भर सकें.
उन्होंने अपनी ब्रांड मार्केटिंग कंसल्टेंसी कंपनी ‘कौंसेलेज’ शुरू कर ली और तुरंत ही चार बड़े क्लायंट अपनी झोली में दाल लिये— कोको कोला इंडिया, दिल्ली सरकार, जेट एयरवेज़, वर्ल्ड ट्रैवेल ऐंड टूरिज़म काउंसिल. ‘कौंसेलेज’ को शुरू हुए दस दिन भी नहीं बीते की मार्टिन सोर्रेल की डब्लूपीपी ने इस एक सदस्यीय उद्यम में निवेश करने की इच्छा ज़ाहिर कर दी.
एक साल बाद सेठ न केवल क्लायंटों की बड़ी-बड़ी मीटिंगें करवा रहे थे बल्कि देश के सबसे बड़े समाचार चैनल के बड़े हिस्सेदार भी बन गए. रुपर्ट मरडोक का मीडिया चैनल स्टार न्यूज़ 2003 में सरकार के इस नियम में कोई नुक्स खोज रहा था कि भारत से प्रसारण करने वाले किसी चैनल में 26 प्रतिशत से ज़्यादा की विदेशी हिस्सेदारी नहीं हो सकती.
मीडिया कंटेन्ट ऐंड कम्यूनिकेसंस (एमसीसीएस) के गठन ने, जिसे कई लोगों ने दिखावे की कंपनी कहा, पूरे कारोबार को जायज़ बना दिया. सेठ ने इसका 30 प्रतिशत हिस्सा खरीद लिया और 25 प्रतिशत कुमार मंगलम बिरला से खरीदा. लेकिन सरकार नहीं मानी, उसका कहना था कि कंपनी में एक भारतीय की बहुमत हिस्सेदारी होनी चाहिए, न कि किसी समूह की. इस कंपनी को कलकत्ता की प्रकाशन कंपनी एबीपी ने फौरन 74 करोड़ में खरीद लिया. सबकुछ साफ़सुथरा हो गया और शो जारी रहा.
आईटी उद्योग के एक सूत्र ने दिप्रिंट से कहा, ‘यह तो है कि सुहेल कोई सूटकेस वाले बंदे नहीं हैं, क्योंकि अब बिना सूटकेस के भी काम होते हैं. भारत में लगभग हर काम किसी न किसी तरह हो ही जाता है, मगर सुहेल पूरे काम को जायज़ और साफ़सुथरा बना देते हैं, बेशक कीमत ऊंची होती है. उन्होंने कोई काम गैरकानूनी नहीं किया.’
2006 तक सेठ ने ‘इक्वस’ के सीईओ पद से इस्तीफा दे दिया और सारा ज़ोर भारत के सबसे शक्तिशाली व्यवसायियों की छवि निखारने के काम पर लगा दिया. इस लिहाज से ‘कौंसेलेज’ कोई पारंपरिक मार्केटिंग कंपनी नहीं थी. इसकी खासियत सेठ के कौशल से तालमेल रखती थी— शिखर पर बैठी हस्तियों से और उनके लिए कनेक्शन बनाना.
आईटी उद्योग के सूत्र ने कहा, ‘सुहेल क्लायंट से मीठी बातें करके करार तो करवा लेते मगर छह महीने या साल भर से ज़्यादा उन्हें बनाए नहीं रखते थे. ‘इक्वस’ में ज़्यादातर मीडिया कैम्पेन स्वपन तैयार करते, और सुहेल उसके चेहरे होते.’
टीवी की टेक
इसी समय सेठ अपने हाईफाई दोस्तों के ड्राइंग रूम से निकलकर आम अंग्रेज़ी भाषी भारतीयों के ड्राइंग रूम में अवतरित होने लगे. वे हर जगह मौजूद थे, हर चीज़ पर बोल रहे थे, टीवी के प्राइमटाइम बहसों में भाग लेने लगे, ‘बिग फाइट’ लड़ने लगे, उन्हें जेएनयू में देशद्रोह के दौर में एनडीटीवी पर ‘राष्ट्रद्रोह’ का अर्थ बताते हुए सुना गया. फिल्म, फाईनेंस, राजनीति, महिला अधिकार, साहित्य, फैशन, अध्यात्म जो भी विषय आप सोच सकें, सब विषयों के विशेषज्ञों के बीच उन्होंने सुविधाजनक कुर्सी पा ली थी और उन्हें अपना ज्ञान बांटते सुना जाने लगा था.
