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Tuesday, 17 December, 2024
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असमानता का जहर पीकर समानता का संसार रचते मलखान सिंह

मलखान सिंह की काव्य दृष्टि अत्यंत पीड़ादायी परिस्थितियों को देखकर बनी है. वे अपनी कविता में जाति के प्रश्न को बार-बार उठाते हैं. वे पूछते हैं कि क्या इस देश में हमारी पहचान केवल हमारी जाति से ही तय होगी?

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अपने ताप और तेवर के कारण हिन्दी साहित्य में अप्रतिम स्थान रखने वाले कवि मलखान सिंह (30 सितंबर, 1948 – 9 अगस्त, 2019) की रचनाओं को लेकर नए सिरे से चर्चा चल पड़ी है. हालांकि जीवित रहने के दौरान भी उनकी रचनाओं ने हिंदी जगत में काफी हलचल मचाई थी. अब उनकी कविताएं उनके निधन के बाद दोबारा पढ़ी और सराही जा रही हैं.

मलखान सिंह को आउटलुक पत्रिका ने सन् 2012 के साहित्य सर्वेक्षण में सबसे लोकप्रिय दलित कवि माना था (हालांकि, ये केटेगरी अपने आप में विवादास्पद है). मलखान सिंह अपने पहली कविता संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ और इसी शीर्षक की कविता के साथ 1996 में चर्चा में आये थे. इसके अलावा उनका एक और कविता संग्रह ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ 2016 में प्रकाशित हुआ.

मलखान सिंह का जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ‘वसई काजी’ नामक गांव, जिला अलीगढ़ में हुआ था. इनकी शिक्षा-दीक्षा अलीगढ़ और आगरा से हुई. विद्यार्थी जीवन में वे समाजवादी युवक सभा से जुड़े रहे. मजदूरों के लिए संघर्ष करते हुए उन्होंने तिहाड़ जेल की यात्रा भी की. जीवनयापन के लिए 1979 से 2008 तक बेसिक माध्यमिक शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर कार्य किया. इस दौरान उनका रचना कर्म भी साथ चलता रहा.

मलखान सिंह हिन्दी दलित साहित्य में समावेशी तेवर के रचनाकार थे. उनकी कविता विद्रोही स्वर में होते हुए भी समाज को बंधुत्व का संदेश देती है. उनका कविता कर्म उनके इर्द-गिर्द घटती हुई घटनाओं का लेखा-जोखा है, जिसमें इतिहास है, वर्तमान है और भविष्य भी. उन्होंने अपनी कविता का जनतंत्र जिस तरह से बुना है, वह देखते ही बनता है. गांव के दक्षिण टोले (जहां दलित रहते हैं) से लेकर बाकी तीनों दिशाओं का विवरण वे ऐसे पेश करते हैं कि समाजशास्त्री भी उनके सामने बौने दिखने लगते हैं.


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मलखान सिंह की काव्य दृष्टि अत्यंत पीड़ादायी परिस्थितियों को देखकर बनी है. वे अपनी कविता में जाति के प्रश्न को बार-बार उठाते हैं. वे पूछते हैं कि क्या इस देश में हमारी पहचान केवल हमारी जाति से ही तय होगी? वे यह भी पूछते हैं कि हमारे साथ इंसानों जैसा व्यवहार क्यों नहीं किया जाता? अपनी कविता ‘एक पूरी उम्र’ में वे कहते हैं-

यक़ीन मानिए

इस आदमख़ोर गांव में

मुझे डर लगता है

बहुत डर लगता है.

लगता है कि बस अभी

ठकुराइसी मेंढ़ चीख़ेगी

मैं अधसौंच ही

खेत से उठ जाऊंगा

कि अभी बस अभी

हवेली घुड़केगी

मैं बेगार में पकड़ा जाऊंगा

इस प्रसंग को लेकर डॉ. आंबेडकर बरबस याद आते हैं, जिन्होंने सामाजिक असमानता को लेकर प्रथम गोलमेज सम्मलेन में कहा था, ‘महोदय! सर्वप्रथम मैं आपका ध्यान इस तथ्य की ओर दिलाना चाहता हूं कि भारत में अनेक अल्पसंख्यक वर्ग हैं, जिनकी अपनी राजनीतिक पहचान होनी चाहिए, लेकिन ये सभी अल्पसंख्यक वर्ग एक जैसे नहीं हैं. इनमें अनेक असमानताएं हैं. उदाहारण के लिए भारत का सबसे छोटा अल्पसंख्यक वर्ग है पारसी समुदाय. इस समुदाय की सामाजिक हैसियत बहुसंख्यकों की सामाजिक हैसियत से कम नहीं है. दूसरी ओर दलित वर्ग है. देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय, अर्थात मुस्लिम समुदाय के बाद दूसरे नम्बर पर आने वाला अल्पसंख्यक वर्ग! इस समुदाय की सामाजिक हैसियत एक अदने आदमी की हैसियत से भी गई गुजरी है.’

