शहीद भगत सिंह के प्रति मेरी श्रद्धा और उनके पैतृक गांव खटकड़ कलां में बिताए ग्यारह वर्ष मुझे इसकी गंभीरता के बारे में लगातार सचेत करते रहे. बहुत सी कहानियां हैं उनके बारे में. किस्से ऊपर किस्से हैं. इन किस्सों से ही भगत सिंह शहीद-ए-आजम हैं.
मेरी सोच है या मानना है कि शायद शुद्ध जीवनी लिखना कोई मकसद पूरा न कर पाए. यह विचार भी मन में उथल-पुथल मचाता रहा लगातार. न जाने कितने लोगों ने कितनी बार शहीद भगत सिंह की जीवनी लिखी होगी और सबने पढ़ी भी होगी. मैं नया क्या दे पाऊंगा? यह एक चुनौती रही.
सबसे पहले जन्म की बात आती है जीवनी में. क्यों लिखता हूं मैं कि शहीद भगत सिंह का पैतृक गांव है खटकड़ कलां, सीधी सी बात कि यह उनका जन्मस्थान नहीं है. जन्म हुआ उस क्षेत्र में, जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है. चक विलगा नंबर 105 में 27 सितंबर, 1907 को जन्म हुआ और यह बात भी परिवारजनों से मालूम हुई कि वे कभी अपने जीवन में खटकड़ कलां आए ही नहीं, फिर इस गांव की इतनी मान्यता क्यों? क्योंकि स्वतंत्र भारत में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को श्रद्धा अर्पित करने के दो ही केंद्र हैं—खटकड़ कलां और हुसैनीवाला. इनके पैतृक गांव में इनका घर और कृषि भूमि थी. इनके घर को परिवारजन राष्ट्र को अर्पित कर चुके हैं और गांव में मुख्य सड़क पर ही एक स्मारक बनाया गया है. बहुत बड़ी प्रतिमा भी स्मारक के सामने है. पहले हैटवाली प्रतिमा थी, बाद में पगड़ीवाली प्रतिमा लगाई गई. इसलिए इस गांव का विशेष महत्त्व है. हुसैनीवाला वह जगह है, जहां इनके पार्थिव शवों को लाहौर जेल से रात के समय लोगों के रोष को देखते हुए चोरी चुपके लाया गया फांसी के बाद और मिट्टी का तेल छिड़क आग लगा दी, जैसे कोई अनजान लोग हों—भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव. दूसरे दिन भगत सिंह की माता विद्यावती अपनी बेटी अमर कौर के साथ रोती हुई पहुंची और उस दिन के ‘द ट्रिब्यून’ अखबार के पन्नों में राख समेटकर वे ले आई तीनों की, जो आज भी शहीद स्मारक में ज्यों-की-त्यों रखी है. यही नहीं, शहीद भगत सिंह, जो डायरी लिखते थे और कलम-दवात भी रखी हैं, मानो अभी कहीं से भगत सिंह आएंगे और अपनी जिंदगी की कहानी फिर से और वहीं से लिखनी शुरू कर देंगे, जहां वे छोड़कर गए थे. इनकी सबसे बड़ी बात कि इन्होंने अपने से पहले शहीद हुए सभी शहीदों की वो गलतियां डायरी में लिखीं, जिनके चलते वे पकड़े गए थे. जाहिर है कि वे इतने चौकन्ने थे कि उन गलतियों को दोहराना नहीं चाहते थे, वैसे यह कितनी बड़ी सीख है हमारे लिए कि हम भी अपनी जिंदगी में बार-बार वही गलतियां न दोहराएं.
अब बात आती है कि आखिर कैसे और क्यों भगत सिंह क्रांतिकारी बने या क्रांति के पथ पर चले? शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने किसान आंदोलन पगड़ी संभाल ओए जट्टा में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जिसके चलते उन पर अंग्रेज सरकार की टेढ़ी नजर थी, उन्हें जेल में ठूंसा गया दबाने के लिए. इनके पिता किशन सिंह भी जेल मे थे, जब इनका जन्म हुआ, तब पिता और चाचा जेल से छूटे तो दादी ने इन्हें भागांवाला कहा, यानी बहुत किस्मतवाला बच्चा. जिसके आने से ही पिता और चाचा जेल से बाहर आ गए. इस तरह इसी भागांवाले बच्चे का नाम आगे चलकर भगत सिंह हुआ.
