गीतों का जिंदगी पर क्या असर होता है ये किसी से छिपा नहीं है. यादों के टूटे तार हों या गुज़रते-चलते समय को जीने की सलाहियत, गीत इन कड़ियों को जोड़ने का बखूबी काम करते हैं.
भारतीय संगीत परंपरा में ऐसे तमाम फनकार हुए हैं जो सुख, दुख, पीड़ा, उत्साह जैसे मौकों को गीतों के जरिए गुनगुना चुके हैं. लेकिन इस परंपरा में एक ऐसा सितारा भी हुआ है जो अपनी पहचान अलग से बनाए हुए है. दुनिया से जाने के 40 बरस बाद भी उनकी दिलकश आवाज़ क्या बड़े बल्कि बच्चे -बच्चों के दिलों पर राज कर रही है. ऐसे शानदार फनकार का नाम है- मोहम्मद रफी.
बचपन में उनकी गलियों से गुजरते फकीरों द्वारा गाए जाने वाले गीतों ने उनपर इतना गहरा असर डाला कि उनका संगीत की तरफ रुझान बढ़ता चला गया. रफी साहब ने खुद एक साक्षात्कार में ये बात बताई है.
सिनेमाई दुनिया में उनके साथ काम कर चुके अभिनेता, अभिनेत्री, गायक, संगीतकार कोई भी हों, एक बात उनके द्वारा रफी साहब के बारे में सुनाई पड़ती है वो ये है कि- वो एक शानदार गायक और बहुत ही शरीफ आदमी थे.
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कैसे आए संगीत की दुनिया में
हज़ारों गानों को अपनी आवाज़ देने वाले मोहम्मद रफी का जन्म ब्रिटिश इंडिया काल में पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह में 24 दिसंबर 1924 में हुआ था जो आज के पंजाब का हिस्सा है.
रफी साहब ने खुद कई बार कहा है कि उनके गाने को लेकर उनके वालिद (पिताजी) खुश नहीं थे और वे नहीं चाहते थे कि वे गाना गाए.
चार दशक से भी पहले उर्दू पत्रिका शमां के लिए लिखे एक लेख में उन्होंने कहा था, ‘मेरे बड़े भाई हाजी मोहम्मद दीन ने न जाने उन्हें कैसे समझाया कि उन्होंने मुझे लैला मजनूं फिल्म में गाने की इजाजत दे दी.’ इस तरह आवाज़ की दुनिया में उनका सफर शुरू हो गया.
1944 में रफी साहब बॉम्बे (मुंबई) आ गए. जहां संगीतकार श्याम सुंदर ने उनकी काफी मदद की और फिल्मों में गाने का काम दिया. धीरे-धीरे उनकी आवाज़ का जादू चढ़ने लगा. उनकी आवाज़ उस दौर में इतनी विरले थी कि बाकी संगीतकारों ने भी उन्हें हाथों-हाथ लिया.
अगर याद करें 1950 के दौर को तो दिलीप कुमार की ज्यादातर फिल्मों में रफी साहब ही उनके गीत गाते थे. लेकिन बाद के सालों में वो देव आनंद, गुरू दत्त, शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन की भी आवाज़ बने.
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रफी ने गीतों को अमरता दी
1940-50 के मध्य तक भारतीय सिनेमा में एक चलन था कि फिल्मों में ज्यादातर अभिनेता-अभिनेत्री वही लिए जाते थे जो खुद गीत भी गा सके. जैसे केएल सहगल और नूरजहां. लेकिन इसके बाद ये प्रचलन टूटा और अलग से गायकों की मांग बढ़ी. इसी बीच रफी साहब की आवाज़ को सराहा जाने लगा.