दरअसल, अंबेडकर के इस कथन को मलखान सिंह की काव्य दृष्टि में देखा जा सकता है.

मलखान सिंह ने अपनी कविता का फ़लक व्यापक करते हुए उदारवादियों की भी जमकर आलोचना की है. नेताओं की भर्त्सना की है. लोकतंत्र में दलितों के स्थान पर प्रश्न किया है. कवि इस विषय को लेकर चिंतित है, इसलिए कहते हैं कि धरती का कोई कोना हमारे लिए नहीं है. उदाहरण के तौर पर ‘कैसा उदारवाद यह’ कविता का एक अंश देखिये-

‘आज

देश की शिक्षा

देश की चिकित्सा

देश के बाज़ार

आकाश-पाताल

धरती की कोख तक

बस उन्हीं की सत्ता है.’

मलखान सिंह सवाल करते हैं कि लोकतंत्र में जहां सब की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए, उसी लोकतंत्र में अभी भी एकमात्र सच्चाई जाति ही क्यों है? क्यों दलितों को उनकी जाति से ही पहचाना जाता है? जाति को देखकर क्यों उनके प्रति दुर्व्यवहार किया जाता है? कवि इस भेदभाव को बहुत बारीकी से पकड़ता है. एक उदाहरण ‘फटी बंडी’ कविता से देखिये –

‘मैं अनामी हूं

अपने इस देश में

जहां-जहां भी रहता हूं

आदमी मुझे नाम से नहीं

जाति से पहचानता है और

जाति से सलूक करता है.’

इन तमाम प्रश्नों से टकराते हुए कवि आगे बढ़ता है और ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता में कहता है कि,

‘सुनो ब्राह्मण,

हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें.

तुम, हमारे साथ आओ

चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर.

शाम को थककर पसर जाओ धरती पर

सूंघो खुद को

बेटों को, बेटियों को

तभी जान पाओगे तुम

जीवन की गंध को

बलवती होती है जो

देह की गंध से.’

इस कविता में कवि अपने विचार का धारदार प्रयोग करता है. वह यह जनता है कि प्रतिरोध से ही समाज में समाजिकता लायी जा सकती है. कवि इन विसंगतियों से अपने को निराश/हताश नहीं पाता बल्कि भविष्य के लिए आत्मज्ञान और संबल प्रदान करता है. आत्मविश्वास को बढ़ाता है. कवि अपनी कविताओं में बिना किसी समुदाय को अलगाव में डाले, सब की समानता की बात करता है. देश और देश के बाहर के लोगों को भी अपना मानता है. एक कविता ‘छत की तलाश’ का उदाहरण देखिये-

‘मकां ऐसा बनाऊंगा

जहां हर होठ पर

बंधुत्व का संगीत होगा

मेहनतकश हाथ में-

सब तंत्र होगा

बाजुओं में

दिग्विजय का जोश होगा.

विश्व का आंगन

हमारा घर बनेगा.

हर अपरिचित पांव भी

अपना लगेगा.’

मलखान सिंह की कविताओं में जो चेतनाशील दृष्टि है, वह दृष्टि शोषित-पीड़ित समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है. जनता की सच्चाई जनता के सामने प्रस्तुत करती है. इस मायने में वे संत कबीरदास और संत रविदास के रचे रास्ते पर कदम बढ़ाते प्रतीत होते हैं.

और अंत में कवि मलखान सिंह का आत्मकथ्य, जो उन्होंने अपने कविता संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ के लिए लिखा था –

‘मैं नहीं जानता कि मैं कविता क्यों लिखता हूं? हां, इतना अवश्य जानता हूं कि जाति-पाति, ऊंच-नीच, छूत-छात, पाखंड, शोषण और अत्याचार का शिकार जब मैं स्वयं होता हूं या किसी सहोदर को होते देखता हूं, तो मेरे अंदर कुछ उबलने लगता है, कुछ घुमड़ने लगता है, जिसे मैं शब्दों में पकड़ने की कोशिश करता हूं. लेकिन पूर्ण को कभी पकड़ नहीं पाता. पूर्ण को एक साथ न पकड़ पाने की यह छटपटाहट ही अंश के रूप में मेरी कविताओं को जन्म देती चलती है. अस्तु, मेरी कविताएं मेरी भोगी हुई यातनाएं हैं. इन्हें लिखते समय कभी मैं रोया हूं, कभी क्रोध से पागल हो उठा हूं, तो कभी अनायास किसी सार्थक बिम्ब के हाथ आ जाने पर बच्चों की तरह किलकारी मार घंटों हंसा हूं.’

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के शोधार्थी हैं. यह लेख उनका निजी विचार हैं.)

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