गुजरात का एक ऐसा गांव जहां सिर्फ मर्दों की हुकूमत चलती है, जहां औरतों को आवाज़ उठाने का अधिकार नहीं है. इसीलिए तो जयेशभाई की पत्नी मुद्रा बेन को एक बेटी देने के बाद छह बार गर्भ गिराना पड़ा क्योंकि परिवार को तो अब लड़का ही चाहिए.
मगर इस बार भी उसे लड़की होने वाली है, तो जयेशभाई फैसला करता है कि वह अपने परिवार को लेकर कहीं दूर भाग जाएगा. लेकिन भागना इतना आसान कहां होता है?
अपने यहां जन्म से पहले बच्चे का लिंग पता लगाना भले ही कानूनन अपराध हो लेकिन लड़के की चाहत में यह काम दबे-छुपे कहीं-कहीं आज भी होता है. यह फिल्म इसी काम को गलत ठहराने और जयेश, मुद्रा व उनकी बेटी सिद्धि के अपने ही परिवार वालों से बचने-भागने के संघर्ष को दिखाती है. साथ ही यह फिल्म गुजरात के इस गांव में औरतों की दुर्दशा की बात करती है और लगे हाथ हरियाणा के एक ऐसे गांव की तस्वीर भी दिखाती है जहां कन्या भ्रूण हत्या के चलते अब गांव में सिर्फ मर्द ही मर्द बचे हैं.
ऊपर से देखने में कहानी अच्छी लगती है. लेकिन असल में इसका सिर्फ प्लॉट अच्छा है. इस प्लॉट के इर्द-गिर्द जो कहानी बुनी गई है वह बहुत साधारण है. किसी कारण से भागते नायक-नायिका और गाड़ियों में भर-भर कर उनके पीछे भागते उन्हीं के घरवालों की कहानियां हमने कई बार देखीं. ऐसी कहानियों में जो तनाव, जो चुभन होती है, वह यहां लापता है. उस पर से इस साधारण कहानी के चारों तरफ जो पटकथा लपेटी गई है वह निहायत कमजोर है. जिस किस्म की भागम-भाग और घटनाएं हो रही हैं, जिस किस्म के संवाद बोले जा रहे हैं, जिस तरह की हरकतें इस फिल्म के किरदार कर रहे हैं, यह स्पष्ट ही नहीं होता कि इसे बनाने वालों को मकसद हमें इमोशनल करना है, हंसाना या फिर हंसी-हंसी में गंभीर संदेश देना? दरअसल फिल्म के लेखक दिव्यांग ठक्कर की कोशिश तो यही रही होगी कि हंसी-हंसी में कुछ सार्थक मैसेज दे जाएं लेकिन उन्होंने जो लिखा और बतौर निर्देशक उसे जिस तरह से पर्दे पर उतारा, उससे हुआ यह कि एक गंभीर, इमोशनल मुद्दा हंसी में उड़ गया और हंसी भी कैसी, जिसे आप कॉमेडी नहीं कह सकते, जिसे आप एन्जॉय नहीं कर सकते, बस देख सकते हैं और देख कर भूल सकते हैं.
यही इस फिल्म की कमज़ोरी है, यही इस फिल्म का हासिल है. अंत में ‘पप्पी लेने-देने’ वाले प्रसंग ने फिल्म की रही-सही खिल्ली भी उड़ा दी.
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फिल्म में ढेर सारे रंग-रंगीले लोग होने के बावजूद यह फिल्म भरी-पूरी नहीं है बल्कि ये लोग फिल्म में भीड़ और शोर बढ़ाने का ही काम करते हैं. किसी भी किरदार को यह फिल्म कायदे से उठा नहीं पाती, ऊपर से इन किरदारों में आए कलाकार भी औसत ही रहे। बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह जैसे लोग भी अगर साधारण लगें तो कसूर किस का माना जाए-उनके किरदारों का ही न, जिन्हें लिखा ही हल्के से गया? मुद्रा बनीं शालिनी पांडेय, जयेश की बहन बनीं दीक्षा जोशी व अन्य सभी टाइम पास करते दिखे.
पुनीत इस्सर थोड़े जंचे और रणवीर सिंह की मेहनत भी महसूस हुई लेकिन उनका किरदार कहीं से भी ‘जोरदार’ नहीं है. उलटे पूरी फिल्म में वह दब्बू, भगौड़े, नाकारा ही लगे. सबसे मजेदार, असरदार काम तो रहा रणवीर की बेटी बनीं जिया वैद्य का. इतना सहज, सरल, असरदार, चुहलदार अभिनय कि देखते ही जाएं.
फिल्म का गीत-संगीत ठीक-ठाक सा है. बैकग्राउंड म्यूजिक में शोर ज्यादा है. लोकेशन अच्छी, कैमरा बढ़िया, एडिटिंग कसी हुई लेकिन फिर भी दो घंटे की फिल्म सही नहीं जाती क्योंकि यह फिल्म कुछ ‘कहना’ चाहते हुए भी खुल कर नहीं कह पाती. दरअसल इस किस्म के विषय पर या तो जोरदार हार्ड-हिटिंग ढंग से बात हो या बहुत सारे इमोशंस जगा कर रुलाने वाले तरीके से, और नहीं तो ब्लैक कॉमेडी के जरिए ही कुछ कहा जाए. लेकिन यहां तो सब कुछ डाल कर भी कोई असर नहीं आ पाया. नाम से जोरदार होने का दावा करती यह फिल्म असल में शोर ज्यादा मचाती है और बोर ज्यादा करती है.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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