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Friday, 20 December, 2024
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क्या कहती है भारत के जांबाज ‘मेजर’ संदीप उन्नीकृष्णन की यह कहानी

तेलुगू और हिन्दी में एक साथ बनी इस फिल्म में तेलुगू अभिनेता अडिवि शेष ने मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की भूमिका के साथ भरपूर न्याय किया है.

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एनएसजी वाले आ गए हैं. अब सब सही हो जाएगा…! एनएसजी यानी नेशनल सिक्योरिटी गार्ड. भारतीय फौज के चुनिंदा जांबाज जवानों को लेकर बनी इस फोर्स पर देश को अटूट भरोसा है.

26 नवंबर, 2008 को मुंबई के ताज होटल में घुसे आतंकियों को नेस्तनाबूद करने का काम इसी फोर्स के कमांडोज ने किया था जिनमें से मेजर संदीप उन्नीकृष्णन ने सर्वोच्च बलिदान देकर शहीद का तमगा पाया था. फिल्म मेजर इन्हीं संदीप के जीवन में झांकती है.

बायोपिक बनाने के लिए तय कर दिए गए पैटर्न पर चलती हुई यह फिल्म दिखाती है कि संदीप बचपन से ही कुछ अलग थे, हमेशा दूसरों की मदद करने को तत्पर रहते थे, जीवन में कुछ साबित करना चाहते थे. फिल्म उनके इन गुणों को स्थापित करते हुए उनकी जवानी के दिनों, उनके रोमांस, फौज की ट्रेनिंग आदि को दिखाते हुए धीरे-धीरे हमें नवंबर, 2008 के उन दो दिनों तक ले जाती है जब मेजर संदीप अपने पराक्रम की पराकाष्ठा दिखाते हुए शहीद हुए थे.

मेजर संदीप की कहानी में देखने-दिखाने वाला प्रसंग ताज होटल के उनके अंतिम दो दिनों का ही था इसलिए इस कहानी को थोड़ा-सा फिल्मी बनाते हुए उनके निजी जीवन, उनकी गर्ल फ्रैंड, परिवार, दोस्तों आदि के साथ-साथ उनकी जिंदगी के उतार-चढ़ाव भी इसमें शामिल किए गए हैं ताकि दर्शकों की दिलचस्पी इसमें बनी रहे. बहुत जगह उनके पिता के नैरेशन का सहारा भी लिया गया है जो इस पूरी कहानी को बयान कर रहे हैं. इससे यह फिल्म एक आकार तो लेती है लेकिन सच यही है कि ताज होटल की घटनाओं से इतर इसमें बहुत ज्यादा और बहुत कस कर बांध सकने वाले तत्वों की कमी है. बावजूद इसके जब-जब यह फिल्म मेजर संदीप को दिखाती है, ये बांधे रखती है.

फिल्म में मेजर और उनकी प्रेयसी के संबंधों में आ रहे बदलावों के जरिए यह बात भी असरदार तरीके से कही गई है कि देश और देशवासियों की सेवा करना जिन फौजियों की ड्यूटी समझी जाती है. असल में उनके परिवार वाले भी कुछ कम त्याग नहीं कर रहे होते हैं.


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फिल्म में मेजर के निजी जीवन से जुड़ी कुछ और दिलचस्प घटनाओं को लिया जाना चाहिए था. 1995 में पुणे में हुई उनकी ट्रेनिंग के बाद सीधे 2008 का एनएसजी दिखाना भी इसे हल्का बनाता है. मेजर संदीप की करगिल, गुजरात, हैदराबाद और राजस्थान की पोस्टिंग के हिस्से और किस्से भी इसमें शामिल रहते तो इस कहानी और उनकी ‘बायोपिक’ को बल ही मिलता.

खैर, अभी भी अडिवि शेष की लिखी कथा-पटकथा में जो है वह रूखा या खोखला नहीं है. अक्षत अजय शर्मा ने हिन्दी में इसे कायदे से ढाला है. शशि किरण तिक्का ने बतौर निर्देशक कहानी को आगे-पीछे ले जाने का जो तरीका चुना वह दिलचस्पी जगाए रखता है. हालांकि उन्हें फिल्म को थोड़ा और कसना चाहिए था.

तेलुगू और हिन्दी में एक साथ बनी इस फिल्म में तेलुगू अभिनेता अडिवि शेष ने मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की भूमिका के साथ भरपूर न्याय किया है. एक नायक की छवि को उन्होंने पर्दे पर निष्पाप रूप से उतारा है. साई मांजरेकर, शोभिता धुलिपाला, मुरली शर्मा जैसे इसके अन्य कलाकार भी जंचे. रेवती और प्रकाश राज बेहतरीन रहे.

अंत के दृश्यों में रेवती को अभिनय का चरम छूते हुए देखना रोमांचित करता है. फिल्म का गीत-संगीत साधारण है. फिल्म का हाई-प्वाइंट ताज होटल के तनाव और एक्शन भरे सीक्वेंस ही हैं और फिल्म की पूरी टीम ने इन दृश्यों को बेहद कुशलता से पर्दे पर उतारा है.

पाकिस्तानी आतंकियों का कंट्रोल रूम भले ही बचकाना था लेकिन ताज का सैट, उसमें हो रही घटनाएं, यहां के किरदार, उनके संवाद, सब सलीके से गढ़े गए और इसीलिए बेहद असरदार भी रहे. अंत में आंखें भी नम हुईं. यही इस फिल्म का मकसद था और यही इसकी कामयाबी है.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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