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Sunday, 22 December, 2024
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लता मंगेशकर के जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें और उनकी संगीतमय दुनिया

1939 में बाबा ने एक नाटक ‘भाव बंधन’ में लतिका की भूमिका अभिनीत की थी. वह उस चरित्र से बेहद प्रभावित हुए और तभी उन्होंने मेरा नया नामकरण ‘लता’ कर दिया था. इसके पहले मैं हृदया नाम से जानी जाती थी.

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भारत रत्न से सम्मानित सुर कोकिला लता मंगेशकर का 92वें साल की उम्र में मुंबई में रविवार को निधन हो गया. लंबे समय से बीमार चल रही लता दीदी को इस बार लोगो की दुआए नहीं लगी और वो हमे छोड़ कर चली गई.

1950 के बाद कई दशकों तक लता मंगेशकर ने संगीत की दुनिया पर एक छत्र राज किया. लता मंगेशकर ने शंकर जयकिशन, मदन मोहन, जयदेव, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, एस डी बर्मन, नौशाद और आर डी बर्मन से लेकर एआर रहमान तक हर पीढ़ी के संगीतकारों के साथ काम किया.

बचपन से ही लता मंगेशकर ने गाना शुरू कर दिया था. शुरुआत से ही उनके काम को सराहा गया. उनकी गायकी कभी किसी की आंखों में आंसू ले आई, तो कभी सीमा पर खड़े जवानों को सहारा मिला. उन्होंने कई भाषाओं में गीत गाए. आइये जानते है कैसी रही उनकी जीवन की सुरमयी यात्रा.

फिल्मों के खिलाफ थे बाबा

बाबा को यह कभी पसंद नहीं रहा कि हम लोग उनके नाटक देखें या उनके ग्रुप के बाकी लोगों के साथ घुलें-मिलें. दिन में तो फिर भी कभी-कभार हम उनके नाटक देख लिया करती थीं मगर जब कभी वह रात को नाटक करने जाते थे तो हमारे लिए वहां आने की सख्त मनाही होती थी. एक बार पुणे में ही रात को उनका नाटक था जब मैं और मीना वहां जा पहुंची और दूर दर्शकों में छुप कर बैठ गईं. नाटक शुरू हुआ और बाबा मंच पर आए तो उनकी तेज नजरों ने हमें देख लिया और हम भी समझ गईं कि उन्होंने हमें देख लिया है. डर के मारे हमारी बुरी हालत थी. बाद में हमने उनसे कहा कि हम गाने सुनने के लिए आई थीं नाटक देखने नहीं लेकिन वह काफी देर बाद जाकर शांत हुए. बाबा दरअसल हम लड़कियों के आगे बढ़ने के खिलाफ नहीं थे बल्कि वह तो खुद ही हमें भी संगीत सिखाते थे. लेकिन वे हमारे फिल्मों में जाने के सख्त खिलाफ थे. उनका कहना था कि अगर तुमने फिल्मों में गाना गाया तो मैं तुम्हें इस घर में नहीं घुसने दूंगा. उस जमाने में फिल्मी दुनिया के बारे में काफी कुछ उलटा-सीधा सुनने में आता था और इसलिए बाबा नहीं चाहते थे कि उनकी कोई बेटी इस लाइन में जाए.

बचपन को मिस नहीं किया

हालांकि मैं बचपन से ही काम करने लगी थी लेकिन मैंने कभी अपने बचपन को मिस नहीं किया. जब भी मुझे मौका मिलता मैं खूब शरारतें करती. मुझे याद है स्टूडियो में आम और अमरूद के पेड़ होते थे और मैं अक्सर उन पर चढ़ कर कच्चे आम और अमरुद छोड़कर खुद भी खाती और दूसरों को भी खिलाती. पूरी यूनिट में सबसे छोटी होने के कारण मुझे सभी का प्यार मिलता था और मैं अक्सर उसका फायदा उठा कर शरारतें कर लिया करती थी.

संगीतकार बनने के भी आए ऑफर

जब मैं गायिका के रूप में प्रसिद्ध हो गई तो मुझे संगीतकार बनने के ऑफर भी मिलने लगे. सबसे पहले वी. शांताराम जी आए पर मैंने उन्हें मना कर दिया और यह कहा कहा कि अगर मैं कभी संगीतकार बनी तो सबसे पहले उन्हीं की फिल्म करूंगी. लेकिन वह दिन कभी आया ही नहीं. बाद में राज कपूर मुझसे ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ और हृषिकेश मुखर्जी ‘आनंद’ का संगीत बनवाना चाहते थे पर मैंने उन्हें यह कह कर मना कर दिया कि जब मेरे घर में मेरा छोटा भाई हृदयनाथ संगीतकार है तो मेरा इस तरफ कदम बढ़ाना सही नहीं होगा. वैसे भी मेरा मन जितना गायकी में रमता था उतना किसी और चीज में कभी नहीं लगा.

हृदया से बनी लता

1939 में बाबा ने एक नाटक ‘भाव बंधन’ में लतिका की भूमिका अभिनीत की थी. वह उस चरित्र से बेहद प्रभावित हुए और तभी उन्होंने मेरा नया नामकरण ‘लता’ कर दिया था. इसके पहले मैं हृदया नाम से जानी जाती थी.


