जब मुस्लिम नेता शरीयत के सामने गैर-मुस्लिमों की भावना, कानून, विचार, आदि की परवाह नहीं करते, तो गैर-मुस्लिम भी अपने आदर्शों के लिए इस्लामी प्रतिमानों की उपेक्षा कर ही सकते हैं. अभी सौ साल भी नहीं हुए, जब तुर्की के महान नेता अतातुर्क कमाल पाशा ने खलीफत खत्म करते हुए इस्लाम को पुराने जमाने की बेकार चीज बताया था.
अतातुर्क के शब्द याद करें: ‘क्या यह खलीफत, इस्लाम, मुल्ला और ऐसे ही लोग नहीं थे जिन के कारण सदियों से तुर्की किसान हर मौसम में लड़ते और मरते रहे? समय आ गया है कि तुर्की अपने बारे में सोचे, भारतीयों और अरबों की उपेक्षा करे, उन से छुटकारा पाए, इस्लाम का नेतृत्व करने से छुटकारा पाए. तुर्की के पास अपनी ही बहुत समस्याएं हैं. सदियों से खलीफत ने हमें चूस कर सफेद कर दिया है. हमारे पास अब एक ही सिद्धांत हैः हर समस्या को तुर्की नजरिए से देखना और तुर्की के हितों की रक्षा करना.’
अतातुर्क की समझ और तदनुरूप नीतियों के कारण ही आज भी सभी मुस्लिम देशों में केवल तुर्की में लोकतंत्र चल रहा है. गत आठ दशकों में तुर्की की पूरी प्रगति इसीलिए संभव हुई, क्योंकि अतातुर्क कमाल पाशा ने पूरे इस्लामी ताम-झाम को उखाड़ फेंका था.
सच तो यह है कि इस्लाम, कुरान, आदि के बारे में अतातुर्क ने जैसे कठोर, नकारात्मक विचार व्यक्त किए थे, जो इतने हाल का इतिहास है, उस की तुलना में एल्स्ट ने तो कुछ भी नहीं कहा! तब डॉ. एहसानोलू की आपत्ति और भी विचित्र प्रतीत होती है.
यह भी पढ़ें: भारतीय मुसलमानों और उदारवादियों के बीच की वो कड़ी अब टूटती जा रही है जिसने अल्पसंख्यक राजनीति को गहरा किया
इस्लामोफोब बनाम इस्लामोफिल
यद्यपि यह डॉ. एहसानोलू का व्यक्तिगत अंतर्विरोध नहीं. वस्तुतः ओ.आई.सी. ने, आम तौर पर मुस्लिम देशों की सरकारों ने, विश्व में एक मुहावरा प्रचलित किया है. वह है ‘इस्लामोफोब’, जिसे ईरानी तानाशाह अयातुल्ला खुमैनी ने आरंभ किया था. अपने प्रचलित अर्थ में यह शब्द विकृत ही नहीं, बल्कि भाषा का प्रदूषण भी है.
मनोरोग विज्ञान से जुड़े इस शब्द का अक्षरशः अर्थ होता है ‘इस्लाम से भय’, किंतु ओ. आई.सी. ने इसे ‘इस्लाम से घृणा’ के अर्थ में चलाया. जबकि फोबिया का अर्थ घृणा नहीं होता, इसलिए यह भाषा को प्रदूषित करना है. दूसरे, यह इस्लाम के आलोचकों के रोगी होने का संकेत करता है, जो अधिक गंभीर बात है. क्योंकि यह लोगों के मुँह पर ताला लगाकर इस्लाम पर विचार-विमर्श को ही जबरन रोकने की तकनीक है. डॉ. एहसानोलू ने इसी मानसिकता से गोवा में एल्स्ट को न बोलने देने की मांग की थी. यह देखते हुए कि स्वयं तुर्की के महान नेता अतातुर्क की तुलना में एल्स्ट ने कितनी मामूली बातें कही, मुस्लिम नेताओं की विशेषाधिकारी, तानाशाही मंशा समझी जानी चाहिए.
डॉ. एहसानोलू के विपरीत डॉ. एल्स्ट ने जिस शब्द का प्रयोग किया, ‘इस्लामोफिल’, वह सहज, सटीक और सम्मानजनक था. यह भी मनोविज्ञान से जुड़ा है, जिसका अर्थ है ‘इस्लाम से प्रेम करने वाला’, यानी जो इस्लाम की कमियों, बुराइयों को नहीं देखना चाहता.
