दिल्ली-एनसीआर से सटे एक इलाके के एक घर में एक रोज़ रात में फोन की घंटी बजती है. दूसरी तरफ से आवाज़ आती है- मैं अनसूया. इतना सुनते हुए एक पूरा का पूरा सफर अर्जुन कुमार के सामने से गुज़रने लगता है. पास में उसकी पत्नी अर्चना खड़ी है…न चाहते हुए भी वो अनजान बनने की कोशिश करता है. कैसे बताए कि उसकी पूर्व प्रेमिका का फोन है लेकिन जब अनसूया अपने फोन करने का कारण बताती है तब जाकर कहानी अपने प्लॉट में प्रवेश करती है.
बिहार-उत्तर प्रदेश के सिमाहने पर बसा देवरिया का नोमा कस्बा. अचानक से एक व्यक्ति गायब हो जाता है. गायब होने वाला व्यक्ति अनसूया का पति है. इसलिए अनसूया ने एक रात फोन कर अर्जुन कुमार को बताया था कि उसका पति घर नहीं लौटा है. वो परेशान है. किससे मदद मांगू…ये सोचते हुए उसने अर्जुन से मदद मांगी जिसका नंबर उसे वर्षों पहले किसी पत्रिका में लिखे उसके किसी लेख से मिला था.
अर्जुन नोमा जाता है. एक ऐसे शहर में आता है जहां पर राजनैतिक-सामाजिक और व्यवस्थायी गठजोड़ इतना मजबूत है कि किसी को फर्क नहीं पड़ता कि कोई छोटे से कस्बे से गुम हो गया है. शायद ये भी कह सकते हैं कि इसी मजबूत गठजोड़ के कारण व्यक्ति गुम कर दिया गया. गुम होने वाले व्यक्ति का नाम रफीक है. उसी की पत्नी है अनसूया.
इन दो नामों के जरिए जो तस्वीर आपके सामने उभर रही है और क्या कुछ हो पाने की संभावना हो सकती है वही लेखक इस कहानी के जरिए बताना भी चाहता है. लेकिन संकेतों की सटीकता के जरिए वर्तमान के सामाजिक हकीकत को उभार देता है.
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पन्ने दर पन्ने ऐसी कई बातें लिखी हैं जो चेहरे पर मुस्कान ला देती हैं. अचानक मन खुश सा होने लगता है और फिर जिस कारण से उपन्यास का प्लॉट तैयार किया गया है वहां की ओर मन और दिमाग के साथ देह भी कूच कर जाता है. हम खुद को कहानी के सफर में पाने लगते हैं. ये जानते हुए कि न अर्चना, न अर्जुन और न ही अनसूया से हमारा कोई रिश्ता है.
रफीक एक कॉलेज में एड-हॉक शिक्षक है. कई सालों से स्थायी होने की लड़ाई लड़ रहा है. साथ में विश्व के कई भाषाओं की उपन्यासों को पढ़ता है और अपने रंगमंच की टोली के जरिए उसे प्रदर्शित करता है. नाटकों के सहारे व्यवस्था पर सवाल खडे़ करता है. एक छोटे से कस्बे में पढ़ने-पढ़ाने और कला की संस्कृति से उसे प्रदर्शित करना ही एकबारगी बड़ी बात सी लगती है. लेकिन यही हिस्सा उपन्यास के लिए प्लॉट की गई जमीन को मजबूत बनाती है जिसके इर्द-गिर्द ही कहानी घूमती है.
अर्जुन नोमा पहुंचकर रफीक का पता लगाने की कोशिश करता है जहां उसका सामना पुलिसिया व्यवस्था, रसूखदार लोगों की राजनैतिक ताकत और मुखबिरों से होती है. व्यवस्था उसे ये यकीन दिला देती है कि ये मामला गुमशुदगी का नहीं है बल्कि लव जिहाद का है. जहां रफीक हिंदू लड़कियों को झांसा देने का काम कर रहा है. तभी तो उसकी रंगमंच की टोली की एक सदस्य जानकी भी गायब हो गई है.
उधर, अनसूया जो हिम्मत कर रफीक के साथ शादी करने के बाद हरियाणा से दूर यूपी-बिहार की सीमा पर बसे एक कस्बे आकर बसी थी….उसके पास रफीक के सिवा कुछ भी तो नहीं है. वो भी अब गायब हो चुका है और पुलिस एफआईआर तक नहीं लिख रही है.
