मानीखेज़ कहानियां…मानो ढलते सूरज की रोशनी से ऐसा चराग जल रहा हो जिसकी लपटें काल्पनिक शब्दों के सहारे कागज़ को यथार्थ की आग से सुलगा रही हो. कहानियों का ये स्वभाव सिर्फ और सिर्फ हिंदी-पंजाबी की उम्दा लेखिका रहीं अमृता प्रीतम की कहानियों में मिलता है. जहां वो अपने पात्रों के साथ एक ऐसे सफर पर ले चलती हैं जो अक्सर पाठकों को अपना खुद का सफर लगने लगता है.
अमृता प्रीतम अपनी कहानियों के पात्रों और उसके पाठकों के बीच एक अलग तरह के संबंध को देखती थीं. ठीक उसी तरह जैसे ये सब एक दूसरे से जुड़े हुए हों. इस बात की तस्दीक वो खुद करती हैं. इसके पीछे उन्होंने संजीदा और विचारणीय तर्क भी दिए हैं.
उनकी चुनिंदा कहानियों के संग्रह ‘मेरी प्रिय कहानियां’ की भूमिका में वो लिखती हैं, ‘हर कहानी का एक मुख्य पात्र होता है और जो कोई उसको मुख्य पात्र बनाने का कारण बनता है, चाहे वह उसका महबूब हो और चाहे उसका माहौल, वह उस कहानी का दूसरा पात्र होता है. पर मैं सोचती हूं, हर कहानी का एक तीसरा पात्र भी होता है.’
वो आगे लिखती हैं, ‘कहानी का तीसरा पात्र उसका पाठक होता है जो उस कहानी को पहली बार लफ्ज़ों में से उभरते हुए देखता है और उसके वजूद की गवाही देता है.’
वास्तव में उनकी कहानियां पढ़ते हुए हम उस दुनिया में प्रवेश करने लगते हैं जहां उसके पात्रों को रचा गया है. न चाहते हुए भी हम अमृता प्रीतम के ही शब्दों में उनकी कहानियों का तीसरा पात्र बन जाते हैं. और पात्रों का सुख, दुख हमारे अपने होते चले जाते हैं.
अमृता प्रीतम के सफर और जिंदगी के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है. उनकी कविताएं प्रेमी-प्रेमिकाओं के कलाम बन दिलों पर राज़ कर रहे हैं जिसमें वो प्रेम को उन गहराइयों में तलाशते हुए गुज़रती हैं जहां पहुंचना आसान काम नहीं है. साथ हीं महिलाओं के मुद्दों को इस कदर वो अपनी कृतियों में जोड़ती दिखलाई पड़ती हैं जो साहित्यिक के साथ सामाजिक दृष्टि की नज़र में भी खरा उतरता है और समाज के कई गहरे सवाल पीछे छोड़ता चलता है.
जब उनकी कहानियों से गुज़रना होता है तो उनमें भी मानवीय करूणा, महिलाओं की पीड़ा, नारी की स्थिति बड़ी संजीदगी और गंभीरता से उकेरी हुई जान पड़ती है.
2020 का साल जब मानवीय समाज की सबसे बड़ी त्रासदी यानि की कोरोनावायरस महामारी का सामना कर रहा है तब उसी समाज की परतों को खंगालती अमृता प्रीतम की कहानियों न केवल महत्वपूर्ण हो जाती है बल्कि उस दायरे को भी बढ़ाती है जिसका शिखर प्रेम रूपी समाज होना चाहिए.
अमृता प्रीतम की 101वीं जयंती के दहलीज़ पर जब हम खड़े हैं तो उनकी कुछ बेमिसाल और शानदार कहानियों का याद करना ठीक वैसा ही जैसे वो अपनी कहानियों में पात्रों के अलावा अपने पाठकों को भी शामिल कर देती थीं.
अमृता प्रीतम की कहानियों की फेहरिस्त काफी लंबी है. लेकिन उनमें से कुछेक कहानियां पीड़ा के संसार, कल्पनाओं की नज़र, करूणा की असीम धारा, महिला-पुरुष संबंध को ध्यान में रखकर कई सवालों को जन्म देती हुई लिखी गई है, जो आज भी कई मायनों में प्रासंगिक बनी हुई है.
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जंगली बूटी
ये अमृता प्रीतम की चर्चित कहानियों में से एक है. इस कहानी के जरिए उन्होंने महिलाओं की उस स्थिति को बताया है जिसमें नारी खुद को विश्वासों और संस्कारों के बंधन में बांधे रखती है और उसे तोड़ना मानों उसे ऐसा लगता है कि किसी ने उसे कोई बूटी खिला दी हो तभी वो उन दायरों से बाहर निकल रही है.
गुलियाना का एक खत
इस कहानी में गुलियाना के जरिए औरतों की आज़ादी की पैरवी की गई है. वो पात्रों के जरिए औरत की इच्छाओं की दुनिया को दिखाती है लेकिन समाज रूपी दुनिया मानो एक बाधा बनकर उसे पीछे धकेल रही हो और उसकी स्वतंत्रता को कैद कर लेना चाहती हो.
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कहानियों में पुरुषों की संवेदना
अमृता प्रीतम की लेखनी के दायरे को सिर्फ महिलाओं तक ही बांध कर देखना नाइंसाफी ही कही जाएगी. उनकी कहानियों में पुरुषों की भावनाओं का भी जिक्र मिलता है जिसे उन्होंने बड़ी ही नाटकीय और मानवीय संवेदना के जरिए अपने काल्पनिक शब्दों की जादूगरी से पिरोया है.
धुंआ और लाट, लाल मिर्च, बू, मैं सब जानता हूं, एक गीत का सृजन, एक लड़की:एक जाम – मर्दों के मन के भीतर की दुनिया को सामने लाकर रख देती है. उनकी कथित ठोस व्यक्तित्व के पीछे के ममत्व स्वाभाव और बैचेनी को भी उभारती है जो पुरुष और महिला के व्यक्तित्व का साझा स्वभाव है.
शायद ही कोई लेखक या लेखिका हो जो पाठकों को अपनी कहानियों का तीसरा पात्र समझता हो और उस सफर पर साथ ले चलता हो जो उस कहानी से जुड़ा है.
बेझिझक ये कहा जा सकता है कि अमृता प्रीतम के शब्दों के कल्पना रूपी यथार्थ की दुनिया कई मायनों में मानवीय समाज की सबसे खूबसूरत चीज़ों में से एक है जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेम युक्त समाज को बचाए रखने के लिए अमल में लाना हमारी साझी जरूरत बनी रहेगी.
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