scorecardresearch
Monday, 18 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिकाबुल में पैदा हुआ बच्चा हिंदुस्तान आया और कादर ख़ान हो गया

काबुल में पैदा हुआ बच्चा हिंदुस्तान आया और कादर ख़ान हो गया

कादर खान बचपन में कब्रिस्तान जाते थे और वहां अकेले में लोगों की नकल करते. यह बात अशऱफ खान को पता चली तो उन्होंने कादर खान को अपने एक नाटक में काम दिया.

Text Size:

साल 1937. पाकिस्तान के पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान की राजधानी काबुल. एक मुस्लिम परिवार में एक बच्चे का जन्म होता है. उसकी मां को काबुल की आबो-हवा रास नहीं आती है. और वह परिवार सहित मुंबई आ जाती हैं. एक अंजान मुल्क के एक अंजान से शहर में गुजारा करना मुश्किल था.

परिवार मुंबई के एक झोपड़पट्टी कमाठीपुरा में रहने लगता है. यह मुंबई की सबसे खराब झोपड़पट्टी थी. इंसान को बिगाड़ने के हर संसाधन यहां मौजूद थे. उसके घर में खाने के लाले पड़े थे. वालिद अब काम कर पाने में सक्षम नहीं थे. वे पढ़े लिखे थे. उन्हें दस तरह की फारसी और आठ तरह की अरबी का ज्ञान था. मुंबई आकर वे एक मस्जिद में मौलवी बन गए. लेकिन घर की मूलभूत जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे थे.

परिवार में आर्थिक तंगी इतनी हावी हो गई कि जब वह चार साल का हुआ तब उसके माता और पिता एक दूसरे से अलग हो गए. वह अपनी मां के साथ रहने लगा. आठ साल होते-होते उसके तीन और भाई इस दुनिया को अलविदा कह देते हैं. अब उसके मां की दूसरी शादी होती है. वह एक मां और नये बाप के साथ रहने लगा. हालांकि, बच्चे का अपने वास्तविक बाप से भी राब्ता खत्म नहीं हुआ. परिवार की तंगी को दूर करने के लिए आठ साल की उम्र में यह बच्चा काम करने के बारे में सोचने लगा. लेकिन उसकी मां को पढ़ाई का महत्व मालूम था. मां के दवाब बनाने के कारण उसने अपना फैसला बदला. वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने लगा.

रंगमंच की ओर झुकाव

झोपड़पट्टी में गरीबी के दिन काटते हुए 8 साल का यह बच्चा इबादत के लिए मस्जिद जाता था. वहां से वह भाग कर कब्रिस्तान चला जाता और दो कब्रों के बीच जोर-जोर से चिल्लाता. वहां वह अकेले में किसी न किसी इंसान की नकल करने लगता. इसी बीच फिल्म ‘रोटी’ के कलाकार अशऱफ खान एक नाटक तैयार कर रहे थे. ‘वमाज-अजरा’. इसके मुख्य किरदार की खोज चल रही थी. आठ-दस साल का एक ऐसा बाल कलाकार जो चालीस पन्ने लिखने के अलावा उसे दर्शकों के सामने बोल सके. वो भी लाइव.

कुछ लोगों ने अशरफ खान को बच्चे की कब्रिस्तान वाली हरकत के बारे में बताया. इसके बाद अशरफ खान ने कई रातों तक कब्रिस्तान की रेकी की. वे रात में जाते और बच्चे की हरकतें को गौर से देखते. एक दिन उन्होंने खुद आकर पहल की और यहां से इस बच्चे को थिएटर में काम मिला. उसने यहां से जो यात्रा शुरू की, तो सिने जगत के उस मकाम तक पहुंचा, जहां उसका नाम अदाकारी का पर्याय बन गया. दुनिया आज उसे कादर खान के नाम से जानती है.

कादर खान ने मिले मौके को बखूबी भुनाया. नाटक में किए उनके काम को सराहा गया. इसके बाद उन्होंने खूब थिएटर किए और देखते ही देखते पूरे मुंबई के थिएटर कलाकारों के बीच लोकप्रिय हो गए. उनकी लोकप्रियता का आलम इस कदर था कि 2007 में कॉनी होम को दिए एक इंटरव्यू में कादर खान बताते हैं, ‘मैंने बहुत सारे नाटक किये. दो-तीन सालों में मैं कॉलेज के छात्रों के बीच इतना लोकप्रिय हो गया था कि बम्बई के लोग कहने लगे थे कि अगर किसी ने कादर ख़ान के नाटकों में काम नहीं किया तो वह बम्बई के किसी कॉलेज में नहीं गया. दूसरे कॉलेजों के छात्र आकर मेरे ऑटोग्राफ़ ले जाया करते थे. सो पॉपुलर तो मैं जीवन की काफ़ी शुरुआत में हो गया था.’

थिएटर से स्क्रिप्ट राइटर तक का सफर

फिल्म और थिएटर का रिश्ता सुई-धागा जैसा है. फिल्मों में बेहतरीन अदाकारी का ककहरा इंसान थिएटर से ही सीखता है. फिल्मों के निर्माता-निर्देशक और लेखक भी नई-नई प्रतिभाओं को तलाशने थिएटर आते रहते हैं. ऐसे में थिएटर की दुनिया में लोकप्रिय हो चुके कादर खान पर भी निर्माता रमेश बहल की नजर पड़ी. वह फिल्म बनाने जा रहे थे ‘जवानी दीवानी’.