व्यवस्था पर सवाल उठाते ही व्यक्ति का गुम हो जाना और उसकी गुमशुदगी को सांप्रदायिक लिबास में उढाना और ये दिखाना कि सबकुछ सामान्य है….यही इस उपन्यास के लिखने की बैचेनी को दर्शाता है.
एक गल्प तैयार किया जाता है जिसे वैधानिक रूप देने में पूरी व्यवस्था एक साथ हो जाती है. तभी तो लेखक ने किताब की शुरुआत में ही लिखा है, ‘वैधानिक गल्प में जो कुछ भी है काल्पनिक है. जो काल्पनिक है वह तो काल्पनिक है ही लेकिन जो सच है वह भी काल्पनिक है. व्यक्ति, कथा, शहर, घटनाएं अगर कहीं आपको सच लगती प्रतीत होती हैं तो उसे कल्पना-दोष मानकर आगे बढ़ें.’
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राजकमल प्रकाशन से छपी किताब के लेखक चंदन पाण्डेय जिसे कल्पना कह रहे हैं वो आज की हकीकत है. हमारे समाज में पैदा की गई विशुद्धियों का प्रमाण हैं. जो बीते कई सालों में तैयार हुआ है. लेकिन लेखक अपने उपन्यास के जरिए उनपर सीधा हमला नहीं करता बल्कि संकेतों के सहारे उन घटनाओं को हमारे सामने ला खड़ा कर देता है जो हमने देखी है, जो पढ़ी है, किसी से सुनी है…..शायद ऐसी किसी घटना के लिए आंसू भी बहाए हैं.
उपन्यास की मूल कहानी के इतर भी कई कहानी समानांतर चल रही होती हैं. वही जो हम रोज़ अपने अगल-बगल देखते हैं. लेकिन उन सबको कोई लेखक अपनी कलम से रच दे जाता है.
पहली बार में जब कोई इस किताब को देखेगा या लेखक का नाम पढ़ेगा तो वो इसे पढ़ने के लिए बिल्कुल भी आकर्षित नहीं होगा. कवर पेज़ पर बनी फोटो का अर्थ व्यापक है जो पन्ने दर पन्ने गुज़रने के बाद ही सही अर्थों में सामने आता है.
चंदन पाण्डेय ने अपने उपन्यास में वर्तमान रच दिया है. बिना किसी लागलपेट के कहानी को बुना है. बुनाई में कहीं भी फंदे इधर-उधर नहीं हुए हैं. जिस स्पष्टता से लिखा है और भाषाई तौर पर एक पाठक को मजबूत करने की कोशिश की है……वो शायद ही कुछ सालों में किसी ने किया हो.
लेखक वर्तमान में होते हुए भूत और भविष्य की कल्पनाओं में वर्तमान गढ़ रहा है. वह द्वंद में है, कल्पना में है…..इससे भी ज्यादा खुद में है.
आखिर में उपन्यास कई सवाल छोड़ जाती हैं. जिसे लेखक बताना भी नहीं चाहता और हम जानकर भी भुला देना चाहते हैं. लेकिन जो सवाल ये किताब खड़ी करती है उसका जवाब तलाशना बेहद जरूरी सा जान पड़ता है…..नहीं तो समाज, व्यवस्था तले खड़ी की जा रही गल्प कथाओं के सहारे अपनी मूल पहचान ही खो देगी.
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सामाजिक व्यवस्था को जितनी मार्मिकता से रचा गया है वो मानो ऐसा लग रहा हो जैसे ये सामने ही हो रहा है और जैसे अर्जुन के साथ-साथ असहाय लोगों की पूरी फौज़ खड़ी है……उसमें पाठक के तौर पर हम भी शामिल हो जाते हैं. व्यवस्था पर मानवीय करुणा की ऐसी चोट पहले कभी नहीं देखी.
और हां, किताब का आखिरी पन्ना बेहद खूबसूरत है.
(‘वैधानिक गल्प’ किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. इस किताब के लेखक चंदन पाण्डेय हैं.)
सार्थक समीक्षा के लिए साधुवाद