इस फिल्म के पोस्टर, ट्रेलर से लग ही रहा था कि यह एक हॉरर-कॉमेडी होगी लेकिन जब देखा कि इसे लिखने वाले वही रवि शंकरन और जसविंदर सिंह बाठ हैं जिन्होंने पिछले हफ्ते आई हॉरर-कॉमेडी ‘फोन भूत’ लिखी थी तो झटका लगा. उस फिल्म में इस लेखक जोड़ी ने दर्शकों को बुरी तरह पकाया था. लेकिन सब्र का फल मीठा निकला और इंटरवल के बाद इस फिल्म ने न सिर्फ सही रफ्तार पकड़ी बल्कि सही दिशा भी पकड़ी और अंत आते-आते इमोशनल करके यह दिल भी जीत ले गई.
कहानी यह है कि पांच बच्चे हैं जो असल में बच्चों के भूत हैं. ये लोग नाचने के शौकीन थे, आज भी नाचना चाहते हैं, नाम कमाना चाहते हैं. लेकिन भूत भला कैसे नाचें? सो ये लोग पांच बड़ों को पकड़ते हैं कि तुम दुनिया के सामने नाचो, हम तुम्हारे भीतर रह कर नाचेंगे. इसके बाद पांच बड़े नाचे, लेकिन ख्वाहिश पूरी हुई उन पांच बच्चों की. मगर नाम किसे मिला? कैसे मिला?
इस फिल्म को लिखने वाली जोड़ी के साथ दिक्कत यह नजर आती है कि एक तो इन्हें किरदारों को सही तरह से आयाम देने नहीं आते और दूजे इन्हें यह नहीं पता चलता कि जो चीजें ये दर्शकों को डराने के लिए डालते हैं, वे उन्हें हंसाने लगती हैं और जिन चीजों से ये दर्शकों को हंसाना चाहते हैं, वे उन्हें खिजाने लगती हैं. इसलिए आत्मचिंतन करते हुए इन दोनों को हॉरर और कॉमेडी से तो तौबा कर ही लेनी चाहिए. हां, इमोशनल लेखन ये लोग अच्छा कर लेते हैं.
मशहूर कोरियोग्राफर जोड़ी बोस्को-सीजर के बोस्को लेस्ली मार्टिस की लिखी यह कहानी रेमो डिसूज़ा की ‘ए बी सी डी’ वाली डांस फिल्मों जैसी ही है. डांस शो, कुछ टीमें, उनके आपसी मुकाबले, वहां होने वाली साजिशें, उमड़ती भावनाएं, अंत में हार-जीत जैसे वही तमाम तत्व इस कहानी में भी हैं. नएपन के तौर पर भूत वाला एंगल है जो सही भी लगता है. लेकिन कहानी का शुरूआती कच्चापन इसे कमजोर बनाता है. बतौर डायरेक्टर बोस्को ने साधारण काम किया है. इंटरवल के बाद ही उनके काम की सराहना करने का मन होता है और अंत में तालियां बजाने का भी. बेहतर होता कि इसकी स्क्रिप्ट पर जम कर काम करवाने के बाद इसे किसी सधे हुए निर्देशक से बनवाया जाता.
रही-सही कसर इस फिल्म के कम नामी कलाकारों ने पूरी कर दी. बस एक निकिता दत्ता प्यारी लगीं. बाकी सब बड़े, छोटे कलाकार साधारण ही रहे. अलबत्ता कहीं-कहीं छोटे कलाकार ज्यादा असरदार रहे. कुछ नामी, जमे हुए लोगों को लिया जाना चाहिए था. एक डांस-म्यूजिकल फिल्म में जिस स्तर का उम्दा गीत-संगीत होना चाहिए था, उसकी कमी के चलते यह फिल्म उस मोर्चे पर भी हल्की ही रही. स्पेशल इफैक्ट्स साधारण दिखे.
इंटरवल तक बेहद हल्की लगती रही इस फिल्म का बाद में ताकतवर हो जाना सुखद लगता है. बच्चों को यह फिल्म ज्यादा पसंद आएगी. लेकिन दिक्कत यही है कि इस फिल्म से कोई बड़ा या गहरा संदेश नहीं मिलता, सिवाय इसके कि ड्राइविंग करते समय नजर और ध्यान सड़क पर रखें, बस.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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