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Friday, 22 November, 2024
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साधारण चेहरे वाले ओम पुरी थे एक असाधारण कलाकार जिसने सिनेमा के हर फॉर्मेट पर राज किया

ओम पुरी उन विरले अदाकारों में हैं जिन्होंने संजीदा और हास्य दोनों तरह की भूमिका के साथ न्याय किया. हेरा फेरी, मालामाल वीकली, चाची 420 जैसी फिल्में इसका प्रमाण हैं.

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‘जो कला लोगों तक न पहुंच सके, जिसका सामाजिक उद्देश्य न हो, मैं उसे कला नहीं मानता.’ इस बात को सिनेमाई पर्दे के अलावा असल जिंदगी में भी ओम पुरी ने कई बार कही थी. फिल्म पार्टी (1984) में पत्रकार अविनाश का किरदार निभा रहे ओम पुरी ने कहा था, ‘मेरे विचार में हर कलात्मक रचना- कविता, नाटक उपन्यास या फिल्म- जिसके ज़रिये जनता के साथ विचार की सतह पर जुड़ सकते हैं, सामाजिक या राजनैतिक संघर्ष में एक हथियार है.’

यही विचार उनके द्वारा निभाए गए सैंकड़ों किरदारों में झलकते हैं. करीब चार दशक के लम्बे करिअर में ओम पुरी ने ऐसे कई किरदार निभाए जिसने सामाजिक मुद्दों को छुआ और दर्शकों को सोचने पर मजबूर किया. अपनी अदाकारी के ज़रिये वो कई बार हाशिये पर रह रहे लोगों की आवाज़ बने. चाहे वो ‘सिटी ऑफ़ जॉय’ में रिक्शे वाले का किरदार हो या ‘सुस्मन’ में एक बुनकर का किरदार- वो हर रूप में ढल जाते थे.

करीब 300 से ज्यादा फिल्मों में अपनी अदाकारी का जादू बिखेरने वाले पुरी सही मायनों में बहुमुखी थे. हास्य, ड्रामा, संजीदा, आर्ट सिनेमा या कॉमर्शियल सिनेमा- कोई ऐसी जगह नहीं जहां उन्होंने अपनी छाप नहीं छोड़ी. अपनी गंभीर आवाज़, बोलती आंखों और डूब कर निभाए गए किरदारों के ज़रिये वो फ़िल्मी परदे पर छा जाते थे. उनका किरदार चाहे मुख्य हो या सहायक- सिनेमा घर से बाहर निकलता दर्शक इस कलाकार को आसानी से नहीं भूलता था.

अगर आज ओम पुरी जीवित होते तो 69वां बसंत मना रहे होते. उनकी सालगिरह के मौके पर हम आपको इस शानदार कलाकार के जीवन और फिल्मों के सफर से रूबरू करा रहे हैं.

साधारण चेहरा, असाधारण प्रतिभा

18 अक्टूबर 1950 को अम्बाला में जन्मे ओम पुरी का बचपन बहुत मुश्किलों में बीता. जब पिता झूठे चोरी के इल्ज़ाम में जेल चले गए तो मां का गुज़ारा करना बहुत मुश्किल हो गया. परिवार गरीबी के चंगुल में फंस गया. पुरी एक इंटरव्यू में बताते हैं, ‘मां ने मुझे चाय की दुकान पर काम करने के लिए यह सोच कर भेजा की कम से कम एक वक़्त का खाना मिल जायेगा. बुरे वक़्त में मैंने ढाबे पर बर्तन भी धोये.’ गरीबी इस कदर थी कि पुरी और उनके भाई रेलवे ट्रैक पर गुज़रती रेलगाड़ियों से गिरा थोड़ा बहुत कोयला इकठ्ठा करके बेचा करते थे.


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अपनी स्कूली पढ़ाई करने के बाद ओम पुरी ने इवनिंग कॉलेज में दाखिला ले लिया. दिन में वो उसी कॉलेज में लैब असिस्टेंट का काम करके थोड़े पैसे कमाते और शाम को पढ़ाई करते. ‘एक बार मैंने कॉलेज के यूथ फेस्टिवल में एक नाटक में भाग लिया जिसमें मुझे पहला इनाम मिला. निर्णायक मंडल में पंजाब कला मंच के प्रसिद्ध रंगकर्मी हरपाल तिवाना भी मौजूद थे. उन्होंने मुझसे पूछा की तुम हमारी नाटक कंपनी ज्वाइन क्यों नहीं करते? मैंने जवाब दिया कि मैं दिन में काम करता हूं और 125 रुपए कमाता हूं. तिवाना जी ने कहा मैं तुम्हे 150 दूंगा. बस वहीं से ये सफर शुरू हो गया.’

बाद में सरकारी क्लर्क की नौकरी छोड़ ओम पुरी नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (एनएसडी) में आ गए.

चेचक के दागों से भरा हुआ एक साधारण सा चेहरा, चपटी नाक, बोलचाल में पंजाबी का प्रभाव लिए ओम के लिए एक्टर बनने की राह कतई आसान नहीं थी. अपने एनएसडी के दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं पंजाबी माध्यम स्कूल से आया था. अंग्रेज़ी बोलनी समझनी बिलकुल नहीं आती थी. मैं एनएसडी से भाग जाना चाहता था. पर मेरे गुरू इब्राहिम अल्काज़ी ने मुझे समझाया की मैं ये कर सकता हूं. साथ ही भरोसा दिया कि अगर कुछ समझ न आए तो पूछ लेना.’ फिर पुरी ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

एनएसडी के बाद पूरी ने एफटीआईआई पुणे में दाखिला लेने के लिए ऑडिशन दिया. पत्नी नंदिता पुरी ओम के जीवन पर लिखी हुई अपनी किताब ‘अनलाइकली हीरो’ में ज़िक्र करती हैं की पैनल ने उन्हें देखकर उस वक़्त कहा था कि उनका चेहरा न तो ‘हीरो जैसा है, न विलेन और न ही कॉमेडियन’.