उदाहरण के लिए, जब सितंबर 2001 में इस्लामी आतंकवादियों ने न्यूयॉर्क के ट्विन-टॉवर पर हमला कर 3000 नागरिकों को मार डाला, तो बड़ी संख्या में नेता उन मृतकों के प्रति एकता दिखाने के बदले मस्जिदों में जाकर मुस्लिम समुदाय के साथ एकजुटना दिखाने गए! यह निस्संदेह इस्लाम के प्रति प्रेम प्रदर्शन था. नहीं तो उन तीन हजार निर्दोष गैर-मुस्लिम नागरिकों का मस्जिद से क्या संबध था? मस्जिद से तो संबंध उन ग्यारह सऊदी आतंकवादियों का था, जिन्होंने घोषित और लिखित रूप से कुरान का हवाला देकर उन निरीह लोगों को मारा था.
इसलिए सीधा कारण बनता था कि आतंकवादियों की कथनी-करनी, दोनों के मद्देनजर इस की परख की जाती कि उन के कारनामे का इस्लाम और कुरान से क्या संबध है. लेकिन इसे मनमाने तौर पर ठुकरा कर, उलटे मस्जिद जाकर नेताओं ने किस के प्रति और क्या एकजुटता दिखाई! इसी प्रवृत्ति के लिए ‘इस्लामोफिल’ विशेषण का प्रयोग होता है, जो सचाई का वर्णन भर है. कि इस्लाम के संबंध में कितनी ही प्रमाणित और स्वघोषित नकारात्मक बातें सामने आएं, उसे अनदेखा किया जाएगा. जैसे कोई अपने प्रेम-पात्र की कमजोरियाँ नहीं देखना चाहता.
इस प्रकार, आतंकवाद पर विचार-विमर्श में ‘इस्लामोफोब’ और ‘इस्लामोफिल’ का अंतर और उपयुक्तता स्वयं परखने की चीज है. दुनिया भर के मीडिया और राजनीति में इस के प्रसंग आते रहते हैं. इसे खुले मस्तिष्क से जांचना चाहिए.
यह भी पढ़ें: भारत की तरक्की का ज़रूरी हिस्सा बनने के लिए भारतीय मुसलमानों को अपनी पीड़ित मानसिकता को बदलना होगा
उदारवादी मुस्लिम
‘उदारवादी मुस्लिम’ का अर्थ विभिन्न देश और समाज में भिन्न भी हैं. किन्तु एक समान तत्व यह है कि ऐसे मुस्लिमों की कुछ बातें और प्रवृत्तियां इस्लाम से इतर विचारों, व्यवहारों और नैतिकता से निर्देशित दिखती हैं. अलग-अलग मुसलमानों में यह सहज मानवीय भावनाएं भी होती हैं जिस का किसी धर्म-मजहब से लेना-देना नहीं होता या यह गैर-मुस्लिम समाजों की नैतिकता, रीति-रिवाजों का प्रभाव भी होता है.
हालांकि उदारवादी कहलाने वाले मुस्लिमों में एक ऐसा हिस्सा भी है जो ऊपरी हाव-भाव में या फिर भ्रमवश वैसा मान लिया जाता है. जो सचमुच उदारवादी हैं, उन की स्थिति दुविधापूर्ण रहती है. उन्हें प्रायः ऐसे बिन्दुओं पर अपनी समझ बनाने या व्यक्त करने में कठिनाई होती है, जहां इस्लामी नजरिया और मानवीय नजरिए में विरोध मिलता है.
तब उन्हें दुविधा होती हैः किसे वरीयता दें? किस आधार पर मूल्यांकन करें? यह केवल जिहादी आतंक पर नहीं, बल्कि शरीयत के मध्ययुगीन कानून, लोकतंत्र, सेक्यूलर राज्य, कुफ्र, दारुल-इस्लाम, दारुल-हर्ब, जिम्मी, हिजरत, जैसी धारणाएं, या स्त्रियों और काफिरों के प्रति नीति, कुरान-हदीस जैसी किताबों की वर्तमान मूल्यवत्ता, अभिव्यक्ति स्वतंत्रता, उम्मत बड़ी या मानवता, इस्लामी विश्वास या वैज्ञानिक, यथार्थ सत्य, आदि अनेक विषय हैं जहाँ उदार मुसलमानों को कठिनाई झेलनी पड़ती है. मुस्लिम देशों में भी और यूरोप, अमेरिका, भारत जैसे गैर-मुस्लिम वर्चस्व वाले देशों में भी.
कोएनराड इस से निकलने का मार्ग मानते हैं कि मनुष्य को अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी चाहिए. वही न्याय, सत्य और शान्ति का मार्ग है. यदि जिहादी आतंक अनुचित लगे, तो इस्लामी निर्देश या पैगंबर के उदाहरण देने पर उस से भी दूरी बनाने में हिचकना नहीं चाहिए. यह कोशिश फिजूल है कि कुरान के आदेश या पैगम्बर के कार्य का यह नहीं, वह संदर्भ था. हर हाल में ऐसे दो-टूक चुनाव करने के अवसर आएंगे ही कि सहज मानवीय समझ को महत्व दें या हदीस के निर्देश को? कितना भी शाब्दिक नाट्य इन में सदैव ताल-मेल नहीं बिठा सकता.
