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Monday, 18 November, 2024
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आखिर क्यों फैज अहमद फैज की नज्म ‘कुत्ते’ से लिया गया होगा इस फिल्म का नाम

मशहूर शायर फैज अहमद फैज की नज्म ‘कुत्ते’ की कुछ पंक्तियां देखिए-‘जो बिगड़ें तो इक दूसरे को लड़ा दो, जरा एक रोटी का टुकड़ा खिला दो... ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें, ये आकाओं की हड्डियां तक चबा लें....’ 

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अब इस फिल्म के किरदारों और कहानी पर गौर कीजिए. मुंबई शहर में एक गैंगस्टर के कहने पर दो पुलिस वाले दूसरे गैंग्स्टर को मारने की सुपारी उठाते हैं. लालच के चलते वे वहां से ड्रग्स भी उठा लेते हैं. सस्पेंड होते हैं तो कमिश्नर की खास इंस्पैक्टर पम्मी मैडम एक-एक करोड़ मांग लेती है. पैसे के लिए ए.टी.एम. में पैसे भरने वाली वैन लूटने निकलते हैं तो वहां भी गड़बड़ हो जाती है.

यह फिल्म अपने किरदारों से भी कहानियां सुनवाती है. जैसे कि-एक बार एक बूढ़े शेर ने एक बकरी और एक कुत्ते की मदद से शिकार किया और बकरी से कहा कि इसे तीन हिस्सों में बांट दो. बकरी ने वैसा ही किया तो शेर नाराज हो गया और बकरी को मार कर खा गया. तब उसने कुत्ते से कहा कि अब इसे दो हिस्सों में बांट दो. कुत्ते ने फटाफट सारा शिकार शेर की तरफ खिसकाया और बकरी की बची-खुची हड्डियां चबाने लगा. अब इस कहानी को सुन कर आप चाहें तो पूछ सकते हैं कि भई, कुत्ते तक तो ठीक है लेकिन शेर बकरी की मदद क्यों लेगा और बकरी उस की मदद क्यों करेगी और अगर कर भी देगी तो शिकार के तीन हिस्से क्यों करेगी जबकि बकरी तो मांस खाती ही नहीं है? बस, ऐसे ही तो सवाल नहीं पूछने हैं आपने, क्योंकि जब ‘बुद्धिजीवी’ लोग कुछ कहते हैं तो उसमें लॉजिक भले ही न हो, उनकी सुननी जरूर पड़ती है.

आसमान भारद्वाज की यह पहली फिल्म हो लेकिन जो शख्स विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक का बेटा हो, जिसकी सारी परवरिश ही ‘बुद्धिजीवी सिनेमा’ के माहौल में हुई हो, उसकी शैली में वैसी ही झलक दिखना स्वाभाविक है. इस फिल्म में मेंढक और बिच्छू वाली वह कहानी भी है कि मेंढक ने बिच्छू को नदी पार कराई लेकिन बिच्छू ने उसे काट लिया. क्यों…? अरे भई, बिच्छू की फितरत है. फिल्म की कहानी असल में इन दोनों कहानियों का ही मिश्रण है जिसमें दिखाई देता है कि इंसान असल में पहली कहानी के कुत्ते जैसा है कि जब मुसीबत आई तो अपने से ताकतवर के आगे झुक गया या फिर दूसरी कहानी के बिच्छू जैसा कि जब मौका मिला तो अपने से कमजोर को दबा दिया.

फिल्म: कुत्ते

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आसमान भारद्वाज की कहानी साधारण है लेकिन फिल्म की स्क्रिप्ट अच्छी है. इस कहानी को जिस तरह से अलग-अलग हिस्सों में पर्दे पर उतारा गया वह तरीका भी रोचक है जो एक आम कहानी को ऊंचा उठाता दिखाई देता है. किरदार दिलचस्प हैं और उनकी हरकतें मनोरंजक. आप बार-बार मुस्कुराते हैं, कभी हंस भी देते हैं. लेकिन अपनी संपूर्णता में इसका लेखन प्रभावित नहीं कर पाता. लेखकों में विशाल भारद्वाज को अतिरिक्त पटकथा और संवाद का काम मिला. संवाद बहुत हल्के हैं और बेमतलब की गालियों से भरे हुए. फिल्म देखते हुए तो यह भी लगता है कि इतनी गालियों और फिज़ूल की नंगई वाली यह फिल्म असल में बेलगाम ओ.टी.टी. के लिए बनाई गई होगी जिसे कुछ एक्स्ट्रा माल बटोरने के लिए थिएटरों के दर्शकों के सामने परोस दिया गया है.

फिल्म यह भी दिखाती है कि नक्सलियों को ‘आजादी’ चाहिए और वह ‘आजादी’ उन्हें बरसों तक भटकने के बाद भी नहीं मिल रही है. पुलिस के पूरे डिपार्टमैंट में एक भी आदमी ईमानदार नहीं है, वह भी नहीं जिसे नक्सली अच्छा समझ कर जिंदा छोड़ गए थे. हर तरफ बस पैसे और पॉवर की जंग छिड़ी हुई है, मारामारी है, खून-खराबा है, और जिन पर देश को सुधारने का, चलाने का ज़िम्मा है, वही लोग इसमें शामिल हैं. यहां तक कि अंत में नोटबंदी वाले सीन पर किया गया कमेंट भी फिल्म बनाने वालों के निजी एजेंडे की ही घुसपैठ लगता है.

नसीरुद्दीन शाह, अनुराग कश्यप, आशीष विद्यार्थी, राधिका मदान, शार्दूल भारद्वाज वगैरह को तो कुछ करने को मिला ही नहीं. तब्बू ओवर रहीं, कभी जंची तो कभी नहीं. कुमुद मिश्रा रंगत में दिखे और अर्जुन कपूर अपनी सीमित रेंज में सिमटे हुए. गुलजार ने गानों के नाम पर जो लिखा है, उसे सुन कर अफसोस मनाया जा सकता है. हां, बैकग्राउंड म्यूजिक जोरदार है. कैमरावर्क जानदार है. एडिटिंग में कसावट है लेकिन जब दो घंटे की लंबाई भी अखरने लगे तो क्या समझा जाए?

(संपादन: ऋषभ राज)


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