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Wednesday, 20 November, 2024
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सामाजिक व्यवस्थाओं और छुआछूत पर तमाचा है ओम पुरी की फिल्म ‘सद्गति’

आज ओमपुरी के जन्मदिन पर उनकी बेहतरीन फिल्मों के गुलदस्ते में से एक फिल्म सद्गति के बारे में जानिये जो समाजिक व्यवस्थाओं और छुआछूत पर एक तीखी टिप्पणी है.

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जब साहित्य और सिनेमा के दो दिग्गज मिलते हैं तो उस मिलन के परिणाम का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है. उस पर बेजोड़ अभिनय और मार्मिक भाव-चित्रण हो तो महान कलाकृतियां जन्म लेती हैं. ऐसी ही एक अनमोल रचना है-  फिल्म ‘सद्गति.’ 1981 में बनी ये टेली फिल्म मात्र 45 मिनट की अवधि में समय और स्थान की पाबंदियों से परे कई अहम सवाल खड़े करती है- जिसका दर्शकों के पास कोई जवाब नहीं. अगर कोई विचार है तो बस ये कि शोषण की क्या कोई सीमा हो सकती है.

हिंदी साहित्य के दिग्गज प्रेमचंद की लिखी कहानी को सत्यजित रे ने परदे पर जादू सा ढाल दिया है. ओम पुरी, स्मिता पाटिल और मोहन अगाशे जैसे कलाकारों ने अपने अपने किरदारों में जान फूंक दी है.

वर्ण व्यवस्था पर कटाक्ष

कहानी सिर्फ दुखी चमड़े का काम करने वाले और उसकी पत्नी झुरिया की नहीं है. कहानी बरसों से चले उस शोषण की है जिसकी कालिख मैला ढोने और वर्ण व्यवस्था का शिकार हो रहे समुदायों के रूप में इस समाज के चेहरे पर आज भी पुती है. दुखी की नाबालिग बेटी का ब्याह होना है. जैसी रीत है, सारा कर्मकांड किसी पंडित को करना है और दुखी उस पंडित को न्योता देने की आस में उसके घर जाना चाहता है. गरीबी का मंज़र ये है की न घर में राशन है, न बिछाने को खाट और न ही खाना देने को पत्तल. उस पर बुखार में तप रहा दुखी भेंट के रूप में घास काटकर ले जाने की तैयारी कर रहा है. पंडित को जल्दी बुलाने की आस में वो बिना कुछ खाए घर से निकल जाता है.

आगे जो होता है वो झकझोर कर रख देने वाला है. भूखे प्यासे दुखी को पंडित जी बरामदे की सफाई करने और लकड़ी काटने के काम पर लगा देते हैं. वो भूसे का गट्ठर पीठ पर लाद रहा है. पर दरअसल उसकी पीठ पर सिर्फ वही बोझ नहीं है- सामाजिक कुंठाओं, शोषण और लोक व्यवहार के नियमों के बोझ से भी उसकी पीठ झुकी जा रही है. आखिर वो गिर जाता है. पर क्या वो उठेगा? क्या पंडित को अपने किये का अहसास होगा? यदि हां, तो वो पश्चताप के लिए क्या करेगा? यही कहानी में आगे दिखाया गया है. कहानी का अंत सबसे ज्यादा हृदय विदारक है. बहुत से अनसुलझे पहलू और सवाल ये फिल्म अंत में हमारे ज़ेहन में छोड़ जाती है.


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ये कहानी एक अमीर संपन्न व्यक्ति के गरीब पर किए जा रहे अत्याचारों का ब्यौरा नहीं है. ये एक कटाक्ष है उस व्यवस्था पर जो इंसानियत को दोयम दर्जे पर ला खड़ा करती है. जिस व्यवस्था की वजह से एक इंसान का घर के आंगन में पैर रख देना भर ही घर की मालकिन को उसकी ओर जलती हुई लकड़ी फेंक देने का हक दे देता है.

फिल्म में कुछ दृश्यों में गज़ब का विरोधाभास दिखाया गया है. पूजा-पाठ करते हुए पंडित की घंटी की आवाज़ के साथ साथ दुखी के कदमो का मेल, पंडित का भरपेट खाकर घर में आराम करना और बाहर दुखी का खाली पेट लकड़ी चीरना, पंडित का ये उपदेश देना की शरीर अलग होने पर भी आत्मा एक है- दर्शको को अखरता है. दृश्य इतने सजीव हैं की आप खुद को किरदारों के साथ जीता हुआ महसूस करते हैं.

सजीव अभिनय और दृश्य चित्रण

अभिनय के मामले में किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. ओम पुरी ने अपने सजीव और दमदार अभिनय से प्रेमचंद की कहानी के दुखी को हमारी आंखों के सामने ला खड़ा किया है. उसकी बेबसी और गुस्से को महसूस किया जा सकता है. जब पंडित दुखी को और काम बताता है तो ओम पूरी की आंखें जैसे अपनी मजबूरी की कहानी सी बयां करतीं हैं. लकड़ी काटने वाला अंतिम दृश्य रोंगटें खड़े कर देने वाला है. कभी कभी दुखी पर भी गुस्सा आता है- ऐसी क्या मजबूरी है कि वो पंडित को मना नहीं कर सकता और खाना भी नहीं मांग सकता. वहीं कहीं पंडित और पंडिताइन का भी मानवीय पक्ष देखने को मिलता है.

मोहन अगाशे और गीता सिद्धार्थ भी पंडित और पंडिताइन की भूमिकाओं से न्याय करते हैं. स्मिता पाटिल का किरदार भले ही छोटी अवधि का हो, पर वो भी अपने मार्मिक अभिनय से उतने समय में ही दर्शकों को याद रह जाती हैं ‘च** है- सेर भर रोटी तो खाएगा’ जैसे संवाद भी हैं जो समुदाय विशेष के प्रति कुछ लोगों के पूर्वाग्रहों को उजागर करते हैं.

मानवीय संवेदनाओं, तत्कालीन सामाजिक पहलुओं और वर्ण व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करती ये फिल्म अपने उद्देश्य में सफल होती है. फिल्म खत्म होते होते आप बस अफ़सोस में खुद से पूछते रह जायेंगे- न जाने कितने दुखी और झुरिया इन दकियानूसी परम्पराओं की भेंट चढ़ गए.

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