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Friday, 29 March, 2024
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धीमी गति से चली ‘दृश्यम-2’, कहीं डगमगाई तो कहीं जरूरत थी और मांजने की

एक कत्ल और उसकी तफ्तीश की कहानी कहती यह थ्रिलर फिल्म ‘दृश्यम 2’ पूरे परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती है.

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नई दिल्ली: सात साल पहले आई ‘दृश्यम’ में हमने देखा था कि पुलिस अफसर मीरा देशमुख (तब्बू) का बिगड़ैल बेटा सैम विजय सलगांवकर (अजय देवगन) के घर में गलती से मारा जाता है. अपने परिवार को बचाने के लिए विजय सारी कोशिशें करता है, कानून तक को हाथ में लेता है और उसकी लाश को ऐसी जगह छुपाता है जहां उसे कोई ढूंढने की सोच भी न सके. पर क्या ऐसा करते हुए उसे किसी ने नहीं देखा था?

सात साल बीत चुके हैं. सलगांवकर परिवार आगे बढ़ चुका है. फिल्मों का दीवाना विजय अपने पुराने केबल-कारोबार के अलावा अब एक सिनेमाघर का भी मालिक है और एक फिल्म बनाने की कोशिशों में भी जुटा हुआ है. लेकिन मीरा अपने बेटे की मौत को नहीं भुला पाई है. वह आज भी विजय के पीछे है. गोआ का नया आई.जी. भी उसका साथ दे रहा है. अचानक पुलिस के हाथ कुछ सबूत लगते हैं और…! तो क्या सैम की लाश मिल गई? तो क्या विजय अब फंस गया? क्या उसने अपना गुनाह कबूल लिया?

यह सही मायने में एक सीक्वेल फिल्म है जिसकी कहानी में सात साल का फासला है और पर्दे पर इसके रिलीज होने में भी. इसके सभी कलाकारों की उम्र पर भी सात साल बीतने का असर दिखता है. कहानी के मोड़, पुलिस और विजय के दाव-पेंच न सिर्फ लुभावने हैं बल्कि बेहद असरदार भी हैं. इतने असरदार कि इंटरवल के बाद आप कई जगह अच्छे-खासे रोमांचित होते हैं और फिल्म खत्म होने पर तालियां बजाने का मन करता है.

इस कहानी की एक बड़ी खासियत यह भी है कि दर्शक जानते हैं कि विजय और उसके परिवार से एक अपराध (कत्ल) हुआ है और वे जान-बूझ कर उसे छुपा भी रहे हैं लेकिन दर्शक की सहानुभूति फिर भी उन्हीं के साथ रहती है. अपने परिवार को बचाने की एक आम इंसान की यही भावना इस फिल्म को एक थ्रिलर फिल्म से एक पारिवारिक फिल्म में तब्दील करती है.

मूल मलयालम में इसे लिखने वाले जीतू जोसफ की तारीफ होनी चाहिए. हिन्दी में इसे ढालने वाले लेखकों की तारीफ भी जरूरी है जिन्होंने कहीं भी कुछ अखरने नहीं दिया है. संवाद मारक हैं और मजा देते हैं.

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पिछली वाली ’दृश्यम’ के काबिल निर्देशक निशिकांत कामत तो अब रहे नहीं लेकिन अभिषेक पाठक ने उनकी कमी महसूस नहीं होने दी है. हालांकि मूल मलयालम का रीमेक होने के चलते उनका काम काफी आसान रहा होगा लेकिन कलाकारों से उम्दा काम लेने और दृश्य संयोजन में उन्होंने दम दिखाया है.

इंटरवल तक फिल्म की रफ्तार ज़रा धीमी है जिसे मांजा जा सकता था. दो-एक जगह स्क्रिप्ट भी हल्की-सी डगमगाई है. गीत-संगीत की ज़रूरत नहीं थी, सो जो हैं, ठीक हैं. हां, बैकग्राउंड म्यूज़िक दमदार है.

कलाकारों का अभिनय इस फिल्म का सबसे शानदार और सशक्त पहलू है. अजय देवगन, श्रिया सरण, इशिता दत्ता, मृणाल जाधव, तब्बू, रजत कपूर, अक्षय खन्ना, सौरभ शुक्ला, कमलेश सावंत समेत तमाम कलाकारों ने अपने किरदारों को अंदर तक छुआ है.

एक कत्ल और उसकी तफ्तीश की कहानी कहती यह थ्रिलर फिल्म पूरे परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती है.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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