रमेश बहल ने अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने के लिए कादर खान से गुजारिश की. कादर खान ने इसको सहजता से स्वीकारा और कुछ घंटों में ही फिल्म के डॉयलॉग लिख डाले. मेहनताना मिला 1500 रुपये. तब साल था 1972. लेकिन उन्हें बड़ा मुकाम दिया उस समय के सुप्रसिद्ध फिल्मकार और अमिताभ की एंग्री यंग मैन की इमेज गढ़ने वाले मनमोहन देसाई ने.

कहा जाता है कि मनमोहन देसाई एक ऐसा लेखक ढूंढ रहे थे जिसके डॉयलॉग पर दर्शक तालियां बजाएं. कादर खान से उनकी मुलाकात ने ये खोज पूरी कर दी. फिल्म थी रोटी. इसके लिए उन्हें कादर खान की आम बोल चाल वाली लेखन शैली पसंद आई. मेहनताना मिला एक लाख रुपये! इसके बाद वो लिखते चले गए. एक दो नहीं बल्कि 250 से ज्यादा फिल्मों के लिए लिखा.

अमिताभ की ‘कुली’, ‘अमर अकबर एंथनी, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘लावारिस’, ‘कालिया’, ‘नसीब’ आदि सुपरहिट फिल्मों का डॉयलॉग इन्हीं के हिस्से आया. उस समय मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा के दो अलग-अलग गुट थे. कादर खान की ये काबिलियत ही थी कि उन्होंने एक ही समय आपस में इन दो विरोधी गुटों के लिए काम किया.

अभिनय की दुनिया में कदम

1973 में राजेश खन्ना की एक फिल्म आई थी ‘दाग’. इस फिल्म में कादर खान ने एक वकील का रोल निभाया. रोल छोटा था. लेकिन थिएटर में पारंगत कादर खान का वह रोल सराहा गया. दिलीप कुमार को भी उनका काम पसंद आया. उन्होंने कादर खान को दो फिल्में ऑफर कीं. ‘सगीना महतौ’ और ‘बैराग’. इसके बाद उन्होंने शराबी, खून-पसीना, कुर्बानी जैसी फिल्मों में विलेन का रोल किए जो कि पसंद भी किए गए.

एक साथ दर्जनों फिल्मों में काम करते करते उनकी दोस्ती अमिताभ बच्चन से हो जाती है. फिर 1983 में आती है हिम्मतवाला. इसके डॉयलॉग खुद कादर खान ने लिखे और अपनी विलेन वाली छवि से बाहर आने के लिए उन्होंने अपने लिए कॉमेडी वाला रोल भी लिखा. और यहां से उनके लेखन और अभिनय शैली में काफी बदलाव देखने को मिला.

अब तक गोविंदा का भी आगमन हो चुका था. डेविड धवन को गोविंदा का साथ मिल चुका था. अब मनमोहन देसाई, अमिताभ बच्चन और कादर खान की तिकड़ी की जगह डेविड धवन, गोविंदा और कादर खान की तिकड़ी ने ले ली थी. कादर खान तब लेखक थे, अब लड़की के पिता, हीरो के दोस्त जैसे किरदारों में थे.

मशहूर फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज दिप्रिंट से बातचीत में बताते हैं, ‘बतौर लेखक भले ही उन्हें कई बार द्विअ​र्थी संवाद के लिए जाना गया. लेकिन उनका अपना व्यक्तित्व था. पोस्ट अमिताभ यानी 90 का दौर वह अच्छा या बुरा है, उस पर सवाल करें. लेकिन उसको चलाया कादर खान ने. अगर आप कादर खान का मूल्यांकन उस दौर में बनी फिल्मों से करेंगे तभी आप उन्हें सही से आंक पाएंगे.’

फिल्मों से इतर

कादर खान फिल्मों में आने से पहले अध्यापक भी थे. वे सिद्दीकी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाते थे. फिल्म से निकलने के बाद वे बच्चों को पढ़ाते थे.

अजय ब्रह्मात्मज बताते हैं कि कादर खान मुंबई यूनिवर्सिटी के थिएटर में बहुत बड़े जज हुआ करते थे. टैलेंट पहचानना उनकी खूबी थी. कादर खान पिछले कुछ सालों से अपने छोटे बेटे सरफराज के साथ विदेश में बस गए थे. वे सांस की बीमारी से जुझ रहे थे. बीमारी इतनी गहरी थी कि उन्हें नार्मल वेंटिलेटर से हटा कर बीआईपीएपी वेंटिलेटर पर रखा गया था. कादर खान का सोमवार को कनाडा में निधन हो गया. लेकिन उनके लिखे डॉयलॉग, उनकी अदाकारी और उनके हुनर हमेशा जीवंत रहेंगे. मुकद्दर का सिकंदर फिल्म में लिखा उनका एक डॉयलॉग आज याद आ रहा: ‘जिंदा हैं वो लोग जो मौत से टकराते हैं, मुर्दों से बदतर हैं वो लोग जो मौत से घबराते हैं.’

share & View comments