एक पत्रकार ने दिप्रिंट से कहा, ‘वे एक काफी पढे-लिखे, कुशल अंग्रेज़ीभाषी वक्ता हैं और विवादास्पद बयान देने से हिचकते नहीं हैं. जब देश में टीवी बहस का चलन तेज़ी से फैल रहा था, वे जल्दी ही इसमें अग्रणी हस्तियों में शामिल हो गए. मेरा ख्याल है, उनके टीवी अवतार ने ही वास्तव में दैत्य को जन्म दिया. छोटा परदा मिनी-सेलिब्रिटी संस्कृति को जन्म देता है, जिसमें आप बस मशहूर होने के कारण मशहूर हो जाते हैं.’
सेठ को जयपुर साहित्य उत्सव के आयोजनों में पैनलों की एंकरिंग के लिए आमंत्रित किया गया. उन्होंने किताबें लिखीं, सेलिब्रिटियों की जन्मदिन पार्टियों, विदेशी दौरों के लिए बुलाया जाता. उन्हें आला व्यवसायियों के खास इंटरव्यू लेने को, किताबों का विमोचन करने, और क्रिकेट से लेकर शिक्षा जैसे मामलों पर टीवी शो में टिप्पणी करने को बुलाया जाता. उन्होंने बहुराष्ट्रीय सहित कई देसी कंपनियों के बोर्ड में जगह बना ली— मसलन लंदन की कैवेंडिश रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रमैटिक आर्ट्स, ब्रिटिश एयरवेज़ (कुछ समय के लिए), कोकाकोला, ड्रेटन कैपिटल, मैक्स फाउंडेशन.
2003 में पत्रकार सागरिका घोष ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने ’थर्टी परसेंट मैन’ शीर्षक लेख में लिखा था कि सुहेल सेठ ने ‘फटाफट’ ‘दिल्ली विजय’ कर लिया. दरअसल इसे विजय से ज़्यादा एक साठगांठ कहा जा सकता है. एक जाने-माने पत्रकार का कहना है, ‘वे दिल्ली में बहुत आसानी से कामयाब हो गए क्योंकि लोग काफी आसानी से उनकी ओर झुक गए. यह दरबारियों का शहर है, जहां लोग ऐसे शख्स के करीब होना चाहते हैं जिसे वे पावर वाला मानते हैं. सेठ पावर, पहुंच और वीआईपी कल्चर वाले लगते थे.’
सेठ के करीबी माने जाने वाले एक व्यवसायी ने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे आश्चर्य है कि इस बदले हुए भारत में कई सुहेल सेठ नहीं नज़र आते. उन्होंने जो खेल चुना उसमें वे सफल रहे और दिल्ली में हर कोई यह खेल खेल रहा है.’
‘भस्मासुर’
लेकिन एक सीमा के बाद दिल्ली उसे कबूल नहीं करता जिसे उसने खुद जन्म दिया है. सेठ ने राजधानी को जीता ही नहीं था बल्कि उसके पर्याय बन गए थे. लेकिन, भदेस, बेबाक बोलने कि उनकी आदत ने उनके कई दोस्तों को उनसे अलग कर दिया, जिन्होंने सीढ़ियां चढ़ने में उनकी मदद की थी. पेज थ्री वाली आला पार्टियों में उनकी साख धूमिल होने लगी थी. मीडिया कि एक हस्ती ने कहा, ‘छवि जो थी वह मूल आदमी से भी बड़ी हो गई थी और वे सोचने लगे थे कि चूंकि वे सुहेल सेठ हैं तो वे इसी तरह कुछ भी कर ले जाएंगे. वे बड़बोले और उग्र हो गए, बात-बात में ताकतवर लोगों के नाम उछलने लगे, विवादास्पद बातें करने लगे और अपनी तरफ ध्यान खींचने के लिए अपमानजनक भाषा का प्रयोग करने लगे. पी लेने के बाद वे और ज़्यादा कर्कश, हमलावर हो जाते.’
