राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 1925 में अपने स्थापना वर्ष से ही लगातार कई गंभीर सवालों के घेरे में रहा है. बतौर संगठन उसने इन सवालों के जवाब देने की कोशिशें भी की लेकिन एक बड़े डिस्कॉर्स में हमेशा उसे संदेह की नज़र से ही देखा गया. इसके पीछे कई कारण भी हैं. जैसे महात्मा गांधी की मृत्यु में संघ की क्या भूमिका थी, देश को हिंदू अतिवाद के सांप्रदायिक विमर्श में घसीटना और लगातार हिंदू राष्ट्र की बात कर समाज के एक संप्रदाय को नीचा दिखाने की कोशिश. इन सवालों पर कमोबेश संघ को घेरा जाता रहा है.
इन सवालों के और देश-समाज में उसकी भूमिका के इतर संघ की लगभग 100 वर्षों की यात्रा पर नज़र दौड़ाना मौजूदा दौर में काफी जरूरी है. इसके पीछे वर्तमान समय में एक बड़ा कारण तो यही है कि देश की सत्ता की कमान संभाले व्यक्ति यानी कि प्रधानमंत्री खुद आरएसएस के प्रचारक रहे हैं. और देश के कई महत्वपूर्ण संस्थानों पर भी संघ के लोगों का हस्तक्षेप बढ़ा है.
इस हिसाब से देखें तो संघ की यात्रा और भी दिलचस्प हो जाती है, न सिर्फ एक संगठन के तौर पर बल्कि उसके अक्ष में जो उसने दशकों से देश की राजनीति को प्रभावित किया है, उस नज़रिए से भी.
इन्हीं सवालों और काफी हद तक इनके जवाब वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी अपनी हालिया किताब ‘आरएसएस- संघ का सफर: 100 वर्ष ‘ में देने की कोशिश करते हैं और भविष्य के लिए पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाते हैं जिसका उत्तर ठीक-ठीक अभी दे पाना तो मुश्किल है लेकिन मौजूदा लीक भविष्य को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका जरूर निभाएगी.
इस किताब में पुण्य प्रसून संघ की विचारधारा, उसके संविधान, सफर, चुनौतियों, हिंदुत्व के प्रश्न, संघ पर लगे प्रतिबंध, संगठन के भीतर के अंतर्विरोधों, राजनीतिक प्रश्न और संघ के बदलते सरोकारों को टटोलने का काम करते हैं.
हेडगेवार और हिंदुत्व
संघ की शुरुआत केशव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में की थी. गौरतलब है कि हेडगेवार पहले कांग्रेस के सदस्य रहे और लंबे समय तक उससे जुड़े रहने के बाद ही उन्होंने संघ की नींव रखी जिसके केंद्र में हिंदुओं को एकजुट कर हिंदू राष्ट्र का विचार था.
लेकिन हेडगेवार जिस हिंदू राष्ट्र के सपने को एक संगठन तैयार कर खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे क्या वो संघ के 100 वर्षों के बाद भी वैचारिक तौर पर उस धरातल तक पहुंच सका है. या समय के साथ-साथ हिंदुत्व के उस विचार के साथ ही संगठन ने समझौता कर लिया जिसे हेडगेवार सींचना चाहते थे.
मौजूदा समय में बार-बार ये प्रश्न उठता है कि जिस अति हिंदुत्व के कारण कई घटनाएं सामने आ रही हैं क्या उस विचारधारा की नींव हेडगेवार ने रखी थी. क्योंकि उसी दौर में तो विनायक दामोदर सावरकर भी हिंदुत्व की लीक तय कर रहे थे और इसके लिए बकायदा उन्होंने ‘हिंदू कौन ‘ नाम से किताब भी लिखी.
प्रसून अपनी किताब में लिखते हैं, ‘सावरकर हिंदुत्व को धर्म से जोड़ रहे थे और हेडगेवार हिंदुत्व को धर्म से जोड़ने के खिलाफ थे.’
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अंतर्विरोधों के बीच संघ
अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता के दौरान स्वेदशी जागरण मंच सरकार की आर्थिक नीतियों (एफडीआई) का खुलकर विरोध कर पा रहा था लेकिन प्रचारक से प्रधानमंत्री बने मोदी के दौर तक आते-आते वो कुछ बोल सकने की स्थिति में नहीं है. बीते कुछ महीनों से देश के किसान कृषि कानूनों को लेकर अपना विरोध जता रहे हैं लेकिन संघ की ही मजदूर ईकाई भारतीय मजदूर संघ की उपस्थिति कहीं दिखती नहीं है.
