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Friday, 29 March, 2024
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गुलशन नंदा: हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखक जिनके दर पर लगी रहती थी प्रकाशकों की कतार

हिंदी के लोकप्निय लेखक गुलशन नंदा को उनके मित्र और लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक याद करते हुए कहते हैं कि उनसा कोई और न हुआ.

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गुलशन नंदा का जो पहला नॉवेल मैंने पढ़ा था, वो ‘घाट का पत्थर’ था और तब मैं शायद 10वीं जमात में पढ़ता था. पढ़ने का मुझे हद से ज़्यादा शौक था, लेकिन मेरी पहली पसंद जासूसी नॉवेल ही होते थे. ‘घाट का पत्थर’ इसलिए पढ़ा क्योंकि कोई दूसरा, अपनी पहली पसंद का, नॉवेल हाथ न लगा. पढ़ा तो उस उम्र में जैसे जेहन पर जादू तारी हो गया.

मुझे लगा कि मैं नॉवेल नहीं पढ़ रहा था, दिलीप कुमार, कामिनी कौशल, केएन सिंह अभिनीत कोई फिल्म देख रहा था. ‘घाट का पत्थर’ नंदा जी का शायद पहला नॉवेल था लेकिन मेरा उनकी लेखनी से वास्ता पड़ने तक मार्किट में उन के दर्जन के करीब नॉवेल उपलब्ध थे. और नॉवेल तलाश किया तो ‘जलती चट्टान’ हाथ आया, और उसने भी पहले वाला ही जादुई असर मेरे पर छोड़ा. लगा कि मैं नॉवेल नहीं पढ़ रहा, फिल्म देख रहा हूं. स्कूल से मैं कॉलेज पहुंच गया, लेकिन नंदा जी को बदस्तूर पढ़ता रहा. तब तक मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं खुद लेखक बन जाऊंगा और ज़िन्दगी में कभी नंदा जी से मेरी रूबरू मुलाक़ात होगी.

ऐसा सन 1984 में हुआ.

एनडी सहगल एंड कम्पनी/अशोक पॉकेट बुक्स गुलशन नंदा के शुरुआती प्रकाशक थे जिन्होंने नंदा जी के पांच नॉवेल छापे थे और निरंतर पुनर्प्रकाशित किये थे. मैं अपने सरकारी दफ्तर में ड्यूटी बजा रहा था जब की दोपहर बाद प्रकाशक का, जोकि तब मेरा भी प्रकाशक था, फ़ोन आया कि मुंबई से नंदा जी आ रहे थे और उनका दिल्ली में पहला पड़ाव उनके यहां– शक्ति नगर में- था और अगर मैं उनसे मिलना चाहता था तो प्रकाशक के दौलतखाने पहुंचूं.

मैं दौड़ा गया और नंदा जी से मुलाक़ात और उनके साथ लंच में शिरकत करने का फख्र हासिल किया. नंदा जी मेरे से इतने प्रेमभाव से मिले कि पहली मुलाक़ात में ही मैं उनका मुरीद बन गया. तदोपरांत जब भी उनका दिल्ली आना हुआ, प्रकाशक के ज़रिए उन्होंने मुझे तलब किया और अपनी सोहबत का मुझे पूरा पूरा मौका दिया. मैं ख़ुशी से फूला नहीं समाता था कि भारत का पॉकेट बुक्स ट्रेड का सब से बड़ा लेखक मेरे जैसे अदना लेखक को अपना दोस्त तसलीम करता था.

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ऐसी तीन-चार मुलाकातें ही हुई थीं कि एक नामुराद सुबह खबर मिली की नंदा जी नहीं रहे.
16 नवम्बर 1985 को मुंबई में जब उनका निधन हुआ, तब हिंद पॉकेट बुक्स प्रकाशन में बतौर लोकप्रिय लेखक उनसे आगे कोई नहीं था. कहावत की तरह ये बात कही जाती थी कि अगर नंदा जी को पहले नंबर पर रखा जाये तो आगे की नौ जगह खाली दिखाई देना लाजमी था. लिहाजा उनके बाद कोई नाम काबिलेज़िक्र होगा तो 11वें नम्बर पर ही होगा.

फिल्मों में बेहद कामयाब एन्ट्री कर चुकने के बाद उनकी शोहरत को जैसे चार चांद लग गए थे. हर बड़ा प्रकाशक नंदा जी का नॉवेल छापने का तमन्नाई था लेकिन वो तो साल में एक उपन्यास लिखते थे, कैसे उस एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति से दो चार हो पाते! ये बात उनके भरपूर समझाने के बावजूद प्रकाशकों को हतोत्साहित नहीं करती थी, वो जबरन ये कहते हुए उनके के घर में लाखों रुपया नक़द एडवांस के तौर पर फेंक जाते थे कि ‘पैसा तो रखो, न लिख सको तो वापिस कर देना’. प्रकाशकों के बीच किसी लेखक की वैसी पूछ आज तक नहीं हुई.

फिर हिन्द पॉकेट बुक्स ने उनका उपन्यास ‘झील के उस पार’ ‘धर्मयुग’ के ज़रिए, इस अभूतपूर्व घोषणा के साथ छापा कि उसका पहला संस्करण ही पांच लाख प्रतियों का था. ये पॉकेट बुक्स ट्रेड में खलबली मचाने वाली बात थी जो वस्तुत: बड़ा बोल ही, पब्लिसिटी स्टंट ही, साबित हुई थी. बाद में बाजारिया प्रिंटर्स, बाइंडर्स ये बात खुली थी कि तीन लाख प्रतियां छपीं थीं और वो भी समूची नहीं बिक पायी थीं.