सम्मानित हस्तियों से नज़दीकियां कभी सेठ की सम्मोहक विशेषता मानी जाती थी, वही अब लोगों को असहनीय लगने लगी थी. बताया जाता है कि आसपास के लोगों पर नेताओं तथा अन्य हस्तियों से अपनी नज़दीकी का धौंस जमाने के लिए वे कमरे में चीख पड़ते ‘ओ…. चिदम्बरम!!’ या ‘अरे कैसी हो इंद्राणी…?’
सूत्रों का कहना है कि 2000 के शुरू के वर्षों में दो युवा पत्रकारों ने दूरदर्शन पर अपने नए शो के एक हिस्से की एंकरिंग करने के लिए उन्हें बुलाया तो वे दो सप्ताह के लिए अपने कपड़े लेकर मुंबई पहुंच गए. एक सूत्र ने कहा, ‘यह फिल्म स्टार की कहानी है. होटल का बिल बढ़ जाता, प्रोडयूसर नाखुश हो गए.’
यह भी एक संयोग है कि मधुर भंडारकर कि 2015 कि फिल्म ‘कैलेंडर गर्ल्स’ में सेठ को कुमार कुकरेजा नाम के बड़े व्यवसायी की भूमिका करने को कहा गया. यह फिल्म मॉडलों और तेज़रफ्तार ज़िंदगी के बारे में थी. इसमें भगोड़े विजय माल्या का भी चेहरा दिखा. सेठ का अपना जीवन उनके इस पात्र से काफी मिलता-जुलता था जिसे उन्होंने पर्दे पर जिया. बताया जाता है कि सेठ ने जब कार से सफर करने से मना कर दिया तो उद्योगपति नवीन जिंदल को उनके लिए अपना हेलिकोप्टर भेजने को कहा गया था. विज्ञापन कंपनियों के बोर्डरूमों में धौंस जमाने के लिए सोर्रेल के नाम का खूब इस्तेमाल किया जाता था.
सेठ जब महत्वपूर्ण लोगों के साथ बैठे होते तब प्रायः दूसरे महत्वपूर्ण लोगों के फोन बड़े तपाक से सुनते और आसपास बैठे लोगों पर रोब जमाने के लिए ज़ोर से बोल पड़ते… ‘ओ… पीयूष…’
एक सूत्र का कहना है कि ‘उनकी अचल संपत्ति को छोडकर बाकी सभी चीज़ों का भुगतान दूसरे लोग करते थे.’ यह कोई रहस्य नहीं है कि सेठ एक अच्छी ज़िंदगी के मज़े लेते थे, बल्कि उसका खुलकर जश्न मनाते थे.
2005 में उन्होंने ‘टेलीग्राफ’ (यूके) को अपनी नई पीली पोर्श बॉक्सस्टर कार प्रदर्शित करते हुए कहा था, ‘ज़्यादा नहीं दस साल पहले कोई अगर कार पर 64 लाख रुपये खर्च करता तो उसे बुरा माना जाता मगर आज ऐसी बात नहीं है.’ सेठ उन चंद भारतीयों में थे जिन्होंने 80 हज़ार पॉण्ड की कार खरीदी थी. अखबार से उन्होंने यह भी कहा था, ‘आप कह सकते हैं कि रोलेक्स अब नया मजहब है.’
शहर के प्रोपर्टी दलालों कि मानें तो गुरुग्राम के ‘द मैग्नोलिया’ में सेठ के शानदार फ्लैट का आज बाज़ार भाव 15-17 करोड़ होगा. हर चीज़ की अति से भरा उनका जीवन छलक रहा था. और उनके अपने भाई की स्वीकारोक्ति को मानें तो उनके जैसे ‘अहंकारी’ व्यक्ति के लिए यह फर्क बेमानी हो गया था कि वे क्या कमा रहें हैं और कितने के हकदार हैं.
