आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता है मूरख
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में
‘जनतंत्र का जन्म’ कविता में दिनकर का यह स्वर उस वेदना को मुखर रूप से प्रदर्शित करता है जिसमें वे देश के किसानों की फिक्र करते हुए पूरे तंत्र को बतलाते हैं कि देवता मंदिरों में नहीं है बल्कि खेतों में बसते हैं. 26 जनवरी 1950 को यानी की पहले गणतंत्र दिवस के दिन दिनकर ने इस कविता का पाठ किया था.
रामधारी सिंह दिनकर को कैसे याद किया जाए. द्वंद्वात्मक व्यक्तित्व, क्रांतिकारी और विरोधी स्वर के कवि, राष्ट्रकवि, सत्ता के नज़दीक रहने वाले व्यक्ति के रूप में या जनमानस के अपने स्वर के रूप में. इन सभी रूपों में दिनकर कहीं न कहीं अपनी कविताओं और अपने सामाजिक कार्यों के जरिए दिखलाई पड़ते हैं.
बिहार का बेगूसराय जिला – इतिहास में कई पहचान समेटे जीवंत है. एक, गंगा की अविरल धारा के रूप में. दूसरा, रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति के बाद यहां की जनता ने वामपंथी विचार को स्वीकृति दी और इसे भारत का लेनिनग्राद के नाम से प्रस्थापित किया. इसे जिले के सिमरिया गांव में 23 सितंबर 1908 में एक गरीब परिवार में रामधारी सिंह का जन्म हुआ जो बाद में दिनकर कहलाए.
भाइयों ने अपनी पढ़ाई छोड़ दिनकर को पढ़ाया
तीन भाइयों में रामधारी सिंह मझोले थे. बचपन से ही पढ़ाई का शौक था. बड़े और छोटे भाई ने तय किया कि वो अपनी पढ़ाई छोड़कर नुनुआ यानी की रामधारी को पढ़ाएंगे. मैट्रिक करने के बाद रामधारी सिंह ने पटना विश्वविद्यालय से बीए किया. पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी की तलाश की लेकिन नौकरी नहीं मिली.
साहित्य की तरफ बढ़ा रुझान
1930 का समय था. देश राजनीतिक रूप से सक्रिय था. गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था. रामधारी सिंह भी इससे जुड़ गए और अपनी कलम के माध्यम से अंग्रेजी सत्ता पर कड़े प्रहार किए. इसी दौरान साहित्य के प्रति रूझान बढ़ने लगा और उनकी कविताओं में ओज़ और विद्रोह का स्वर प्रस्फुटित होने लगा.
गांधी-दिनकर की नज़र में
दिनकर अपने को परिवर्तनशील कहते थे. समयानुसार खुद में उन्होंने काफी बदलाव किए जो उनकी रचनाओं से स्पष्ट है. गांधी के प्रति उनकी भावना जगजाहिर है. एक बार गोलमेज़ सम्मेलन में शामिल होने पर दिनकर गांधी की कड़ी आलोचना करते हैं. वो लिखते हैं –
रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर
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लेकिन दूसरी तरफ गांधी की मृत्यु के बाद दिनकर एक अलग रूप में दिखलाई पड़ते हैं –
कहने में जीभ सिहरती है
मूर्छित जाती कलम
हाय, हिंदू ही था वह हत्यारा
दिनकर अपनी कविता ‘गांधी‘ में लिखते हैं
गांधी तूफान के पिता
और बाजों के भी बाज थे
क्योंकि वे नीरवता की आवाज़ थे
4 बरस में 22 तबादले
घर की आर्थिक तंगी को देखते हुए दिनकर ने अंग्रेजी शासन की नौकरी करने का फैसला किया. बिहार सरकार में वे नौकरी कर रहे थे. लेकिन अपनी लेखनी के जरिए उस समय भी वो समाज की पीड़ाओं को लगातार पंक्तिबद्ध कर रहे थे. जो ब्रितानी सरकार को नागवार गुजर रही थी. अपनी प्रखर लेखनी की वजह से उन्हें 4 बरस में 22 बार तबादले का सामना करना पड़ा. अतं में 1945 में उन्होंने नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया. इसी समय उन्होंने प्रसिद्ध रचना कुरुक्षेत्र लिखी. युद्ध की विभीषिका और ब्रितानी सरकार की क्रूरता के अनुभवों ने एक कालजयी रचना को जन्म दिया.
बिहार के गौरव हैं दिनकर
बिहार सरकार के कला एवम संस्कृति मंत्री प्रमोद कुमार ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘ जिला प्रशासन के माध्यम से बेगूसराय में हर साल दिनकर जी पर कार्यक्रम आयोजित होता है. राष्ट्रकवि दिनकर के प्रति प्रदेश का शिक्षा विभाग बच्चों के बीच लगातार काम कर रहा है. समय-समय पर काव्य पाठ का कार्यक्रम होता रहता है. उन्होंने कहा प्रदेश के स्कूलों के पाठ्यक्रम में दिनकर जी पर काफी कुछ है. उनकी कई कविताएं पाठ्यक्रम में हैं. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं.’
