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Friday, 29 March, 2024
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आखिरी बार एक बॉलीवुड सुपरस्टार ने पर्दे पर कब निभाया था दलित किरदार?

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रजनीकांत की नवीनतम फिल्म काला की मौजूदगी यह दर्शाती है कि दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग उन फिल्मों से भी लाभ अर्जित कर सकता है जो जाति के बारे में बात करती हों।

हैदराबाद: उच्च जाति वर्ग के प्रभुत्व वाले के एक उद्योग में निर्देशक पा रंजीथ ने कहा कि तमिल सुपरस्टार रजनीकांत द्वारा अभिनीत उनकी नवीनतम फिल्म काला भारतीय सिनेमा में दलित प्रतिनिधित्व को फिर से पारिभाषित करने का एक प्रयास है।

एक विषय के रूप में जाति मुख्यधारा के बॉलीवुड सिनेमा में आम नहीं है। हालाँकि, फिल्म काला की मौजूदगी यह दर्शाती है कि दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग उन फिल्मों से भी लाभ अर्जित कर सकता है जो जाति के बारे में बात करती हों।

तो बॉलीवुड ने बेहतर दलित प्रतिनिधित्व वाली फिल्मों में अपने हाथ क्यों नहीं आजमाए? और आखिरी बार एक मुख्यधारा के नायक ने खुलेआम एक दलित किरदार कब निभाया था?

जाहिर है, 80 के दशक में।

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बॉलीवुड में जाति आधारित भूमिकाएं

दिल्ली विश्वविद्यालय में फिल्म लेखक और प्रवक्ता मिहिर पांड्या ने कहा कि फिल्मों ने हमेशा उन पात्रों और कहानियों को चित्रित करने की कोशिश की है जिन्हें लोग पहचान सकें जिससे दर्शकों को उन फिल्मों को देखने के लिए आकर्षित किया जा सके।

पांड्या ने कहा कि स्वतंत्रता पूर्व के समय में, विशेष रूप से 1930 और 1940 के दशक में बनाई गयी फिल्मों में बहुत ही कम महत्व रखने वाले किरदारों की कहानियां थीं क्योंकि इसने औपनिवेशिक भारतीय सन्दर्भ को अपने साथ जोड़ लिया था। एक फिल्म आलोचक शोमा चटर्जी ने 1936 में अशोक कुमार अभिनीत एक फिल्म अछूत कन्या का इसके एक उदहारण के रूप में जिक्र किया। 1959 में रिलीज़ हुई बिमल रॉय की फिल्म सुजाता ऐसी ही एक और फिल्म थी जहाँ एक लोकप्रिय अभिनेत्री नूतन ने एक मुख्यधारा की फिल्म में एक दलित का किरदार निभाया था।

चटर्जी ने कहा कि दलित नायकों के किरदार वाली आखिरी फिल्में 80 के दशक में आयीं थीं और उन्होंने स्पष्ट किया कि “मेरे अनुसार सभी बड़ी फिल्में अन्य युग से ताल्लुक रखती हैं।”

उन्होंने कहा “आक्रोश (1980) ओम पुरी और स्मिता पाटिल को एक दलित जोड़े के रूप में प्रस्तुत करती है और दिखाती है कि इस पहचान को तोडना कितना मुश्किल है। अन्य फिल्मों में फिर से ओम पुरी की मुख्य भूमिका के साथ सत्यजीत रे की सदगति (1981) और गौतम घोष की नसीरुद्दीन शाह द्वारा अभिनीत फिल्म पार (1984) शामिल हैं।

हालांकि, यह उल्लेखनीय है कि पुरी, शाह, पाटिल और इनके जैसे अन्य, मुख्यधारा के किनारे पर रहने वाले समानांतर सिनेमा आंदोलन के सितारे थे।

पांड्या ने कहा कि हिंदी सिनेमा की शुरुआत कुछ दलित पात्रों के साथ हुई थी और उदारीकरण के बाद भी उनकी संख्या कम ही थी।

पांड्या ने कहा, “बॉलीवुड जाति-वर्ग के प्रति बहुत जागरूक है। फिल्मों में जाति का जिक्र बिलकुल नहीं होता है, और यदि वे ऐसा करते हैं भी हैं तो वे इसका जिक्र बहुत ही सामान्य तरीके से करते हैं।” बॉलीवुड में कई फिल्में हैं जिन्हें उन्होंने “डकू कैरेक्टर” या बैंडिट्स के रूप में संदर्भित किया है, जिन्हें निचली जाति माना जाता है।

उन्होंने कहा, “आप पहचान सकते हैं कि पात्र शायद दलित हैं, लेकिन आप पुष्टि नहीं कर सकते कि वे दलित हैं।”

अशोक विश्वविद्यालय में एक फिल्म आलोचक और प्रोफेसर हरिहरन ने इसपर सहमति जताई। उन्होंने कहा, “मेनस्ट्रीम सिनेमा ‘उच्च वर्ग’ और ‘निम्न वर्ग’ की बाइनरी पर काम करता है, पात्र या तो ‘उच्च वर्ग’ या ‘निम्न वर्ग’ का होता है। इसके विशेष पहलू को कभी महत्व नहीं दिया जाता है।”

बॉलीवुड में, रजनीकांत के कद के कलाकारों ने कभी खुले तौर पर दलित का किरदार नहीं निभाया है। व्यावसायिक रूप से सफल पिछली फिल्म हाईवे थी जिसमें अभिज्ञेय रूप से निम्न जाति का किरदार निभाया गया था, जिसमें रणदीप हुड्डा एक गुज्जर की भूमिका में थे।

चटर्जी ने 2010 में बनी फिल्म आक्रोश में दलित नायक के रूप में अजय देवगन का भी उल्लेख किया।

हरिहरन ने कहा कि लोकप्रिय बॉलीवुड सितारों ने भी जाति से संबंधित फिल्मों में अभिनय किया है, जैसे अमिताभ बच्चन और सैफ अली खान-अभिनीत आरक्षण, उन्होंने कभी भी दलित मुद्दों को नहीं दर्शाया है बल्कि इसके बजाय सकारात्मक कार्रवाई और राजनीतिक चुनावों जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला है।

मुख्यधारा में क्यों कम हैं दलित हीरो?

