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Sunday, 3 November, 2024
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वो कृष्णा सोबती ही थीं जिन्होंने ‘पहला दरवाजा खोला था’

कृष्णा जी कहीं नहीं गईं, वे हमारी लेखनी में समा गई हैं. पता पा गई हूँ, हमने भी उनका पता पा लिया है. अपने किरदारों में, लेखनी में महक उठेंगी.

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जिनके नाम पर दम भरते थे, जिनके होने से बहुत साहस था, जो मिसाल थीं, हर तरह से. जीवन और लेखन दोनों में, सुबह की पहली ख़बर थी, उनका प्रस्थान. प्रिय लेखिका कृष्णा सोबती जी नहीं रहीं इस दुनिया में.

उनके जाने को किस तरह देखें कि वो किसी लोक में जा सकती हैं भला! जब तक उनके किरदार ज़िंदा हैं. वो मर नहीं सकतीं. कृष्णा सोबती जैसे लेखक मरा नहीं करते. वे साहित्य के सीने में शूल की तरह धंसी हुई फूल की तरह खिली हुई थीं.

ऐसा न होता तो वे लेखकीय सीमाओं को तोड़कर अपने पात्र न रचतीं और उनके विरुद्ध होने वाले हर पंचायत पर ठहाका लगातीं और हर चक्रव्यूह को तोड़ कर बाहर निकल आतीं.

मेरे जेहन में उनकी कुछ स्मृतियाँ आज भी ताजा हैं, जब वे बहुत स्वस्थ थीं. दो अवसरों पर उनसे ऐसी भव्य मुलाकात हुई कि वो बरबस जेहन में ताजा हो गईं. जब वे स्वस्थ थीं तो कई अवसरों पर मिल जाया करती थीं. उनकी वेशभूषा मेरे कस्बाई मन को रहस्यमय लगती और मैं उन्हें ख़ूब निहारा करती. बहुत पास जाकर छूने या लिपटने का साहस नहीं आ पाया था या कहें एक पत्रकारीय संकोच था कि मैं दूरी बनाए रखती थी.

पहली बार उनसे मिली जब वे एक साप्ताहिक पत्रिका के उद्घाटन समारोह में आई थीं. अपने मान-सम्मान को लेकर इतनी सचेत थीं, स्वाभिमानी थीं कि मुझे याद आ रहा है है वो वाक़या. बहुत आग्रह पर वे समारोह में आने को तैयार हुई थीं. मैं आयोजन स्थल पर अतिथियों के स्वागत के लिए अपने सहयोगी के साथ खड़ी थी. हमदोनों उस टीम में ऐसे थे जो राजनीति, साहित्य के दिग्गजों को पहचानते थे. इसलिए हमें स्वागत का और मेहमानों की विदाई का ज़िम्मा दिया गया था. हम दोनों खड़े थे और एक-एक कर अतिथि आ रहे थे.

अचानक कृष्णा सोबती जी, पद्मा सचदेव जी के साथ आईं. उसी तरह की अलग वेशभूषा, लंबा गाउन, माथा ढँका हुआ. उन्हें आदर से अंदर ले जाकर सबसे आगे बिठाया. कार्यक्रम शुरू हो चुका था. मुझे पता नहीं, क्या हुआ अंदर. थोड़ी ही देर में ग़ुस्से से लाल कृष्णा जी, पद्मा जी समेत बाहर निकलीं, हमने उनसे पूछा- क्या हुआ? समझ नहीं आया. चूंकि मैं अंदर नहीं थी तो कुछ भी समझ नहीं पा रही थी. अंदर भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी समेत राजनेताओं का पूरा दल बल मौजूद था. कार्यक्रम चल ही रहा था कि बीच से उठ कर दोनों चली आईं. गेट पर जाकर मैंने हाथ जोड़े-
दोनों एक साथ ग़ुस्से में थीं. किसी बात पर. बोलीं कुछ नहीं..