उन्होंने कहा, ‘दिनकर जी बिहार के गौरव और राष्ट्रकवि थे. हिंदी में जो भी पढ़ाई करेगा दिनकर को पढ़े बिना उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हो सकती है.’
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जब-जब सत्ता लड़खड़ाती है, साहित्य उसे सहारा देता है
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से दिनकर की काफी घनिष्ठता थी. नेहरू को उनकी वीर रस की कविताएं काफी पसंद थी. इसी प्रेम के चलते नेहरू उन्हें राजनीति में लेकर आए. 1952 में दिनकर को राज्यसभा सांसद मनोनीत किया गया. 1964 तक वह लगातार तीन बार सदन के सदस्य रहे.
सत्ता से नजदीक रहने के बाद भी उन्होंने गरीबों, किसानों और देश की बदहाल स्थिति की आवाज़ को स्वर देना बंद नहीं किया. उन्होंने लिखा –
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनके भी अपराध
एक बार दिल्ली में हो रहे कवि सम्मेलन में पंडित नेहरू पहुंचे. सीढ़ियां चढ़ते हुए उनके पैर लड़खड़ा गए तो दिनकर ने उन्हें संभाला. नेहरू ने उन्हें धन्यवाद कहा तो इस पर दिनकर ने कहा – ‘जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तो सदैव साहित्य ही उसे संभालती है.’
संस्कृति के चार अध्याय
पूरे भारतीय संस्कृति और इतिहास को दिनकर ने अपनी किताब संस्कृति के चार अध्याय में विस्तार से लिखा है. इसमें उन्होंने लिखा है – ‘सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विभिन्नताओं के बावजूद भारत एक देश है. इसकी विभिन्नता ही इसकी खूबसूरती है.’
इस किताब की प्रस्तावना पंडित नेहरू ने लिखी थी. उन्होंने लिखा – ‘मेरे मित्र और साथी, दिनकर ने जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक और दिलचस्प है. यह ऐसा विषय है जिससे अक्सर मेरा मन भी ओत-प्रोत रहा है और मैंने जो कुछ भी लिखा है, उस पर इस विषय की छाप अपने आप पड़ गई है.’
उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं
वीरता, आक्रोश और विद्रोह की कविताएं लिखने वाले दिनकर का उर्वशी में जो रूप दिखता है वह बड़ा ही विरला है. प्रेम और सौंदर्य का काव्य दिनकर ने कैसे रच दिया इस पर उन्हें भी संदेह था. इस रचना में प्रेम की व्याख्या करने के लिए एक अलग शैली को दिनकर ने चुना था. उन्होंने लिखा –
मर्त्य मानव के विजय का तूर्य हूं मैं
उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं
अपनी रचना से सूर्य पुत्र कर्ण को अमर बनाया
यह देख गगन मुझमें लय है
यह देख पवन मुझमें लय है
कर्ण को केंद्र में रखकर दिनकर ने 1954 में एक महाकाव्य की रचना की. जिसका नाम उन्होंने रश्मिरथी रखा. यह काव्य मनुष्य के संघर्षात्मक अनुभवों की बानगी है. सूर्यपुत्र कर्ण इतिहास के सबसे उपेक्षित किरदारों में रहे हैं. पिछड़ी जाति में पले बढ़े कर्ण के जीवन संघर्ष की गाथा यह समूची रचना है जो दिनकर को काफी पसंद थी.
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संपूर्ण क्रांति का नारा बनी दिनकर की कविता
1975 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन में दिनकर की इस कविता को खूब गाया गया. उस समय देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था. दिनकर कहते थे कि उनकी बची उम्र भी जेपी को मिल जाए ताकि वो देश के लिए और काम कर सकें.
सदियों की ठंडी -बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद करो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
सम्मान पाती रचनाएं
अपनी लेखनी की धार से दिनकर लगातार जनता और सत्ता के बीच लोकप्रिय हो रहे थे. देश ने उन्हें हिंदी की सेवा करने के लिए उनकी रचना उर्वशी के लिए 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया. संस्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया. उन्हें भागलपुर विश्वविद्यालय का उप-कुलपति बनाया गया. भारत सरकार के हिंदी सलाहकार के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी.
हे भगवान मुझे मृत्यु दे दे
भागलपुर के तिलका मांझा विश्वविद्यालय से उप-कुलपति की नौकरी छोड़ने के बाद दिनकर आर्थिक संकटों से घिर गए थे. वो काफी परेशान रहने लगे थे. इसी दौरान उन्होंने दक्षिण के तिरुपति बालाजी मंदिर जाकर भगवान से मृत्यु मांगने का फैसला किया. वहां पहुंचकर उन्होंने रश्मिरथी का पाठ किया जो कई घंटों तक चला, जिसमें सैकड़ो लोग उन्हें सुनने आए. उसी रात सीने में तेज़ दर्द होने के कारण उनकी ह्रदय की गति रुक गई और हमारे बीच से एक प्रकाश बिखेरते सूर्य का अस्त हो गया.