उनकी आवाज़ में सबसे जो खूबसूरत चीज़ थी वो ये कि जिस भी किरदार के लिए वो गीत गाते थे मानो ऐसा लगता था कि उसी की आवाज हो. जैसे फिल्म हम दोनों (1961) का गीत ‘अभी न जाओ छोड़ के‘ सुनकर लगता है कि खुद देवानंद इसे गा रहे हों. वहीं 1962 में आई फिल्म आन में घोड़े की टाप पर रचा गया गीत ‘दिल में छुपाकर प्यार‘ में लगता है कि दिलीप कुमार खुद गा रहे हैं. प्यासा (1957) फिल्म के गीतों में लगता है कि गुरू दत्त खुद गा रहे हैं.
बहारें फिर भी आएंगी फिल्म के गीत ‘आप के हसीं रुख पे‘ में भी मानो लगता है कि धर्मेंद्र खुद गुन-गुना रहे हों. आवाज़ की ऐसी खूबसूरती बहुत कम ही गायकों में रही है.
शम्मी कपूर को इस बीच भुला देना तो बिल्कुल मुनासिब नहीं होगा. पर्दे पर रफी साहब ही उनकी आवाज़ होते थे. अकेले अकेले कहां जा रहे हो, दीवाने का नाम तो पूछो, रात के हम सफर, इशारों इशारों में, ये चांद सा रोशन चेहरा, दीवाना हुआ बादल उन गीतों में शामिल है जो रफी साहब ने शम्मी कपूर के लिए गाए.
रोमांटिक गीत हो, मस्ती भरे गीत हो या दर्द भरे नगमें या कोई कव्वाली या फिर गज़ल रफी साहब हर किसी में कमाल के नज़र आते थे. बैजू बावरा के लिए जो उन्होंने भक्ति गीत गाए उसका कोई सानी नहीं है. जिनमें ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज‘ और ‘ओ दुनिया के रखवाले’ गाने शामिल हैं.
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लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए गाए सबसे ज्यादा गाने
रफी साहब ने यूं तो कई संगीतकारों के लिए गाने गाए जिनमें शुरुआती दौर में नौशाद, शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन, ओपी नैयर, कल्याणजी आनंदजी शामिल थे लेकिन लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के लिए उन्होंने 360 से भी ज्यादा गाने गाए.
1964 में आई फिल्म दोस्ती के गाने- ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे ‘ के लिए रफी साहब को फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला जिसका संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने ही दिया था.
जब लता मंगेशकर और रफी साथ में नहीं गाते थे
1962-63 के करीब लता मंगेशकर ने गानों की रॉयल्टी का मुद्दा उठाया. उनका कहना था कि गीतों से जो कमाई होती है उसका कुछ हिस्सा गायकों को भी मिलना चाहिए. इसके लिए उन्होंने तब तक काफी मशहूर हो चुके मोहम्मद रफी का समर्थन हासिल करना चाहा लेकिन उन्होंने इसके लिए मना कर दिया. जिस कारण दोनों में मतभेद हो गया. जिसके बाद फिल्मों में एक साथ गाना दोनों ने बंद कर दिया.
इस बीच लता मंगेशकर के साथ महेंद्र कपूर, मन्ना डे जैसे समकालीन गायकों को गाने का ज्यादा मौका मिला. वहीं रफी साहब के साथ सुमन कल्याणपुर जैसी महिला गायिकाओं को मौका मिला.
1967 में मदन मोहन ने एसडी बर्मन नाइट्स का आयोजन किया जिसमें रफी, लता, मन्ना डे, तलत महमूद जैसे गायक गाने वाले थे. फिर इसी बीच घोषणा हुई कि लता-रफी एक साथ गाना गाने वाले हैं. इसी के साथ दोनों के बीच हुआ मतभेद खत्म हो गया और फिर से फिल्मों में दोनों साथ गाने लगे.
लता मंगेशकर ने एक बार कहा भी था- ‘उनके मन में कोई छल कपट नहीं था, बात बहुत कम करते थे.’
