बीते कुछ सालों में भारत के भीतर जिस एक बात की खूब चर्चा हुई वो है शौचालय (सैनिटेशन). शहर से लेकर गांव तक में बड़ी संख्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देशभर में शौचालयों का निर्माण कराया गया. हालांकि इस योजना में काफी खामियां भी रही जिसकी रिपोर्ट भी लगातार आती रही. लेकिन किसी योजना की सफलता को तब तक पूरा नहीं माना जाता है जब तक कि उसका लाभ समाज के अंतिम श्रेणी के लोगों तक न पहुंचे.
इसी को आधार बनाकर फिल्मकार कमाख्या नारायण सिंह ने अपनी पहली फिल्म ‘भोर ‘ बनाई है जिसकी पृष्ठभूमि बिहार के एक पिछड़े इलाके को बनाया गया है. फिल्म के किरदार समाज के उस श्रेणी से आते हैं जिन्हें माना जाता है कि वो मूस (चूहे) खाकर अपना पेट पालते हैं यानि कि ‘मुसहर’ समुदाय.
जब तक देश में लोगों के घरों में शौचालयों नहीं बने थे तब तक उनके जीवन में भोर की एक अलग भूमिका होती थी. लोग भोर (सुबह) में उठकर शौचालय के लिए बाहर खुले में जाया करते थे. इसी के मद्देनज़र कमाख्या नारायण सिंह की फिल्म का टाइटल भोर भी काफी सटीक और असरदार है.
ओटीटी प्लेफॉर्म एमएक्स प्लेयर पर 5 फरवरी 2021 को रिलीज हुई भोर की इन दिनों काफी चर्चा हो रही है.
बॉलीवुड अभिनेता पंकज त्रिपाठी से लेकर फिल्मकार सुजीत सरकार ने इसकी तारीफ की है. इसी के साथ डेढ़ घंटे की इस सामाजिक विषय पर बनी फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में भी खूब सराहना मिली है और इसने कई पुरस्कार भी जीते हैं.
शुभकामनाएँ पूरी टीम और @kamakhyanarayan जी आपको। https://t.co/nacdDSXLmE
— पंकज त्रिपाठी (@TripathiiPankaj) February 14, 2021
फिल्मकार कमाख्या नारायण सिंह ने मुसहर जाति को केंद्र में रखकर शौचालय, नारी सशक्तिकरण, महिलाओं की शिक्षा, पलायन जैसे मुद्दों को एकसाथ लाकर गंभीर फिल्म बनाई है और उन्होंने दिप्रिंट से बातचीत में इस फिल्म को बनाने के पीछे का कारण भी बताया है.
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बुधनी का संघर्ष
फिल्म भोर की कहानी शुरू होती है बुधनी नाम की एक मुसहर समाज में पैदा हुई लड़की से, जो स्कूल में पढ़ती है. उसके पिता उसकी शादी करवाना चाहते हैं लेकिन बुधनी ऐसा करना नहीं चाहती बल्कि वो आगे पढ़ना चाहती है. परिवार के दबाव में उसकी शादी कम उम्र में ही सुगन (दावेश रंजन) से होती है जो उसे आगे पढ़ाने पर राज़ी हो जाता है.
परीक्षा में अच्छा करने पर बुधनी को जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) द्वारा ईनाम दिया जाता है. ईनाम में वो शौचालय की मांग करती है जिसपर डीएम उसे 25 हज़ार रूपए देते हैं. लेकिन उन पैसों से बुधनी का पति और ससुर चमकू गांव में नाच करवाता है जिसका बुधनी विरोध करती है. ऐसा करने पर उसे घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है. जिसके बाद वो पुलिस थाने में शिकायत करने निकल पड़ती है. अंत में इस बात पर उसके ससुराल वालों को राज़ी होना पड़ता है कि वो उसके लिए बांस का शौचालय बनवाएंगे.
लेकिन इसी के साथ बुधनी की परेशानी खत्म नहीं होती. उसके ससुर की तबियत खराब होनी की स्थिति में उसे अपने पति सुगन के साथ कमाने के लिए दिल्ली जाना पड़ता है और यहां भी शौचालय की परेशानी उसका पीछा नहीं छोड़ती.
फिल्म में चमकू की भूमिका में नलनीश नील, बुधनी की भूमिका में सावरी गौर, सुगन की भूमिका में दावेश रंजन हैं. कुछ देर के लिए स्पेशल अपीरियंस के तौर पर वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी भी इस फिल्म में नज़र आते हैं.
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महिला शिक्षा, नारी सशक्तिकरण और पलायन
फिल्म भोर की खूबसूरती इस बात में है कि इसमें बिना किसी बड़े कलाकार के होने के बावजूद इसकी कहानी इतनी जोरदार है कि ये दर्शकों को बांधे रख सकती है.
