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Friday, 20 December, 2024
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नदी सिंदूरी, जिसके किनारे लोकधुन पर थिरकती है एक गांव की अनूठी दुनिया

शिरीष खरे ने इस किताब में एकदम सहज और आडंबररहित भाषा का प्रयोग किया है जिससे कहानियों के फ्लो में कहीं कोई अड़चन नहीं आती. कहीं-कहीं अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग है जो गांव में पहुंची शहरी संस्कृति की झलक है.

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साहित्य में गांव की अच्छाइयां और कमियों पर लिखने वाले कलमकारों की कमी नहीं है, मगर नए लेखकों में गांव के वास्तविक रूप को लिखने वाले लेखक अब गिने-चुने ही मिलेंगे. हमारे देश के गांव कोई सामान्य जगहें नहीं हैं. इसके बावजूद कि अब गांव का रूप विकृत हुआ है, फिर भी गांव की मिट्टी में लोक-संस्कृति और समाज की अनगढ़ सभ्यताएं सदियों से आकार लेती रही हैं. ये सभ्यताएं भारतीय सभ्य समाज की मीनार में नींव का पत्थर बन टिकी रही हैं. लेकिन, इनका कोई परिष्कृत इतिहास नहीं लिखा गया है. ये साहित्य के माध्यम से जब-तब लोगों से संवाद करती रही हैं और अपने रंग-ढंग से हम सबका परिचय कराती रही हैं. इस क्रम में शिरीष खरे की किताब ‘नदी सिंदूरी’ मील का पत्थर स्थापित करती है. गांव को बुनने के लिए जिन तंतुओं की दरकार होती है वे सारे तंतु इस पुस्तक में दर्ज किस्सों में मिलेंगे.

आमतौर पर हर भारतीय गांव के साथ एक छोटी या बड़ी नदी जुड़ी होती है. मदनपुर गांव भी नर्मदा की सहायक नदी सिंदूरी के तट पर बसा एक छोटा और सुंदर गांव है. लेकिन, सिंदूरी मदनपुर गांव की नदी भर नहीं है, वह गांव की दिनचर्या में बहता जीता-जागता अहसास है. जिसके इर्द-गिर्द बुनी गई हैं ‘नदी सिंदूरी’ की कथाएं. कथाएं जिनके अंदर गांव की मिट्टी में सनी प्रथाएं हैं, लोक है, व्यवहार है, स्वप्न है और गांव का वह भोला मानुष है जो कुछ ही समय बाद इस धरा पर दुर्लभ होने वाला है.

‘नदी सिंदूरी’ के पात्र ठेठ देहाती बुद्धि वाले पात्र हैं, मगर इस देहाती शब्द से आप चकमा मत खाइए. इस देहात में आपको जो मिलेगा वह देश के दस बड़े शहरों में न मिलेगा. यहां सम्वेदनाओं का ज्वार है. एक स्वाभिमानी मास्साब हैं, एक महिला बस मालकिन है, एक कैलाश बांसुरी-वादक है, एक पीपलपानी वाली विरहणी है, एक कल्लो गाय है, दलित नायक बसंत है, एक अवधेश ढोलकिया है, एक लचकती कमर पर थाप मारकर नाचने वाला भूरा है और केंद्र में रामलीला है. ये सब गांव नाम की एक अजूबी दुनिया के अनोखे पात्र हैं. गांव की राजनीति की पेचीदगियां, समाजिक समीकरण, आर्थिक परिदृश्य और चोरी, बेईमानी, खून, नैतिकता-अनैतिकता और बहुत कुछ मिलेगा यहां.

कभी रामलीला भारतीय समाज के रग-रग में बहती लोककला मानी जाती थी. मनोरंजन के बढ़ते साधनों और डिजिटल युग ने इसकी चमक को फीका और समाज की रुचि को कम किया है. लेकिन, शिरीष खरे ने एक बार फिर रामलीला और उसके जादू की याद कहानी ‘हम अवधेश का शुक्रिया अदा करते हैं’ के जरिये दिला दी. कहानी रामलीला के बहाने अवधेश और भूरा के संबंध और उनके जीवन के सुख-दुख को बताती है. रामलीला के बहाने गांव का उबड़-खाबड़ समाज, उसके द्वंद्व, उसकी रुचि-अरुचि को भी दर्शाया गया है.