जानकार कहते हैं कि ये भी नंदा जी की कामयाब बिज़नेस स्ट्रेटेजी थी कि मार्किट में उनका साल में एक ही नॉवेल आये और इसी वजह से पूरा साल उसकी सेल बनी रहे क्योंकि क्या पुस्तक विक्रेता, क्या पाठक हर किसी को पहले से खबर होती थी कि साल से पहले नंदा जी का नया नॉवेल नहीं आने वाला था. ऐन इस वजह से पुस्तक विक्रेता की असल खपत जब 400 प्रतियों की होती थी, वो 1000 प्रतियों का आर्डर करता था क्योंकि जानता था कि नंदा जी का नॉवेल था, अंत-वंत तो बिक ही जाना था.

कहना न होगा कि लेखक अपना सालाना कोटा एक नॉवेल साल भर में तो लिखता नहीं होगा! 200 पृष्ठों का नॉवेल कोई भी लेखक बड़ी हद डेढ़ दो महीने में आराम से लिख लेता है. नंदा जी भी ऐसा ही करते होंगे लेकिन ये उनकी दूरदर्शिता थी, सब्र था, दानिशमंदी थी कि प्रसिद्धि के सर्वोच्च शिखर पर विराज चुकने के बाद उन्होंने कभी बेतहाशा लिखने की कोशिश नहीं की जब कि कई प्रकाशकों का भारी एडवांस हमेशा उनके काबू में होता था.

फिल्मों में उनका प्रवेश ‘काजल’ के ज़रिये हुआ था जो कि सन 1965 में रिलीज़ हुई थी और जो उनके पूर्वप्रकाशित उपन्यास ‘माधवी’ पर आधारित थी और सुपर हिट साबित हुई थी. तदोपरांत आने वाले 20 सालों में उन की कोई सवा दो दर्जन फ़िल्में आयीं जिन में से अधिकतर उनके पूर्वप्रकाशित उपन्यासों पर आधारित थीं. फिर उनकी कामयाबी के इस सिलसिले पर अंकुश लगना तब शुरू हुआ जब सलीम जावेद की जोड़ी ने बॉलीवुड में अपनी धमाकेदार एन्ट्री की जो की खास फिल्मों के लिए ही लिखते थे.

अपनी ज़िन्दगी में प्रकाशकों में और फिल्म निर्माताओं में अपनी टॉप की हैसियत को नंदा जी ने बाखूबी कैश किया. फिल्म निर्माताओं पर रोब था कि वो तो प्रिंट मीडिया की इतनी बड़ी तोप थे कि फिल्मों के लिए लिखना उनके लिए कतई ज़रूरी नहीं था और प्रकाशकों को कहते थे कि अपनी फ़िल्मी दुनिया की मकबूलियत के जेरेसाया वो तो प्रकाशकों पर एहसान कर रहे थे कि अभी भी जैसे-तैसे उनके लिए लिख रहे थे.

फिल्मों में उन्होंने बहुत नाम कमाया लेकिन उनके लेखन पर ये आक्षेप भी आया कि वो मौलिक लेखक नहीं थे. यहां तक कहा गया कि अब उनके नॉवेलों पर हिंदी फ़िल्में बनती थीं, पहले वो हिंदी फ़िल्में देख कर नॉवेल लिखते थे. मसलन उनके करियर की सब से कामयाब फिल्म ‘दाग’ को थॉमस हार्डी के उपन्यास ‘द मेयर ऑफ़ कैस्टरब्रिज’ पर आधारित बताया गया. उनकी उतनी ही मकबूल फिल्म ‘कटी पतंग’ को विलियम आयरिश के नॉवेल ‘आई मैरिड ए डेड मैन’ की नक़ल बताया गया. ‘जोशीला’ को जेम्स हेडले चेज़ के उपन्यास ‘वेरी ट्रांसग्रेसर’ से मिलती-जुलती करार दिया गया, वगैरह.

इन आक्षेपों के विरुद्ध एक बार तो उन्होंने बड़ा दिलेरी का रुख अख्तियार किया. ‘फिल्मफेयर’ के ज़रिये किसी ने उन पर इल्ज़ाम लगाया कि उनकी फलां फिल्म, फलां फिरंगी लेखक के उपन्यास पर आधारित थी तो अपने माउथपीस की मार्फ़त उन्होंने ‘फिल्मफेयर’ में ही छपवाया कि हो सकता है उस लेखक ने नंदा जी की नकल मारी हो. मुझे आज भी एग्ज़ेक्ट फ्रेज़ याद है – May be it is the other way round.

बहरहाल नंदा जी लेखक कैसे भी थे, अपनी किस्म के एक ही थे. आज भी– उनके अवसान के 33 साल बाद भी- हिंदी लोकप्रिय साहित्य के इतिहास में उनका मुकाम इतना बुलंद है कि कोई लेखक उसके करीब भी नहीं पहुंच पाया है.

लोकप्रियता में ही नहीं, बिक्री में भी उनके स्थापित कीर्तिमान को कोई लेखक नहीं छू पाया है – आप का खादिम भी नहीं. ये भी काबिलेज़िक्र बात है कि उन की इस फानी दुनिया से रुखसती की खबर जब दिल्ली पहुंची थी तो दिल्ली का शायद हो कोई प्रकाशक था जो उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए तुरंत मुंबई रवाना नहीं हो गया था. केवल 56 साल की आयु में इतने महान और प्रतिष्ठित लेखक का दुनिया छोड़ जाना अत्यंत दुखद था.

‘न भूतो न भविष्यति:’ गुलशन नंदा जी को मेरा सदर नमन.

(सुरेंद्र मोहन पाठक लोकप्रिय लेखक हैं.)

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