‘इंसान कब तक अकेला जी सकता है’, एमएस सथ्यू की विभाजन पर आधारित फिल्म गर्म हवा में सलीम मिर्ज़ा फिल्म के आखिर में ये बात कहते हैं और काफी जद्दोजहद के बाद अपने बेटे को प्रोटेस्ट मार्च में जाने की इजाज़त दे देते हैं. मिनटों बाद वे खुद भी इसमें शामिल हो जाते हैं.
हम कह सकते हैं कि ये शब्द सालेम का किरदार निभाने वाले एक्टर बलराज साहनी के भी आखिरी शब्दों में से थे. इस फिल्म कि डबिंग ख़त्म करने के एक दिन बाद ही साहनी का देहांत हो गया. पर पिछले कुछ दिनों से हो रही घटनाओं को देखते हुए मालूम होता है कि ये शब्द आज भी प्रासंगिक हैं.
गर्म हवा विभाजन के दौर में आगरा में रह रहे एक मुस्लिम सामूहिक परिवार की कहानी है. सलीम मिर्ज़ा जूतों के कारोबारी हैं, वहीं उनका भाई हलीम एक नेता है जो अपने परिवार को पाकिस्तान ले जाना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों का कोई भविष्य नहीं है. इसी दौरान परिवार टूट कर बिखर जाता है क्योंकि घर की पुश्तैनी जायदाद हलीम के नाम थी जो उसने अपने छोटे भाई के नाम पर नहीं की, जिस वजह से सरकार वो जायदाद छीन लेती है. इसी दौरान सलीम का कारोबार ठप्प होने लगा है क्योंकि हर कोई मुसलमानों को शक की निगाहों से देखता है. बेटे सिकंदर को भी एक के बाद एक हर नौकरी के इंटरव्यू में नाकामी हाथ लगती है. हालात ये हैं कि नौकरी देने वाले उसे पाकिस्तान में अपनी किस्मत आज़माने की सलाह देते नज़र आते हैं.
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हलीम के हिंदुस्तान छोड़ने के फैसले से परिवार एक और तरह से प्रभावित हुआ है- दरअसल उसके बेटे काज़िम की सलीम की बेटी अमीना से सगाई हुई है लेकिन काज़िम को पिता के साथ पाकिस्तान जाना पड़ता है.
कई महीनों बाद वो अपनी प्रेमिका से शादी करने के लिए वापस लौटता है, पर चूंकि उसके पास सही कागज़ात नहीं है और उसने लोकल पुलिस थाने में रिपोर्ट नहीं किया है, इसलिए उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है. एक दूसरी सगाई भी टूट जाती है जब लड़के का परिवार पाकिस्तान चला जाता है. ऐसे में परिवार को और दुःख में छोड़ अमीना ख़ुदकुशी कर लेती है.
घर परिवार के टूटने की ये त्रासदी वास्तविकता के काफी करीब है. हम सभी ने कहीं न कहीं अपने पुरखों से उनका घर-ज़मीन या वतन छूट जाने की दर्द भरी कुछ कहानियां ज़रूर सुनी होंगी. सलीम की बूढ़ी मां भी यही पूछती हैं- जिस मुल्क में मैं दुल्हन बनकर आयी, जिस मकान को मैंने घर बनाया, जहां मेरे बच्चे बड़े हुए, भला उस घर को मैं कैसे छोड़ सकती हूं. अपने खुदा का मैं कैसे सामना करूंगी?
इन सवालों का कोई जवाब नहीं. सलीम मिर्ज़ा, जो हर लालच के बावजूद हिंदुस्तान में रहा क्योंकि वो इसे अपना वतन मानता है, आख़िरकार चुप है. बेटी के जाने के ग़म में डूबा और हर कोशिश कर हार चुका सलीम भी पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेता है लेकिन स्टेशन जाते समय रास्ते में हो रही एक रैली का नज़ारा मानो उसमें एक नया जोश भर देता है- उसे महसूस होता है की सब मिलकर अगर गलत के खिलाफ जंग लड़ें, तो यहां रहना हर मायने में जायज़ है.
फिल्म का निर्माण ही एक इस बात का बड़ा उदाहरण है कि सौहार्द से क्या हासिल नहीं किया जा सकता. कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी (सथ्यू कि पत्नी) द्वारा लिखी इस फिल्म की पटकथा इस्मत चुगताई कि कहानी से ली गयी है. फिल्म को लेकर विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों को चकमा देने के लिया नकली यूनिट भेजी जाती थी. इसकी विवादित विषयवस्तु के चलते शुरू में फिल्म का काम रोकना पड़ा था. सथ्यू ने अपने बचाये हुए कुछ पैसों, दोस्तों की उधारी और फिल्म फाइनेंस कार्पोरेशन (अब एनएफडीसी) से मिली राशि के ज़रिये फिल्म बनायीं. उनके एक दोस्त ने उन्हें ऑरिफ्लेक्स कैमरा उधार दिया जिससे सिनेमाटोग्राफर ईशान आर्या ने फिल्म जगत में पदार्पण किया. फिल्म में दिखाया गया मिर्ज़ा का घर आगरा के उस व्यक्ति का खुद का पुश्तैनी मकान था जिसने सलीम की मां के किरदार के लिए एक कोठे से बदर बेगम को ढूंढ़ा था.
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इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने आठ महीनों तक लटकाये रखा. सथ्यू के बार बार विनती करने पर ही ये फिल्म सरकार और मीडिया को दिखाई गयी जिसके बाद इसे बम्बई में कुछ सिनेमाघरों में रिलीज़ किया गया. बाल ठाकरे ने उस वक़्त इस फिल्म को ‘मुस्लिम समर्थक और राष्ट्र विरोधी’ बताकर रीगल सिनेमा को जला देने की धमकी दी थी, जहां फिल्म का प्रीमियर होए वाला था. पर आख़िरकार वो भी सथ्यू के सतत प्रयासों के आगे झुक गए. इसके बाद गर्म हवा ने कई पुरस्कार जीते, जिसमे ‘राष्ट्रीय एकता पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार भी शामिल था.
आज जब देश नागरिकता संशोधन कानून- जो ये तय करता है कि कौन इस देश का नागरिक हैं और कौन नहीं- को लेकर सड़कों पर है, देश के सारे नागरिक मुसलमानों के साथ सौहार्द दिखाते हुए प्रदर्शन कर रहे हैं, ये फिल्म निश्चित तौर पर साबित करती है कि उस दौर कि होते हुए भी ये अपने समय से कहीं आगे थी.
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