गोलमेज़ सम्मेलन में, गांधी और आंबेडकर में टकराव हो गया, दोनों का दावा था कि वे ही अछूतों के असली प्रतिनिधि हैं. सम्मेलन कई हफ़्तों तक चला. गांधी अन्तत: मुसलमानों और सिखों की पृथक निर्वाचिका के लिए राज़ी हो गए, लेकिन आंबेडकर के अछूतों के लिए पृथक निर्वाचिका के तर्क पर सहमति नहीं दी. गांधी ने सामान्य रिवाजी शब्द आडम्बर का सहारा लिया: ‘मैं चाहूंगा कि हिन्दू धर्म की मृत्यु हो जाए, बजाए इसके कि अस्पृश्यता जीवित रहे.’
गांधी ने यह मानने से इनकार कर दिया कि आंबेडकर को अछूतों का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है. आंबेडकर भी अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं थे, और न ही इसकी उन्हें कोई ज़रूरत थी.
आद धर्म के मंगू राम सहित, भारत-भर के अछूत समूहों ने, आंबेडकर के समर्थन में तार भेजे. अन्तत: गांधी ने कहा, ‘जो अछूतों के राजनीतिक अधिकार की बात करते हैं वे अपने भारत को जानते ही नहीं. वे नहीं जानते कि भारतीय समाज का निर्माण कैसे हुआ है, और इसलिए मैं अपनी पूरी ताक़त के साथ कहना चाहता हूं कि यदि, इसके विरोध में, मैं एक अकेला व्यक्ति भी रहूंगा, तो भी, मैं अपनी जान देकर भी इसका विरोध करूंगा.’ अपनी धमकी देने के बाद, गांधी भारत वापसी का जलपोत पकड़ निकल लिए. रास्ते में वे रोम में मुसोलिनी से मिले और उसके ग़रीबों की देखभाल, अत्यधिक शहरीकरण के विरोध, पूंजी और श्रम के बीच बेहतर समन्वय के प्रयासों से बेहद प्रभावित हुए.
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एक साल बाद, रामसे मैकडोनाल्ड ने साम्प्रदायिक सवाल पर ब्रिटिश सरकार के फ़ैसले की घोषणा की. पंचाट में, अछूतों को 20 वर्षों के लिए पृथक निर्वाचिका का अधिकार दे दिया गया. उस समय गांधी पूना की यरवदा केन्द्रीय जेल में सज़ा काट रहे थे. जेल से ही उन्होंने घोषणा कर दी कि यदि अछूतों के लिए पृथक निर्वाचिका का निर्णय वापस नहीं लिया गया तो वे अनशन करेंगे, जो उनकी मृत्यु तक जारी रहेगा—आमरण अनशन.
एक महीने तक उन्होंने इन्तजार किया. जब उनकी ज़िद नहीं मानी गई तो उन्होंने जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया. यह आमरण अनशन पूरी तरह से, उनके अपने ही बताए हुए सत्याग्रह के सिद्धान्तों के ख़िलाफ़ था. यह एक बेशर्मीपूर्ण ब्लैकमेल था, जो आत्महत्या की सार्वजनिक धमकी की चाल से कम नहीं था. ब्रिटिश सरकार ने कह दिया कि इस प्रावधान को केवल तभी निरस्त करेगी, जब अछूत इसके लिए राज़ी होंगे. पूरा देश लट्टू की तरह घूम गया. सार्वजनिक बयान जारी किए गए, याचिकाओं पर हस्ताक्षर किए गए, प्रार्थनाएं की गईं, सभाओं का आयोजन हुआ, अपीलें की गईं.
यह एक हास्यास्पद स्थिति थी: विशेषाधिकारप्राप्त सवर्ण हिन्दुओं ने, जिन्होंने हरसंभव तरीक़े से ख़ुद को अछूतों से अलग किया, जिन्होंने अछूतों को मानवीय संग-साथ के क़ाबिल भी नहीं समझा, जो उनके स्पर्श मात्र से भी बचते, दूर भागते-फिरते थे, जो अलग भोजन, पानी, सड़कें, मन्दिर और कुएं चाहते थे, अब कह रहे थे कि यदि अछूतों को पृथक निर्वाचिका प्रदान कर दी गई तो भारत के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे. और गांधी, जो पूरे जोश और मुखरता से, अछूतों का पृथक्करण करने वाली व्यवस्था में दृढ़-विश्वास व्यक्त करते थे, अछूतों को पृथक निर्वाचिका से वंचित करने के लिए, ख़ुद को भूखों मारने पर तुले थे.
इसका सार यह था कि सवर्ण हिन्दू, अछूतों के लिए अपने दरवाजे बन्द करने की शक्ति तो चाहते थे, लेकिन वे यह क़तई नहीं चाहते थे कि, अछूतों को भी वह शक्ति मिले जिससे वे सवर्णों पर अपने दरवाज़े बन्द कर सकें. आक़ाओं को पता था कि चुनने का अधिकार एक बहुत बड़ी ताक़त होती है.