हरिहरन कहते हैं कि फिल्मों का कथानक लिखते समय उसमे आमतौर पर जातीय-स्थित को इंगित नहीं किया जाता है क्योंकि इस प्रकार के किसी भी चरित्र की पहचान को परिभाषित करने के लिए अतिरिक्त समय और कौशल की आवश्यकता होती है। जब तक यह कहानी के लिए केन्द्रीय नहीं होता है, फिल्म निर्माता केवल यह इंगित करते हैं कि चरित्र जाति और वर्ग पदानुक्रम में कहाँ है।

न्यूटन भी इसी प्रकार की एक फिल्म है, जोकि 2017 में भारत में समीक्षकों द्वारा सबसे ज्यादा चर्चित फिल्मों में से एक थी। राजकुमार राव द्वारा निभाया गया चरित्र निचली जाति का है, लेकिन फिल्म में जानबूझ कर इस चरित्र को “जाति-मुक्त” दलित जिसे संरचनात्मक उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ता है के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया गया था , जिसके वजह से फिल्म की काफी आलोचना हुई थी।

हालांकि, हरिहरन का कहना है कि भारतीय भाषाओं में छोटे शहरों या ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित सिनेमा में मुख्यधारा के सिनेमा की तुलना में इस विषय को अधिक दिखाया जाता है।

उन्होंने कहा, “मुख्यधारा की हिन्दी सिनेमा शहरी क्षेत्र में इतनी अधिक (प्रचलित) रही है कि जाति कभी भी एक मुद्दा नहीं रहा।“ “दूसरी ओर, क्षेत्रीय सिनेमा इस विषय को और अधिक तीव्रता से चित्रित करता है।“ हरिहरन ने कहा कि शहरी क्षेत्रों में क्षेत्रीय सिनेमा को हिन्दी सिनेमा से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है, इसी कारण कई फिल्म निर्माता कहानियों की तलाश में अधिक अज्ञात ग्रामीण क्षेत्रों या छोटे-छोटे स्थानों पर जाते हैं।

क्षेत्रीय फिल्में जैसे मराठी में प्रशंसित दलित निर्देशक नागराज मंजुले द्वारा निर्देशित फिल्म सैराट, मलयालम में कममतिपादम और काला इसी प्रकार की कुछ सफल फिल्में हैं।

पांड्या ने कहा कि दलितों पर आधारित फिल्में उत्तर भारतीय सिनेमा में उतनी मुख्यधारा में नहीं हैं जितनी वह दक्षिण भारत में है। उन्होंने समझाया कि तथाकथित काउ-बेल्ट (बिहार,मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) में कांशीराम और मायावती के साथ दलितों का विषय मुख्यधारा बन गया है, जबकि यह तमिलनाडु जैसे राज्यों में अधिक निर्णायक रहा है।“

अमिताभ बच्चन एक दलित नायक के रूप में?

हरिहरन के अनुसार, बॉलीवुड एक हॉलीवुड, जिसमें जाति व्यवस्था का कोई मुद्दा नहीं है, पर आधारित उद्योग मॉडल है। इसके बजाए, हॉलीवुड में कहानियां वर्ग मतभेदों पर अधिक केंद्रित रहती हैं। यहां तक की नस्लवाद के मुद्दे ने भी मुख्यधारा के हॉलीवुड कथानकों में हाल ही में प्रवेश किया है।

हांलाकि, पांड्या ने कहा कि भविष्य में बॉलीवुड की मुख्यधारा में निश्चित रूप से दलित नायक होंगे।

उन्होंने यह भी कहा कि “क्षेत्रीय सिनेमा बॉलीवुड सिनेमा को प्रभावित कर रहा है”। उदाहरण के तौर पर “हिंदी फिल्मों में बहुत सारी फिल्में फिर से बनाई जा रहीं हैं इसलिए इस तरह की कहानियां निश्चित रूप से क्षेत्रिय सिनेमा होंगी।

नागराज मंजुले की जबरदस्त फिल्म सैराट, जो एक निम्न जाति के लड़के और ऊपरी जाति की लड़की के बीच की एक क्लासिक लव स्टोरी है, को करन जौहर के बैनर द्वारा हिन्दी में पुनः नामकरण करके “धड़क” नाम से पेश किया गया है।

असल में, मंजुले अपनी पहली हिंदी फिल्म झुंड को निर्देशित करने के लिए तैयार हैं, जिसमें अमिताभ बच्चन प्रमुख भूमिका में हैं। पांड्या ने मंजुले के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए अनुमान लगाया कि, उनकी नई फिल्म निश्चित रूप से जाति आधारित होगी और उसमें एक दलित नायक होगा।

मेरे अनुमान के गलत साबित होने के जोखिम के साथ, अमिताभ बच्चन जैसे राष्ट्रीय आइकॉन को एक दलित किरदार की भूमिका में देखना इसके अपेक्षित दृश्य से कहीं अधिक उग्र हो सकता है।

Read in English: When was the last time a Bollywood superstar played a Dalit on screen?

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