ओम पुरी ये बात जानते थे कि साधारण चेहरे मोहरे के बल पर वो पारम्परिक सिनेमा में अपनी जगह मुश्किल से बना पाएंगे. उन्होंने कहा था, ‘इसलिए मैं श्याम बेनेगल को छोड़ किसी निर्देशक के पास नहीं गया.’


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श्याम बेनेगल के साथ पुरी ने कई फिल्मों में काम किया. पुरी बेहद मेहनती, काबिल और समर्पित कलाकार थे और उनकी इसी बात के श्याम बेनेगल कायल थे. उन्होंने एक बार कहा था, ‘1981 में हमने पहली बार एक फीचर फिल्म में एक साथ काम किया था जिसमें उनका मुख्य किरदार था. ‘आरोहण’ कि शूटिंग कलकत्ता में हुई थी. ओम ने शानदार अभिनय किया जिसके लिए उन्हें अपना पहला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.’

आर्ट और कमर्शियल सिनेमा का तालमेल

विजय तेंदुलकर के नाटक पर आधारित ‘घासीराम कोतवाल’ से अपने अभिनय कि शुरुआत करने वाले पुरी ने हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों में काम किया. गोविन्द निहलानी, सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल जैसे दिग्गजों की छत्रछाया में उन्होंने कई यादगार किरदारों को परदे पर उतारा. चाहे ‘अर्ध सत्य’ में ईमानदारी और भ्रष्ट व्यवस्था के बीच जूझते पुलिस अफसर का किरदार हो या ‘जाने भी दो यारों’ में बेईमान बिल्डर की भूमिका, ओम पुरी हर किरदार में ढल जाते थे. अपने अभिनय को सत्यता कि सतह तक ले जाने के लिए उन्होंने सिटी ऑफ़ जॉय के लिए कलकत्ता की गलियों में रिक्शा चलाया, सुस्मन के लिए कपड़ा बुनना और चाइना गेट के लिए घोड़ा चलाना तक सीखा.

पर सिर्फ आर्ट सिनेमा से उनका गुज़ारा नहीं होने वाला है, ये बात भी वो अच्छी तरह से जानते थे. ‘आर्ट फिल्मों में काम कर कोई घर नहीं खरीद सकता. मुंबई जैसे शहर में आराम की ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए पैसों कि दरकार हमेशा रहेगी. इसलिए आर्ट और कॉमर्शियल सिनेमा के बीच समझौता करना ज़रूरी था.’ एक इंटरव्यू में ओम ने ये बात कही थी. उनका ये भी मानना था कि सिनेमा ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचने का एक सशक्त माध्यम है. ‘अगर मैं अर्ध सत्य या तमस नाटक के ज़रिए लोगों तक जाना चाहता तो मेरी पूरी ज़िन्दगी इसी में निकल जाती.’

ओम पुरी उन विरले अदाकारों में से हैं जो संजीदा और हास्य- दोनों तरह की भूमिका के साथ न्याय कर पाए. हेरा फेरी, मालामाल वीकली, चाची 420 जैसी फिल्में इसका प्रमाण हैं.


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पंजाब से हॉलीवुड तक

अंग्रेजी न समझने वाला एक कलाकार बाद में अंग्रेजी फिल्मों में भी नाम कमाए- ये किसी के लिए एक सपने जैसा ही होगा. पर ओम पुरी की ये कहानी प्रेरणा देने वाली है. आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर पाने वाले वो पहले भारतीय थे. उनकी फिल्म ‘ईस्ट इज ईस्ट’ के लिए उन्हें बाफ्टा पुरुस्कारों में भी नॉमिनेट किया गया था जो किसी भारतीय के लिए पहला मौका था. ये फिल्म पुरी के अंतर्राष्ट्रीय करिअर के लिए एक अहम पड़ाव साबित हुई. अमेरिकन फिल्मकार बेट्टी जॉर्डन ने एक बार लिखा था, ‘ईस्ट इज ईस्ट’ की खूबी इसका अभिनय है. खासतौर पर जॉर्ज के किरदार में ओम पुरी शानदार हैं…एक रूढ़िवादी पिता के किरदार में वो सौम्यता लेकर आते हैं. जब जॉर्ज का संसार बिखरने लगता है तो दर्शक खुद-ब-खुद उसके लिए सहानुभूति महसूस करते हैं.’

अपनी मृत्यु के मात्र एक महीने पहले उन्होंने ट्वीट किया था, ‘मुझे ज़िन्दगी में कोई मलाल नहीं है. मैंने अच्छा काम किया है. मेरे पास एक असाधारण चेहरा नहीं था- उसके बावजूद मैंने नाम कमाया और मुझे इस पर गर्व है.’

जिसने भी ओम पुरी को परदे पर जादू बिखेरते देखा है, वो इस बात से ज़रूर सहमत होगा.

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