आज की तारीख में केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एंव परिवार कल्याण मंत्रालय ने संसद द्वारा पारित इंडियन काउंसिल ऐक्ट 1947 की धारा 3 (1) के तहत ‘इंडियन नर्सिंग काउंसिल’ की स्थापना कर रखी है, जो स्वायत्तशासी संस्था के रूप में देश भर में नर्सिंग की समान शिक्षा के लिए मॉनिटरिंग और नये नर्सिंग स्कूलों व कॉलेजों की स्थापना के लिए दिशा-निर्देश देने का काम करती है. यह काउंसिल देश में नर्सिंग शिक्षा की बाबत केन्द्र व विभिन्न राज्य सरकारों को परामर्श देती और कोई संस्थान उसके निर्धारित नियमों का पालन नहीं करता तो उसकी मान्यता समाप्त कर देती है. यह सब इसलिए संभव हुआ है कि आज देश में नर्सिंग को वांछित सम्मान, स्वीकृति और स्थान प्राप्त है और उसका समय के साथ नई बुलन्दियां छूना सुनिश्चित करने के लिए उसके नियमन की जरूरत महसूस की जाती है.
लेकिन, हमेशा ऐसा नहीं था. अभी बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक हालत यह थी कि नाना प्रकार की गुलामियों और रूढ़ियों से एक साथ पीड़ित भारत का समाज न सिर्फ नर्सिंग को हिकारत की निगाह से देखता था, बल्कि उसकी राह में कांटे भी बिछाता रहता था. इसके पीछे छिपी मानव सेवा और समर्पण की भावना को देखना उसे कतई गवारा नहीं था. अपनी बेटियों व बहुओं को नर्सिंग का प्रशिक्षण लेने की इजाजत देने की बाबत तो वह सोचता तक नहीं था.
यह सोचना उसे आज भी इस रूप में शायद ही गवारा होता, अगर 25 जनवरी 1862 को महाराष्ट्र की सतारा रियासत के सांगली जिले के छोटे से गांव देवराष्ट्रि में पैदा हुई रमाबाई रानाडे ने देश के समाज में नर्सिंग को समुचित स्वीकृति दिलाने के बहुविध प्रयत्न शुरूकर उन्हें मंजिल तक न पहुंचाया होता.
उन मुश्किल भरे दिनों में रमाबाई ने भारत को नर्सिंग को अच्छी निगाह से देखना सिखाने के लिए कैसे-कैसे पापड़ बेले, कितने कांटे बुहारे और कितनी चुनौतियों का सामना किया, आज इसकी कल्पना भी मुश्किल है. इन मुश्किलों ने खत्म होते-होते उन्हें ‘भारतीय नर्सिंग की नर्स’ के रूप में प्रसिद्धि दिला दी थी, लेकिन दुःख की बात है कि भारतीय नर्सिंग के अच्छे दिनों में उसकी इस ‘नींव की ईंट’ को एकदम से बिसरा दिया गया है. इस कदर कि उसकी जयंतियों और पुण्यतिथियों पर भी उसे याद नहीं किया जाता.
बहरहाल, रमाबाई के इन प्रयत्नों की शुरुआत 1908 में हुई. उनके सामाजिक कार्यों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले पति न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे के देहांत के सात बरस बाद.
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पति को खोने के बाद रमाबाई ने सामाजिक गतिविधियों से खुद को अलग कर लिया
जानकारों के अनुसार पति को खोने के बाद रमाबाई ने खुद को प्रायः सारी सामाजिक गतिविधियों से अलग कर लिया था, लेकिन उनके कार्यों से प्ररणा लेने वाले मुम्बई के दो समाजसेवियों-तलबरी व गिडूमल-ने मुम्बई में ‘सेवासदन’ की स्थापना की और रमाबाई को उसका आजीवन सलाहकार व अध्यक्ष बनाना चाहा तो वे मना नहीं कर सकीं.
शुरुआती दिनों में सेवासदन का उद्देश्य स्त्रियों में आपसी सहयोग बढ़ाना, शिक्षा के माध्यम से उनके व्यक्तित्व की विकास करना व सामाजिक कार्यों की प्रेरणा देना था. रमाबाई का हिंदू महिलाओं का क्लब पुणे में पहले से यही काम कर रहा था.
लेकिन 1909 में सेवासदन की एक शाखा ने पुणे में काम शुरू किया और उसमें एक स्कूल भी खुला तो रमाबाई ने उसे देश की एक बड़ी समस्या के समाधान का अस्त्र बनाने का सपना देख डाला और 1911 आते-आते उसमें स्त्रियों को नर्सिंग व प्रसूति की शिक्षा व प्रशिक्षण की व्यवस्था करा दी. रमाबाई चाहती थीं कि सेवासदन जल्दी से जल्दी इतनी प्रशिक्षित नर्सें उपलब्ध करा दे कि उनकी कमी के कारण हर साल बड़ी संख्या में होने वाली बीमार स्त्री-पुरुषों व गर्भवतियों की मौते रुक जायें. पर एक मुश्किल थी. चूंकि नर्सिंग को तब अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था इसलिए अव्वल तो परम्परावादी स्त्रियां उसका प्रशिक्षण लेने के लिए आगे ही नहीं आती थीं, दूजे, आती भी थीं तो ऐसी, जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी. पहले सत्र में जो 12 स्त्रियां प्रशिक्षण लेने आई, उनमें ग्यारह विधवाएं थीं.