‘हमें बेइज़्ज़त करने को बुलाया था क्या, हम आते नहीं, कितना मान मनौव्वल किया था, तब हम आए…
बता देना उन्हें, हम स्त्रियों का भी कोई मान सम्मान होता है…’

हम सब अवाक. बाहर कम ही लोग थे. वे दोनों चली गईं. मैं रोक नहीं पाई. जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो पूरी बात पता चली. हुआ ये था कि मंच से संबोधन करते समय सबके नाम लिए गए, ग़लती से, लापरवाही से सामने बैठी विशिष्ट अतिथि कृष्णा सोबती जी और पद्मा जी का नाम लेना भूल गए थे. संपादक जी. किसी वक्ता ने इस पर ध्यान नहीं दिया. ये बात अखर गई. वे दोनों उठीं, और चुपचाप निकल गईं.

यह पहली स्मृति है

मेरी प्रिय लेखिका का यह स्टैंड मुझे भीतर तक छू गया. मैंने गाँठ बाँधी- तुलसी वहाँ न जाइए…

वे अनजाने में एक सबक़ देकर चली गईं. बाद में हमारी पूरी टीम पछतावे में ही रही. फिर कई दिन तक इस पर माथा पच्ची होती रही. मैंने पहली बार लेखकीय सम्मान को महसूस किया था.


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मेरे तत्कालीन संपादक बहुत विनम्र क़िस्म के थे, लेखकों का आदर करने वाले. बाद में वे मिले होंगे और वो मान गई होंगी, मुझे जब कहा गया कि कृष्णा सोबती के घर जाना है उनकी रचना सामग्री लाने, तो मैं पहले घबराई, संकोच हुआ और फिर नौकरी की मजबूरी. साहस करके उनके घर पहुँच ही गई. उस दौर में मैंने साहित्य पेज नया-नया देखना शुरू किया था और पत्रिका को स्तरीय बनाने के लिए बड़े -बड़े लेखकों से सामग्री लाने की मेरी ज़िम्मेदारी थी.

मैं कहाँ-कहाँ नही गई. सबके घर से कविता, कहानी, लेख लाती थी. मुझे साहित्य जगत में कोई नहीं जानता पहचानता था. पहचान बन रही थी, साहित्य संपादक बनने के बाद. उसी दौरान सबके साथ के अजीब-अजीब अनुभव. वे बड़े लोग थे और मैं छोटी पत्रकार.

कुछ ने गेट से सामग्री पकड़ाई थी, कुछ ने सीढ़ियों पर. पहला दरवाजा खुला था कृष्णा सोबती जी का. मयूर विहार स्थित उनके अपार्टमेंट में पहुँची थी लेख लेने. ख़ुद दरवाजा खोला. सुबह का समय था. वे गाउन में थीं और बाल खुले हुए थे. सोफ़ा पर मुझे बिठा कर सहयोगी स्त्री को चाय के लिए बोला. मुझे इतनी खातिर की आदत नहीं थी सो मैं सकुचाई हुई थी. मित्रों की पंक्तियाँ भीतर में बज रही थीं –

‘ सरदारी लाल, कर नज़र नीची, नीची नज़र कर…’
ग़ज़ब है देवर, ग़ज़ब ! बेचारी का कलेजा
क्या धड़कता है , ‘आसमानी उछलता है… फड़क फड़क …’

उस वक़्त सचमुच मेरा कलेजा ऐसा ही हो रहा था. पता नहीं क्या पूछेंगी? मैं उनके सामने घोर अज्ञानी. वे मेरे लिए कथा – किंवदंती थीं.

मैं जल्दी से लेख लेकर भाग जाना चाहती थी. मगर वो न माने. आधे घंटे मैंने काटे जिसमें वे पत्रिका के कामकाज के बारे में पूछती रहीं.
फिर कहा – ‘एक शब्द एडिट मत करना. जितना कहा, उतना ही लिखा है. कोई दिक्कत आए तो फ़ोन कर लेना.’
मेरी आँखें किसी और चेहरे को ढूँढ रही थी.


उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी में रुचि थी मेरी. उनके साथी को देखना चाहती थी. चलते-चलते देख भी लिया. बाहर तक छोड़ने वे ही आए थे- शिवनाथ जी. गोरे, छरहरे , सुंदर से बुजुर्ग !
उसके बाद अक्सर फ़ोन पर बात होती रही. घर आना -जाना न हुआ.उनकी ख़बरें आती रहीं. उनका बयान, उनकी बातें. उनका राजनीतिक स्टैंड सबकी मैं मुरीद होती रही. लेखक का सामाजिक दायित्व भी कुछ होता है.

मैंने अधिकांश किताबें पढ़ी हैं मगर जो असर ‘मित्रों मरजानी’ का हुआ , वो किसी और का नहीं. इस सदी के दस कालजयी उपन्यासों में से एक है मित्रों. शायद सबसे अलग किरदार भी जो पांखडियों के मुँह पर ज़ोर से चांटा मारती है. आज तक तिलमिला रहे, बिलबिला रहे. मित्रों फाँस की तरह चुभी हुई है. निकाले नहीं निकलती.


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पिछले दिनों मंच से कहा मैंने कि हम पर क्यों क़हर ढाते हो, हमने क्या लिखा, कृष्णा जी से ज़्यादा खुला, साहसी कोई नहीं लिख सका. इतनी हिम्मत ही नहीं बंद गलियारों से टकराने की. आँख में ऊँगली घुसेड़कर कहने की – ‘दिल दिमाग क़ायम रखो बापू, यह समय हेर-फेर करने का नहीं, जिसे समझाना हो समझाओ, जिसे ताड़ना हो ताड़ो.’

‘क़स्बे के मामूली से परिवार में मित्रों का प्रवेश जिस साधारण की नाटकीयता को उद्घाटित करता है, वह अनोखा है, न ही विस्मयकारी, अगर कुछ है तो साधारण का ही विशेष है.’ कृष्णा सोबती के इस बयान के आलोक में देखे तो मित्रों के असाधारण कस्बाई चरित्र का ख़ुलासा होता है. कैसे एक स्त्री आत्मविसर्जन करने के बजाय ख़ुद को सुरक्षित रखने की छटपटाहट से गुज़रती है. उसकी यह छटपटाहट आदिम उत्तेजनाओं से निकल कर रूह तक पहुँचने की यात्रा को भी रेखांकित करती है. मित्रों को अहसास है कि उसकी देह निरा-शीरा नहीं है जिसमें डंक मारते सर्पों की फ़ौजें पलती हैं. उसकी आदिम उत्तेजना इसी यथास्थिति के विरुद्ध खड़ी होती है.

साहित्य के शुचितावादियों के मुँह पर करारा तमाचा है मित्रों. जिसे जितना बिलबिलाना है, बिलबिलाए. मित्रों कहती है न- ‘जब तक मित्रों के पास यह इलाही ताक़त है, मित्रों मरती नहीं.’

मित्रों जैसे किरदार या कोई रचना कभी मरती नहीं. वह हर युग काल में सलामत रहेगी, मुँह चिढ़ाती हुई. बेहतर हो, कुढ़ने वाले अपनी साधारण समझ को विशेष कर लें.

कृष्णा जी कहीं नहीं गईं, वे हमारी लेखनी में समा गई हैं. जैसे मित्रों ने कहा -‘पता पा गई हूँ, पता पा गई हूँ, मेरे मरहम का दिल कहता है… लाल शरबत ला. ला..लाल पानी ला!’
हमने भी उनका पता पा लिया है. वे कहीं नहीं गईं, अपने किरदारों में, लेखनी में महक उठेंगी.

कृष्णा सोबती का आज सुबह निधन

प्रसिद्ध साहित्यकार और ज्ञानपीठ अवॉर्ड से सम्मानित कृष्णा सोबती का आज सुबह निधन हो गया है. वह 94 साल की थीं. 18 फरवरी 1925 को वर्तमान पाकिस्तान के एक कस्बे में सोबती का जन्म हुआ था. उन्होंने अपनी रचनाओं में महिला सशक्तिकरण और स्त्री जीवन की जटिलताओं का जिक्र सहित राजनीति-सामाजिक मुद्दों पर अपनी मुखर राय के लिए भी जाना जाता है.

(गीताश्री स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं.)

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