महिलाएं और गाएं
उनके 40वें जन्मदिन पर स्त्री स्तन के आकार के केक. और ज़रा यह सुनिए कि मर्दों को अकेले क्यों सफर करना चाहिए. 2014 में सेठ ने ‘इकोनोमिक टाइम्स में लिखा- ‘वाजिब बात है कि न्यूयॉर्क के ‘द कारलाइल’ में आपके पास एक गंदी मारटीनी हो, बिना यह चिंता किए कि आपकी जो गाय (बीवी) है वह आपके क्रेडिट कार्ड का क्या हश्र कर रही है.’
‘टेलीग्राफ’ (भारत) में अपने स्तम्भ ‘सरवाईवल स्ट्रेटेजीज़’ में भी सेठ ने पत्नियों को गाय ही बताया. 1989 से 1993 के बीच सेठ संध्या नारायण नाम की महिला से विवाहित थे. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि उनका अलगाव इसलिए हुआ क्योंकि वे बच्चे चाहते थे जबकि वह अपने केरियर पर ज़ोर दे रही थीं.
अपने करियर की दिशा के बारे में लिखते हुए उन्होंने ‘बेहद आकर्षक एंग्लो-इंडियन महिलाओं का ज़िक्र किया है, जो डलहौज़ी इन्स्टीट्यूट में आती थीं.’ उन्होंने बताया है कि क्विज़मास्टर रहे डेरेक ओ ब्रायन से उनकी पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब वे ‘एक शाम पार्क में एक पड़ोसी की बेटी को पटाने की कोशिश कर रहे थे.’ पटाना, या कामुक भाषा का प्रयोग उनके लिए उत्पीड़न की गिनती में नहीं आता.
2017 के जयपुर साहित्य उत्सव में मौजूद रहे एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया कि ‘पेंगविन की पार्टी में दर्जनभर लेखकों और अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों के सामने ही सेठ ने एक युवती को बाहों में जकड़ लिया था जबकि वह खुद को छुड़ाने की कोशिश में उन्हें बार-बार धक्का दे रही थी. वहां मौजूद लोग यह बहस कर रहे थे कि उस लड़की कि मदद की जाए या नहीं, और इस फैसले पर पहुंचे थे कि वह एक युवा है तथा अपनी रक्षा खुद कर सकती है. उसी उत्सव में सेठ उस पेनल के सदस्य थे, जो स्त्री-द्वेष और पुरुष वर्चस्व पर विमर्श के लिए बनाया गया था.’
विज्ञापन उद्योग के एक सूत्र ने एक चैनल द्वारा 2005 में एक पांचसितारा होटल में दी गई उस पार्टी का ज़िक्र किया इसमे वे और सेठ दोनों मौजूद थे. ‘चैनल की एक लड़की ग्रुप के पास आई और हेलो कहा. सेठ ने तुरंत उसे ताड़ लिया और उसके पीछे पड़ गए, खुद को इंटरोडूस किया और बोले, क्या बात है जो आज रात तुम इतनी सेक्सी लग रही हो?’
‘वे उसके कंधे पर हाथ रखकर शराब पीते रहे, जब वो आगे बढ़ जाती तो वे उसके पीछे चल पड़ते. हर कोई यह सब देख रहा था, लेकिन वे तो कई पैनलों में शामिल था. लड़की ने विदा लेने की कोशिश की मगर सेठ तो पीछा छोडने को राज़ी नहीं थे. अंत में कंपनी के कुछ लोग आकर उन्हें अलग ले गए. इसके बाद वे कहने लगे कि लड़की उनसे रूखा बर्ताव कर रही यही क्योंकि वह उनसे बात नहीं कर रही थी.’
उनकी पार्टियों में आने वाले लोग याद करते हैं कि हर बार उनकी बाहों में अलग-अलग महिला होती थी— शेफ से लेकर एक्ट्रेस और मॉडल तक. उनके एक दोस्त बताते हैं, ‘सुहेल इन महिलाओं के बारे में बाद में बातें करते थे. उनकी पार्टियों में हमेशा खूबसूरत लोग होते थे, वह उन्हें जमा किया करता था.’
एक पत्रकार ने कहा, ‘कुलमिलाकर, सुहेल ने सुहेल को लेकर एक मिथ गढ़ दिया था. वे अपने दंभ के कैदी बन गये थे.’
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