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पूरिया धनाश्री से हुई शुरूआत

मैं बचपन में अपने घर में बाबा को हमेशा गाते-बजाते सुना करती थी किंतु मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनके सामने गा पाती. एक दिन बाबा एक शिष्य को राग पूरिया धनाश्री सिखा रहे थे. बाबा कुछ देर के लिए बाहर निकले तो मैंने गौर किया कि वह शिष्य बेसुरा ही नहीं बल्कि गलत भी गा रहा था. मैं तुरंत उसके पास पहुंची और बोली-यह गलत है, इसे इस तरह से गाना चाहिए और मैं उसे गाकर बताने लगी. तभी बाबा अंदर आ गए और मुझे राग पूरिया धनाश्री गाते सुना तो चौंक गए और मेरी मां को पुकारते हुए बोले-देखो, घर में इतनी अच्छी गायिका मौजूद है, मुझे तो मालूम ही नहीं था. अगले दिन ही बाबा ने मेरे हाथों में तानपूरा थमा दिया और कहा आज से तुम संगीत की शिक्षा लोगी.

ऐ मेरे वतन के लोगों

26 जनवरी, 1963 को गणतंत्र दिवस के अवसर पर मैंने दिल्ली में ‘ऐ मेरे वतन के लोगों…’ पहली बार गाया था. इस गीत को खत्म करके मैं मंच पर पीछे जाकर बैठ गई और एक कॉफी मंगवाई. तभी महबूब खान साहब तेजी से मेरी ओर बढ़ते हुए बोले-लता, कहां हो तुम, पंडित जी तुम्हें बुला रहे हैं. मैं तुरंत उनके साथ चल पड़ी. कुछ दूर बढ़ने के बाद पंडित जी की नजर मुझ पर पड़ी तो वह वहीं रुक गए. महबूब खान साहब ने मेरा परिचय उनसे करवाया-यही है लता मंगेशकर. तब पंडित जी बोले-बेटा, तुमने मुझे आज रुला दिया. अब मैं घर जा रहा हूं, तुम वहीं आओ और हमारे साथ चाय पिया. तीन मूर्ति भवन पहुंच कर मैं चुपचाप एक किनारे जाकर खड़ी हो गई. तभी इंदिरा जी तेजी से मेरे करीब आईं और बोलीं-आप यहां हैं, अच्छा यही रहिएगा, कहीं जाइएगा नहीं. मैं बस चंद मिनटों में आती हूं. मैं आपको आपके दो प्रशंसकों से मिलवाना चाहती हूं जो आपके गीतों के दीवाने हैं. कुछ देर बाद वह लौटीं तो उनके साथ उनके दोनों बेटे राजीव और संजय थे. तभी पंडित जी की आवाज गूंजी-कहां है वह लड़की जिसने गीत गाया था? मैं इंदिरा जी के साथ ही आगे बढ़ कर पंडित जी के पास पहुंच गई. पंडित जी ने मुझे देखते ही कहा-बेटा आओ, क्या तुम वह गीत दोबारा यहां गा सकती हो? मैंने सहजता के साथ उत्तर दिया कि मैं अभी नहीं गा सकती.

भाग्य ने दिया साथ

यह सही है कि मैंने बहुत मुश्किलें झेलीं, बहुत मेहनत की लेकिन मेरी सफलता मैं सबसे बड़ी भूमिका भाग्य की रही. भाग्य ने अगर साथ न दिया होता तो मैं इतनी अधिक सफल नहीं होती. मुझे लगता है कि मुझे जो सिखाने वाले लोग मिले वह मेरे सौभाग्य से ही मिले.

खोटा पैसा नहीं चलेगा

जब हम सांगली में रहा करते थे तो एक दिन मेरे पास दो आने का सिक्का था. माई ने साबुन मंगवाया था. हमारे घर का नौकर विठ्ठल वापस बोला कि यह सिक्का खोटा है. मैं बोली कि लाओ मैं साबुन लेकर आती हूं. शाम का समय था. मैंने जाकर दुकानदार से साबुन लिया और उसे वही खोटा सिक्का पकड़ा दिया. उसने भी बिना देखे लेकर रख लिया. घर आकर मां को जब मैंने पूरी बात बताई तो उन्होंने बहुत डांटा और दो आने का सिक्का दुकानदार को देने के लिए कहा. मैं रोने लगी किंतु माफी मांग कर दुकानदार को सही सिक्का देकर खोटा सिक्का वापस ले आई. माई से हम सबको ऐसी ही शिक्षा मिली.

जहर देने की कोशिश

1962 में मैं बहुत बीमार हो गई थी. हुआ यह कि एक दिन जब मैं सुबह उठी तो मुझे घबराहट-सी हो रही थी. बेचैनी थी मेरे पेट में. मुझे कुछ देर बाद उल्टियां होने लगीं. उल्टी भी ‘हरेपन’ के साथ थी. घर पर डॉक्टर आए. साथ ही एक मशीन भी ले आए क्योंकि मैं कहीं जाने लायक नहीं थी. उन्होंने जांच की और कहा कि मुझे हल्का जहर दिया गया है. हमारा एक नौकर था जो खाना बनाता था. उषा अचानक अंदर किचन में गई और बोली कि वह खुद खाना पकाएगी. नौकर बिना किसी से कुछ कहे-बोले चुपचाप घर से चला गया. हमने सोचा कि शायद किसी ने कराया हो. कौन था, पता नहीं चला. उस घटना के बाद तीन महीने तक मैं बिस्तर पर रही. मैंने तो सोच लिया था कि दोबारा फिर नहीं गा सकूंगी. जब मैं धीरे-धीरे गाने लायक हो गई तब हेमंत कुमार ने ‘बीस साल बाद’ फिल्म के लिए गीत रिकॉर्ड किया था-‘कहीं दीप जले कहीं दिल…’.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)


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