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फिर इनके बचपन का यह किस्सा भी बहुत मशहूर है कि पिता किशन सिंह खेत में हल चलाते हुए बिजाई कर रहे थे और पीछे-पीछे चल रहे थे भगत सिंह. उन्होंने अपने पिता से पूछा कि बीज डालने से क्या होगा?
‘फसल, यानी ज्यादा दाने.’
‘फिर तो यहां बंदूकें बीज देते हैं, जिससे ज्यादा बंदूकें हो जाएं और हम अंग्रेजों को भगा सकें.’
‘यह सोच कैसे बनी और क्यों बनी? इसके पीछे बाल मनोविज्ञान है.’
इनके चाचा अजीत सिंह ज्यादा समय जेल में रहते और चाची हरनाम कौर रोती-बिसूरती रहती या उदास रहती. बालमन पर इसका असर पड़ा और चाची से गले लगकर वादा करता रहा कि एक दिन इन अंग्रेजों को सबक जरूर सिखाऊंगा. इनके चाचा अजीत सिंह उस दिन डलहौजी में थे, जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ और उसी दिन वहीं उनका खुशी में हृदय रोग से निधन हो गया. डलहौजी में उनका स्मारक भी बनाया गया है, जिसे देखने का सौभाग्य वहां जाने पर मिला था.
परिवार आर्य समाजी था और इनके दादा अर्जुन सिंह भी पत्र तक हिंदी में लिखते थे, जो अनेक पुस्तकों में संकलित हैं. भगत सिंह के परिवार के बच्चों के यज्ञोपवीत भी हुए. इस तरह पहले से ही यह परिवार नई रोशनी और नए विचारों से जीने में विश्वास करता था, जिसका असर भगत सिंह पर भी पड़ना स्वाभाविक था और ऐसा ही हुआ भी.
इस तरह क्रांति के विचार बालमन में ही आने लगे, फिर जब जलियांवाला कांड हुआ तो दूसरे दिन बालक भगत अपनी बहन बीबी अमर कौर को बताकर अकेले रेलगाड़ी में बैठकर अमृतसर निकल गया और शाम को वापस आया तो वहां की मिट्टी लेकर और फिर वह विचार प्रभावी हुआ कि इन अंग्रेजों को यहां से भगाना है. उस समय भगत सिंह मात्र तेरह साल के थे. बीबी अमर कौर उनकी सबसे अच्छी दोस्त जैसी थी. वह मिट्टी एक मर्तबान में रखकर अपनी मेज पर सजा ली, ताकि रोज याद करें इस कांड को. इस तरह कड़ी-से-कड़ी जुड़ती चली गई. भगत सिंह करतार सिंह सराभा को अपना गुरु मानते थे और उनकी फोटो हर समय जेब में रखते थे, उन्हें ये पंक्तियां बहुत पसंद थीं—
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर
हमको भी मां-बाप ने पाला था दुःख सह-सहकर.
दूसरी पंक्तियां, जो भगत सिंह को प्रिय थीं और गुनगुनाया करते थे—
सेवा देश दी करनी जिंदड़िये बड़ी औखी
गल्लां करनियां ढेर सुखलियां ने
जिहना देश सेवा विच पैर पाया
उहनां लख मुसीबतां झल्लियां ने…
स्कूल की पढ़ाई के बाद जिस काॅलेज में दाखिला लिया, वह था नेशनल काॅलेज, लाहौर जहां देशभक्ति घुट्टी में पिलाई जा रही थी. यह काॅलेज क्रांतिकारी विचारकों ने ही खोला था. उस घुट्टी ने बहुत जल्द असर किया, वैसे भगत सिंह थिएटर में भी दिलचस्पी रखते थे और लेखन में भी. इसी काॅलेज में वे अन्य क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और जब लाला लाजपत राय को साइमन कमीशन के विरोध करने व प्रदर्शन के दौरान लाठीचार्ज में बुरी तरह घायल किया गया, तब ये युवा पूरे रोष में आ गए. स्मरण रहे, इन जख्मों को पंजाब केसरी लाला लाजपत राय सह नहीं पाए और वे इस दुनिया से विदा हो गए. लाला लाजपत राय की ऐसी अनहोनी और क्रूर मौत का बदला लेने की इन युवाओं ने ठानी. सांडर्स पर गोलियां बरसाकर, जब भगत सिंह लाहौर से निकले तो थिएटर का अनुभव बड़ा काम आया और वे दुर्गा भाभी के साथ हैट लगाकर साहब जैसे लुक में बच निकले. दुर्गा भाभी की गोद में उनका छोटा सा बच्चा भी था. इस तरह किसी को कोई शक न हुआ. भगत सिंह का यही हैटवाला फोटो सबसे ज्यादा प्रकाशित होता है.