इस फिल्म का महीन विश्लेषण करने से समाज के हाशिए के तबके की वो स्थिति सामने आ जाती है जिससे शहर में बैठे लोग अक्सर अनजान होते हैं. फिल्म में चमकू (बुधनी का ससुर) और अन्य लोगों को खूब ताड़ी पीते हुए दिखाया गया है. असल में ये स्थिति ग्रामीण स्तर पर जाकर देखी जाए तो बिल्कुल सही बैठती है. इसी तरह लड़कियों की कम उम्र में शादी होने की खबरें भी आए दिन आती रहती है.
लेकिन फिल्म में बुधनी को जिस तौर पर एक मजबूत किरदार के रूप में दिखाया गया है, वो एक ऐसी लड़की की भूमिका निभाती है जो अपने हकों और अपनी शिक्षा को लेकर सजग है और इसके लिए वो हर कोशिश करने को तैयार है.
चमकू के बीमार पड़ने पर बुधनी और उसका पति सुगन दिल्ली का रूख करते हैं. यहां वो रेलवे स्टेशन से सटे झुग्गियों में रहते हैं जहां उन्हें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जिस बुधनी के प्रयासों से उसके गांव में शौचालय बना, वो अब शहर आकर भी उसी दिक्कत का सामना करती है. इसके खिलाफ वो एक अभियान छेड़ देती है. जिसके बाद उन झुग्गियों को तोड़ दिया जाता है जिसमें वो और उन जैसे दूसरे लोग रहते हैं. और आखिरकार उन्हें गांव लौटना पड़ता है. ये पलायन की गंभीर स्थिति को दर्शाता है.
गांव से आकर शहर में लोग किन मुश्किलात का सामना करते हैं, इस महत्वपूर्ण विषय पर भी फिल्म जोरदार ढंग से हस्तक्षेप करती है. शौचालय को मुख्य विषय बनाकर फिल्मकार ने कई और महत्वपूर्ण मुद्दों पर जोरदार टिप्पणी की है. हालांकि शौचालय के मुद्दे पर अब देश में चर्चा काफी कम हो गई है. 2014 से लेकर 2018 के बीच ये मुद्दा सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहा है.
कई लोग इस फिल्म को अक्षय कुमार की फिल्म टॉयलेट: एक प्रेम कथा से जोड़कर भी देख रहे हैं. लेकिन इन दोनों फिल्मों में एक बुनियादी फर्क ये है कि अक्षय कुमार की फिल्म शहरी तबके को टार्गेट करती है और उसी के इर्द-गिर्द चलती है लेकिन भोर समाज के उस श्रेणी को टार्गेट करती है जहां सरकारी योजनाओं का असर सबसे अंतिम में होता है.
फिल्म में कल्पना पटवारी का गीत मजदूर भईया भी गरीब-किसान की उस त्रासदी को बयान करती है जो समाज में हाशिए पर पड़ा तबका हर दिन भोगता है. फिल्म में कैमरा वर्क भी काफी अच्छा है और सभी कलाकारों का अभिनय एकदम नेचुरल लगता है. कोई भी किरदार बनावटी नहीं लगता.
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‘सैनिटेशन जैसे मुद्दे पर मुसहर लोगों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश’
भोर के फिल्मकार कमाख्या नारायण सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘बीते 10 सालों में सैनिटेशन हमारे देश में चर्चा का विषय रहा है. पूर्ववर्ती सरकार ने भी इस पर काम करने की कोशिश की और वर्तमान सरकार ने इसे आंदोलन में बदल दिया. यह एक बड़ा कारण था कि मैंने इस विषय पर फिल्म बनाई.’
उन्होंने कहा, ‘जब मैं अपने गांव जाता था और मुसहर लोगों को देखता था, जो कभी भी अपनी गरीबी का रोना नहीं रोते और काफी अच्छे लोग हैं, वो कैसे प्रतिक्रिया देते हैं, जब सैनिटेशन जैसा विषय उनके सामने आता है.’
कमाख्या नारायण सिंह की पहली फिल्म है भोर. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि पहली फिल्म एक स्कूल की तरह होती है.
उन्होंने कहा, ‘स्क्रिप्ट तैयार होने के बाद हम ऐसे कॉस्ट की तलाश में थे जो मुसहर की तरह दिखें. जब हम फिल्म इंडस्ट्री के जाने-पहचाने चेहरों के पास गए तो उन्होंने फिल्म की शूटिंग के दौरान 2 महीने तक गांव में रहने से मना कर दिया. उसके बाद हमने नए चेहरों की तलाश की.’
सिंह ने कहा, ‘पहली बार फिल्म बनाने में लोगों को यकीन दिलाना काफी मुश्किल रहा. लेकिन जब फिल्म फेस्टिवल में अच्छा रिव्यू मिला तो चीज़े आसान हुईं और तब जाकर ये एमएक्स प्लेयर पर रिलीज़ हुई.’
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