भाषा की समस्या का हल तो रमाबाई ने मराठी में शिक्षण व प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम बनवाकर ढूंढ़ लिया. लेकिन जल्दी ही उन्होंने देखा कि उनके द्वारा प्रशिक्षित नर्सें पुरुष रोगियों के उपचार को लेकर सहज नहीं रहतीं या कि एक हिच से भरी रहती हैं. ऐसी कई नर्सों से वे पूछतीं-तुम्हारे घर में पिता या भाई नहीं हैं क्या? बीमार होने पर तुम उनकी सेवा-सुश्रूषा नहीं करतीं क्या? फिर पुरुष मरीजों में तुमको पिता या भाई क्यों नहीं दिखते?
लेकिन आगे एक और समस्या उनका इंतजार कर रही थी. वे चाहती थीं कि नर्सों में हर मरीज के समुचित उपचार व संपूर्ण देखभाल की भावना हो और वे जाति, धर्म, पंथ या वर्ग के आधार पर उनमें भेदभाव न करें. लेकिन नर्सों के सामने धर्मसंकट था कि वे ये भेदभाव न भुलातीं तो अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पातीं और भुलातीं तो उनके रूढ़िवादी परिजन उन्हें घर से निकाल देते. कोई और होता तो इस विकट परिस्थिति के समक्ष हथियार डाल देता, लेकिन रमाबाई ने इसका भी तोड़ निकाल लिया, सेवासदन में एक छात्रावास खोलकर. फिर तो उन्होंने अपने जीवनकाल में ही हजारों नर्सों का प्रशिक्षण सम्पन्न कराकर उन्हें सेवा के काम में लगाया.
रमाबाई ने दूसरे कई क्षेत्रों में भी अपनी तरह से अतुलनीय सेवाएं दी हैं. मसलन, उन्होंने स्त्रियों के लिए अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के आंदोलन तो हिस्सा लिया ही, 1921-22 में उनके मताधिकार के प्रश्न पर हुए आंदोलन में भी पीछे नहीं रहीं. उनके अनुसार वह आंदोलन केवल स्त्रियों के वोट देने के अधिकार का ही नहीं, राजनीतिक सुधारों की प्रक्रिया में उन्हें पुरुषों के बराबर प्रतिनिधित्व दिलाने का भी था जो आज भी किसी न किसी रूप में जारी है.
उनके जीवन संघर्षों की ओर जायें तो 1873 में जब वे 11 साल की ही थीं, 32 वर्षीय विधुर जज महादेव गोविन्द रानाडे से ब्याह दी गईं. कहते हैं कि खुद रानाडे इस शादी से खुश नहीं थे, क्योंकि वे अपनी ही जैसी किसी विधवा को जीवनसंगिनी बनाना चाहते थे. लेकिन शादी हो गई तो पता चला कि बालिका वधू और विधुर दूल्हे में कम से कम एक समानता है-दोनों दृढ़ निश्चयी हैं.
ऐसे ही एक दृढ़ निश्चय के तहत रानाडे ने रमाबाई को घर पर ही पढ़ाना शुरू किया, तो संयुक्त परिवार की स्त्रियों में दोनों मजाक के पात्र हो गये. रमा के विरुद्ध तो वे सबकी सब एकजुट रहतीं. मराठी कविताएं पढ़ते समय रमा धीरे से पढ़तीं तो रानाडे नाराज हो जाते और जोर से पढ़तीं तो उच्चारण दोषों के कारण घर की उन स्त्रियों को हंसी उड़ाने का बहाना दे बैठतीं, जो उनकी ओर ही कान लगाये रहती थीं. उनकी मानें तो जिन दिनों वे पति से अंग्रेजी सीख रही थीं, इन स्त्रियों के सामने पड़ने से भी डरती थीं.
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कम उम्र रमा की समझदारी देखिये कि उन्होंने परिजनों के विरोध, महत्वाकांक्षी पति के थोपे अनुशासन और ढेर सारे घरेलू दायित्वों से एक साथ जूझकर भी अपनी पढ़ाई में कोई व्यवधान नहीं आने दिया. उनको थोड़ी सुविधा के दिन तब नसीब हुए जब रानाडे को नासिक स्थानांतरित कर दिया गया. 1881 में उनके साथ मुम्बई आ जानेे तक रमा इतना पढ़-लिख चुकी थीं कि स्त्रियों की शिक्षा के उद्देश्य से आयोजित की जाने वाली प्रार्थना समाज की बैठकों में अपने विचार व्यक्त कर सकतीं.
बाद में आर्य महिला समाज को बनाने व चलाने में उन्होंने पंडिता रमाबाई को भरपूर सहयोग दिया. रमाबाई रानाडे के संघर्षों की मिसाल इस अर्थ में भी बेमिसाल है कि वे जीवन भर ऐसी प्रतिकूलताओं से लड़ती रहीं, जिनमें केवल इतनी अनुकूलता थी कि पति रानाडे उनके सच्चे हमराह थे.
निरक्षर रमा का आत्मसम्मान इतना जागा कि वे लेखिका बन गईं और अनेक पुस्तकों की समीक्षा के साथ अपनी आत्मकथा लिख सकीं तो इसके पीछे उनके पति के प्रगतिशील सोच की भी बड़ी भूमिका थी. कृतज्ञ रमा ने इसीलिए उनके निधन के बाद उनके व्याख्यानों का संकलन प्रकाशित किया, जिसका नाम था-‘धर्म’.
1962 में रमाबाई के जन्म शताब्दी वर्ष में 15 अगस्त को डाक विभाग ने उनकी याद में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया था. यही एक तथ्य है जो किसी को यह कहने से रोक सकता है कि 1924 में अपनी खामोश मौत के बाद हमारे कृतघ्न देश या समाज में वे किसी की भी यादों में नहीं रह गई हैं.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)