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रफी साहब ने जब अल्लाह-अल्लाह करने का फैसला किया
शमां पत्रिका में रफी साहब ने लिखा कि पहली बार हज करने के बाद उन्होंने फिल्म लाइन छोड़कर अल्लाह-अल्लाह करने का इरादा कर लिया था. उन्होंने कहा था कि मेरे इस फैसले के पीछे कुछ लोगों ने ये कहना शुरू कर दिया था कि मुझे काम मिलना बंद हो गया था लेकिन ये बात ठीक नहीं थी.
रफी साहब ने लिखा है, ‘मुझे फिल्मी दुनिया में दोबारा नौशाद साहब का इसरार खींच लाया था. उन्होंने कहा था कि मेरी आवाज़ आवामी अमानत है और मुझे अमानत में खयानत करने का कोई हक नहीं पहुंचता. चुनांचे मैंने फिर गाना शुरू कर दिया.’
रफी के समकालीन गायक उन्हें कैसे याद करते थे
एक बात जो स्पष्ट थी वो ये कि सिनेमा जगत के सभी लोग रफी साहब का काफी सम्मान करते थे. इस बात का जिक्र कई लोगों ने किया भी है. लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि उनके समकालीन गायक भी उन्हें उतनी ही इज्जत देते थे जितना बाकी लोग.
जाने-माने गायक रहे मन्ना डे ने एक बार कहा था- ‘रफी साहब वर्सेटाइल सिंगर थे और वो जो कर सकते थे हम लोग नहीं कर सकते.’
लता मंगेशकर ने रफी साहब के बारे में कहा है, ‘वो भगवान का आदमी था. उनमें कोई ऐब भी नहीं थे. न पान खाते थे, न सुपारी, न शराब. कोई गलत आदत नहीं थी. न वैसी आवाज़ आई और न ही सौ सालों में आएगी.’
रफी के काफी करीबी लोगों में से एक जाने-माने गायक महेंद्र कपूर ने उन्हें याद करते हुए कहा था, ‘रफी साहब गायक तो बड़े थे ही, लेकिन इंसान बहुत बड़े थे.’
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नेहरू ने भी रफी की आवाज़ को नवाजा
रफी साहब को 21 बार फिल्मफेयर अवार्ड के लिए नोमिनेट किया गया जिसमें से 6 बार उन्हें ये अवार्ड मिला. इसके अलावा 1977 में ‘क्या हुआ तेरा वादा ‘ गाने के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया.
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1948 में आजादी की पहली वर्षगांठ पर महात्मा गांधी पर गाए उनके गीत ‘सुनो सुनो ए दुनिया वालो बापू की अमर कहानी है ‘ के लिए उन्हें सिल्वर (रजत) पदक दिया था.
भारत सरकार ने 1967 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा था.
‘बहारें हमको ढूंढेंगी, न जाने हम कहां होंगे’
31 जुलाई की रात दिल का दौरा पड़ने से रफी साहब इस दुनिया को बेआवाज़ कर गए. उनके अंतिम संस्कार में हज़ारों लोगों का हुजूम मुंबई की सड़कों पर आ गया था. ये उनके चाहने वाले ही थे जो अपने चहेते को आखिरी बार देख लेना चाहते थे. ये वही दिन था जब रफी के लिए आसमान भी रो रहा था. बताते हैं कि उस रोज़ काफी तेज़ बारिश हो रही थी लेकिन उनके दर्शन को आए लोग थे कि कम होने का नाम नहीं ले रहे थे.
रफी साहब के निधन पर लता मंगेशकर ने कहा था- ‘एक संगीत का युग आज खत्म हुआ है.’ वहीं दिलीप कुमार ने कहा था- ‘हमारे बाद इस महफिल में अफसाने बयां होंगे, बहारें हमको ढूंढेंगी, न जाने हम कहां होंगे.’
इस तरह कुदरती आवाज़ लिए आया फनकार कुछ बेहतरीन और यादगार गीत देकर हमारे बीच से विदा हो गया. ये कहते हुए कि-
तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे
हां तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे
जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे
संग संग तुम भी गुनगुनाओगे….
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