दिलचस्प तो ये है कि बीएमएस को पहचान दिलाने वाले संघ के प्रचारक रहे दत्तोपंत ठेंगडी की ये जन्मशताब्दी है. तो इस मौके पर कोटा के एक कार्यक्रम में मंगलवार को संघ प्रमुख मोहन भागवत ने ये कहा कि खेती केवल पैसा कमाना भर नहीं है बल्कि ये हमारे लिए धर्म है. यानी एक तरफ तो मौजूदा सत्ता को वैचारिक बल देता आ रहा संघ खेती को धर्म बताने से पीछे नहीं हटता लेकिन उसी संगठन से निकला प्रचारक जब राजनैतिक स्वयंसेवक बन प्रधानमंत्री तक हो जाता है तो वो किसानी का कोरपोरेटाइजेशन करने से भी नहीं चूकता. संगठन के भीतर के इन्हीं अंतर्विरोधों को टटोलने का काम प्रसून की किताब करती है.
यानी ये समझा जा सकता है कि संघ की जब सत्ता में मौजूदगी नहीं होती है तो वो वैचारिक कैप्सूल के जरिए सामाजिक आधार खोजता है लेकिन सत्ता मिलते ही उसकी विचारधारा भी करवट लेने लगती है. और इसी अंतर्द्वंद के बीच संघ को बीते कई दशकों में फंसता हुआ दिखाने की कोशिश ये किताब करती है.
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क्या संघ के लिए खतरा बन गए हैं मोदी
संघ के सफर पर अगर नज़र डालें तो संगठन के भीतर ही कई तरह के अंतर्विरोध रहे हैं. हालांकि ये अंतर्विरोध कई बार वैचारिक तौर पर भी सामने आया जब सत्ता की सोच तले संघ ने खुद को नतमस्तक कर दिया.
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही अगर बात कर लें तो जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे उसी समय 2002 में गोधरा दंगे हुए और तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म का पालन करने की नसीहत तक दी. मोदी को मुख्यमंत्री पद से वाजपेयी हटाना चाहते थे लेकिन उस समय संघ ने जिस रूप में मोदी का साथ दिया और गोवा में जो कुछ हुआ वो भी किसी से छुपा नहीं है.
तो फिर आज मोदी के विशालकाय व्यक्तित्व के सामने संघ खुद को बोना होता देख रहा है. क्योंकि इस दौर में जब संघ की नीतियों के उलट ही उसके राजनैतिक स्वयंसेवक की नीति हो गई है तो वैसे में उसकी भूमिका किसा रूप में होगी? ये काफी गंभीर सवाल है. लेकिन लोगों को लगता है कि जब संघ के स्वयंसेवक की सत्ता है तो उसे क्या खतरा होगा लेकिन थोड़ा गहराई से सोचने पर स्थिति उलट जान पड़ती है.
प्रसून यही सवाल उठाते हैं कि संघ जिस रूप में अभी खुद को देख रहा है जहां सत्ता के सामने उसे भी नतमस्तक होना पड़ गया है तो ऐसे में क्या भाजपा की सियासत सिमटने की स्थिति में संघ फिर से जनसंघ और उसके बाद भाजपा जैसा प्रयोग करेगा? ये सोचने वाली बात है. न सिर्फ संघ पर दृष्टि रखने वाले लोगों को बल्कि संगठन के भीतर के लोगों को भी. और इस क्रम में कुछ उलझनों को जरूर प्रसून की किताब सुलझाने का काम कर सकती है.
हालांकि अगर इस किताब की खामियों की बात करें तो इसमें पाठकों को संघ की बदलती स्थिति का तो जिक्र मिलेगा लेकिन संगठन के भीतर की विस्तृत जानकारी नहीं मिल सकेगी. किताब एक तरह से संघ को देखने और समझने की एक छोटी सी दृष्टि देती है पर संगठन के भीतर के कई और तहों की गहराई से पड़ताल नहीं करती. साथ ही संपादन के स्तर पर ये किताब काफी कमज़ोर जान पड़ती है.
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