दूसरे, कुरान या हदीस की व्याख्या के अधिकारी सामान्य मुसलमान नहीं हैं. आम मुसलमानों के लिए, चाहे-अनचाहे, स्वेच्छया या जबरदस्ती, वही व्याख्या मान्य होगी जो कोई ईमाम, अयातुल्ला या मुफ्ती देगा. अतएव, किसी उदारवादी मुसलमान द्वारा इस्लामी निर्देशों की उदार व्याख्या का वैसे भी कोई मोल नहीं है. अतः हर हाल में ऐसे दुविधा भरे क्षणों में अपनी अंतरात्मा की आवाज को वरीयता देनी चाहिए. यह कहने में हिचक छोड़नी होगी कि इस्लाम, कुरान या हदीस की सभी बातें न मानें.
विशेषकर वे जो आक्रामकता, हिंसा और बर्बरता प्रेरित करती हैं. इस का प्रमाण व्यवहार को मानना चाहिए न कि किन्हीं घोषणाओं को. यदि मुस्लिम युवक और संगठन किन्हीं आयतों, हदीसों, विश्वासों से प्रेरित होकर आतंक और हत्याएं बरपा करते हैं, और बार-बार यही पाए जाने पर मानना ही चाहिए कि वे विश्वास, विचार ही वैसी हिंसा के मूल स्त्रोत हैं. अतः वे विचार त्याज्य हैं. इस से कतरा कर दुविधा का कोई समाधान नहीं.
यह भी पढ़ें: नव-प्रगतिशील सेक्युलर लोगों से पूछा जाना चाहिए कि तबलीगी जमात का मतलब मुसलमान कैसे हो गया
(किताब का यह अंश अक्षय प्रकाशन की किताब मुसलमानों की घर वापसी: क्यों और कैसे? से लिया गया है.)
Shandar bahut badiya……good work
Can’t believe that mob lynchers really have the audacity to write such a stupid article. Better stay in your lane while feeding on cow dung, don’t try to cross it
बेटी को कोख में मार डालने वाले मुसलमानों को मानवता सिखाएगा । जाहिल ।
Islaam Ek Wahid aisa Mazhab hai jo Sachchai Par Qayam hai. Islaam ko Manne Wale Sirf Usi(ALLAH) ke Aage Sar Jhukate hai Aur Us ALLAH ko Mante bhi hai jisne Saari Qayanat ko Bnaya Aur Har Shae ko Pala hai. Aur Ham Sab ke kaamo ka Hisaab bhi usi ke Paas hai. To ye baAt Zahiri sach hai ki Musalman Sirf Duniya ke Banane Wale Aur joki poori Duniya ka Malik hai Usi ki btaye hue Raste par chalne wale hai. Iske alawa kisi bhi kanoon ya kisi bhi mamuli se insaan ki baAte Mayine nhi rakhte. Aur ye BaAt sbko jaan leni chahiye ki Musalman ALLaH ki Sirf Pairwi karna jaante hai aur usi ke liye Jeete Hai. Aur Aman Chain Islaam ka Paigham hai Aur yhi iska Maqsad bhi. Har aira ghaira Islaam ko naahi smjh sakta hai aur naahi chala sakta hai. Aur Ye Mere vichaar nhi ye Sachchai ka Paigham hai.
The writer must read Qur’an with its meaning and life of prophet Muhammad (SAW) before writing such an innocent article.
I am Hindu and my name is Aditya ….Maine apni life me bht kch sikha Dharmo ko lekar aur conclusion ye nikla ki Islam is the only true religion….Sanatan dharm bhi true tha lekin it’s fabricated now…aur Shekhar Gupta Jaise illiterate log jab tak Mere Desh me Hain is desh Ka kch Nahi ho Sakta…inko turkey ki fikar hai lekin inko Apne desh me SC ST ka nepotism Nahi nazar aata… inko desh ki GDP Nahi nazar a rahi…inko mehngayi Nahi dikh rahi…inko Hindu dharm ki loot fabricated rasm riwaj na nazar Aaya jisme Ladki Ka baap Hona paap hai…dahej ke naam pe betiya jalayi ja rahi wo Nahi nazar Aaya..inko America ke WTC dikha lekin Iraq and afghan ke 10 lakh masoom bachche aur budhey na dikhey jinko maar daala Diya Gaya…Jo ki action tha aur America waala reaction tha…
Jab tak mere Bharat me double face log rahenge ye aaise hi pichda rahega…doosro ko dogla bolne waale ye khud dogley Hain…Mai sachha Hindu hu…Jo sabhi Dharmo ko aur unki vichar dharao ki respect karta hu……
I love Muslims…I love my India….I hate Shekhar Gupta…. cheap mentality person.shame on you….ho and read properly about Islam …..
islam jindabad hai or hamesha Rohega
72 hoore nhi milengi