इसके बाद यह भी चर्चा है कि घरवालों ने इनकी शादी करने की सोची, ताकि आम राय की तरह शायद गृहस्थी इन्हें सीधे या आम जिंदगी के रास्ते पर ला सके, लेकिन ये ऐसी भनक लगते ही भाग निकले. क्या यह कथा सच है? ऐसा सवाल मैंने आपकी माता विद्यावती से पूछा था, तब उन्होंने बताया था कि सिर्फ बात चली थी. कोई सगाई या कुड़माई नहीं हुई, न कोई रस्म, क्योंकि जैसे ही भगत सिंह को भनक लगी उसने भाग जाना ही उचित समझा तो क्या फिल्मों में जो गीत आते हैं, वे झूठे हैं?
जैसे—हाय रे जोगी, हम तो लुट गए तेरे प्यार में…इस पर माता ने कहा कि फिल्म चलाने के लिए कुछ भी बना लेते हैं, वैसे सारी फिल्मों में से मनोज कुमार वाली फिल्म ही सही थी और मनोज कुमार मेरे से आशीर्वाद लेने भी आया था.
खैर, भगत सिंह घर से भाग निकले और कानपुर जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी के पास बलवंत नाम से पत्रकार बन गए. उस समय पर इनका लिखा लेख—‘होली के दिन रक्त के छींटे, बहुचर्चित है’ और भी लेख लिखे. मैं हमेशा कहता हूं कि यदि भगत सिंह देश पर कुरबान न होते तो वे एक बड़े लेखक या पत्रकार होते. इतनी तेज कलम थी इनकी.
इसके बाद इनका नाम आया बमकांड में. क्यों चुना गया भगत सिंह को इसके लिए? क्योंकि ये बहुत अच्छे वक्ता थे और इसीलिए योजना बनाई गई कि बम फेंककर भागना नहीं, बल्कि गिरफ्तारी देनी है. भगत सिंह ने अदालत में लगातार, जो विचार रखे, वे अनेक पुस्तकों में सहेजे गए हैं और यह भी स्पष्ट किया कि हम चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन हम तो अंग्रेजी सरकार को जगाने आए थे. दूसरे, यह गोली या बम से परिवर्तन नहीं आता, लेकिन बहरी सरकार को जगाने के लिए इसे उपयोग किया गया. इस तरह यह सिद्ध करने की कोशिश की गई कि हम आतंकवादी नहीं, बल्कि क्रांतिकारी हैं. भगत सिंह की एक पुस्तिका है—‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ यह खूब बिकती है और पढ़ी जाती है. भगत सिंह हरफनमौला और खुशमिजाज युवक थे. इनके साथी राजगुरु और सुखदेव भी फांसी के हुक्म से जरा विचलित नहीं हुए और किसी प्रलोभन में नहीं आए. अनेक प्रलोभन दिए गए. आखिरी दिन तक प्रलोभन दिए जाते रहे, लेकिन भारत माता के ये सपूत अपनी राह से बिल्कुल भी पीछे न हटे. डटे रहे.
भगत सिंह पुस्तकें पढ़ने के बहुत शौकीन थे और अंत तक जेल में अपने वकील या मिलने आनेवालों से पुस्तकें मंगवाते रहे, आखिर जब फांसी लगने का समय आया, तब भी लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब बुलावा आया कि चलो. तब बोले कि ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. अपने छोटे भाई कुलतार को भी एक खत में लिखा था कि पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो, क्योंकि विचारों की सान इसी से तेज होती है.
बहुत छोटी उम्र में 23 मार्च, 1931 को फांसी का फंदा हंसते-हंसते चूम लिया. क्या उम्र होती है मात्र तेईस साल के आसपास. वे दिन जवानी की मदहोशी के दिन होते हैं, लेकिन भगत सिंह को जवानी चढ़ी तो चढ़ी आजादी पाने की.
फिर भी रहेंगी कहानियां,
तुम न रहोगे, हम न रहेंगे
फिर भी रहेंगी कहानियां
(‘आजादी @75 क्रांतिकारियों की शौर्यगाथा’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 500₹ की है.)
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