‘कल्लो तुम बिक गई’ एक बच्चे की गाय के प्रति आत्मीयता और लगाव की कहानी है. लेकिन, नेपथ्य में एक सांस्कृतिक उजाड़ को भी दर्शाती है. कभी आंगन में खूंटे से बंधी गाय, भैंस, बकरी हमारे जीवन और व्यवहार का हिस्सा हुआ करता था. जानवर हम पर बोझ नहीं थे बल्कि हमारे जीवन की गाड़ी का एक महत्त्वपूर्ण पहिया थे, मगर आधुनिकता की हवा ने पालतू और दुधारू जानवरों को कारपोरेट के हवाले कर दिया और आत्मीयता की वह डोर टूट गई, जिससे भारतीयता बंधी थी. अब हमारे बीच सिर्फ उत्पाद और उपभोग का रिश्ता बचा रह गया और इस बात को पुख्ता करती है एक अन्य कहानी, ‘दूध फैक्ट्री से लाओ न’. लगता है कि बड़ा विचित्र समय आने वाला है. नई पीढ़ी गाय-भैंस को अपने आसपास कहीं नहीं देखना चाहता है, मगर फैक्टरियों में इफरात दूध चाहता है.

‘ऐसो कोई नही बोलो हमसे आज तक’ महज कहानी नहीं है, गांव की मिट्टी में पनपे आदर्श की बानगी है. आदर्श जिसे सरल भाषा में लिहाज़ कहा जाता है. यादव मास्साब का गांव में लिहाज इतना है कि उन्हें कुछ कहने की दरकार नहीं, सिर्फ उनकी उपस्थिति भर से झगड़े सुलट जाते. यह मान ही मास्साब की जीवन-रेखा है. जिस दिन एक मनचले लड़के ने इस रेखा को लांघ मास्साब का अपमान किया उस दिन उनकी जीवन-रेखा भी समाप्त हो गई.

कहानी ‘खूंटा की लुगाई भी बह गई’ एक मार्मिक प्रेमकथा है. खूंटा के प्रेम में उसकी लुगाई पीपरपानी वाली भटकती रही. पागलों की तरह उसकी प्रतीक्षा करती रही और अंत में खूंटा में ही विलीन हो गई. किसी ग्लैमर, मिलन, गीत-संगीत का मोहताज नहीं है यह प्रेम कहानी, पीपरपानी वाली की हरकतों में उसका प्रेमभाव उमड़-उमड़ आता है.

‘सात खून माफ़ है’, ‘ हमने उनकी सई में फाड़ दई’ और ‘धन्ना तो बा की राधा संग गोल हो गयो’ अनोखे चरित्र धारण करने वाले पात्रों की अद्भुत कहानियां हैं. ऐसी कहानियां जो पहले कभी नहीं सुनी गईं और शायद ही लिखी गई हों. अभय कुमार दुबे के शब्दों में, “ऐसे अनोखे पात्र यदि रेणु को मिलते तो वह एक और ‘मैला आंचल’ लिख डालते.”

शिरीष खरे ने इस किताब में एकदम सहज और आडंबररहित भाषा का प्रयोग किया है जिससे कहानियों के फ्लो में कहीं कोई अड़चन नहीं आती. कहीं-कहीं अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग है जो गांव में पहुंची शहरी संस्कृति की झलक है. भावपूर्ण बातों को भावपूर्ण शब्दों के जरिये कहा गया है. आंचलिक बोली के प्रयोग ने कहानियों में आत्मा का सृजन किया है और इन्हें अधिक विश्वसनीय बनाया है. ‘एक देश बारह दुनिया’ जैसी किताब लिखकर लोकप्रिय हुए लेखक को यह किताब निश्चित रूप से और भी ऊंचाइयों तक ले जाएगी.

किताब: नदी सिंदूरी

लेखक: शिरीष खरे

प्रकाशक: राजपाल एंड संज़

कीमत: ₹285


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