जैसे-जैसे उन्माद बढ़ने लगा, आंबेडकर के ऊपर खलनायक का लेबल चस्पा कर दिया गया, ग़द्दार बता दिया गया, एक ऐसा ग़द्दार जो भारत के टुकड़े-टुकड़े करना चाहता था, जो गांधी की हत्या करने पर तुला था. गरम दल और नरम दल के राजनीतिक दिग्गज, टैगोर, नेहरू और सी. राजगोपालाचारी गांधी के पक्ष में ज़ोर-शोर से खड़े हो गए. गांधी को रिझाने के लिए, विशेषाधिकारप्राप्त सवर्ण हिन्दुओं ने सड़कों पर अछूतों के साथ सहभोज का दिखावा करना शुरू कर दिया, और कई हिन्दू मन्दिरों के द्वार अछूतों के लिए खोल दिए गए, हालांकि अस्थायी तौर पर ही.
इस समायोजन की सद्भावना- प्रदर्शन के पीछे, तनाव की एक दीवार भी खड़ी हो रही थी. बहुत सारे अछूत नेताओं को डर था कि यदि आमरण अनशन से गांधी की कहीं जान ही चली गई तो आंबेडकर को इसका जिम्मेदार ठहराया जाएगा. और फिर इससे साधारण अछूतों की जानें जोखिम में पड़ जाएँगी. उन्हीं में से एक एम. सी. राजा मद्रास का अछूत नेता था, जिसने एक प्रत्यक्षदर्शी के बयान के अनुसार कहा :
हज़ारों वर्षों से हमारे साथ अछूतों का व्यवहार हो रहा है, दलित, दमित, अपमानित, तिरस्कृत. महात्मा ने हमारे लिए अपना जीवन दाँव पर लगा रखा है, और यदि उनकी मृत्यु हो गई तो अगले एक हज़ार सालों तक हम वहीं रहेंगे जहाँ आज हैं. हो सकता है इससे भी बदतर हालात में पहुँच जाएँ. हमारे खिलाफ इतनी ज़ोरदार भावनाएं पैदा हो जाएँगी कि हमने महात्मा को मरवा दिया, पूरा हिन्दू समुदाय और पूरा सभ्य समाज मार-मार ठोकर हमें सीढ़ियों में नीचे की ओर धकेल देगा. मैं आपके साथ अब और ज़्यादा खड़ा नहीं रह सकता. मैं तो सम्मेलन में शामिल होऊँगा और समाधान ढूंढ़ूंगा और तुमसे अलग हो जाऊंगा.
आंबेडकर कर ही क्या सकते थे? उन्होंने डटे रहने की पूरी कोशिश की. अपने तरकश से तर्क और बुद्धि के सभी तीर चलाए. लेकिन उन्माद के उस माहौल में तर्क और बुद्धि को सुन ही कौन रहा था? आंबेडकर अब बच नहीं सकते थे. चार दिन के अनशन के पश्चात, आंबेडकर यरवदा जेल में जाकर गांधी से मिले, और पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए. बॉम्बे में अगले दिन उन्होंने एक सार्वजनिक भाषण दिया, जिसमें वे गांधी के बारे में अप्रत्याशित रूप से शालीन थे : ‘मुझे यह देखकर अचरज हुआ कि जिस इनसान ने गोलमेज़ सम्मेलन में मुझ से बिलकुल अलग विचार रखे थे, वह मेरे बचाव के लिए तुरन्त आया, और दूसरे पक्ष के बचाव के लिए नहीं.’
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बाद में, आघात से उबरने के बाद आंबेडकर ने लिखा : अनशन में कुछ भी नेक नहीं था. यह एक बेईमान और गन्दी हरकत थी…यह बहुत ही घटिया क़िस्म की ज़ोर-ज़बरदस्ती थी उन असहाय लोगों के विरुद्ध, उनसे उनके संवैधानिक संरक्षण के अधिकार लूटने के लिए, जो अधिकार उन्हें [ब्रिटिश] प्रधानमंत्री के पंचाट द्वारा प्राप्त हुए थे, और उन्हें मानने को मजबूर किया कि वे हिन्दुओं के रहमो-करम पर जीने के लिए राज़ी हो जाएँ. यह एक नीच और दुष्ट हरकत थी. ऐसे इनसान को अछूत सम्मानित और गम्भीर कैसे मान सकते हैं?
पैक्ट के अनुसार, अछूतों को पृथक निर्वाचिका की जगह, सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में आरक्षित सीटें दी गईं. इसी वजह से प्रान्तीय विधायिकाओं में आवंटित की गई सीटों की संख्या बढ़ गई (सीटें 78 से बढ़कर 148 हो गईं) लेकिन उम्मीदवार ऐसे होने चाहिए थे जो विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के बहुल निर्वाचन क्षेत्र को स्वीकार्य हों, इसलिए उम्मीदवार नख-दन्त विहीन हो गए. अंकल टॉम ने बाज़ी मार ली. गांधी ने यह पक्का कर दिया कि अछूतों का अपना जुझारू, अछूतों के अधिकारों के लिए लड़ने वाला नेतृत्व न उभर पाए और नेतृत्व विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के पास ही रहे.
(साभार राजकमल प्रकाशन. पुस्तक – एक था डॉक्टर एक था संत. लेखिका अरुंधति रॉय)
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