अवधी के बहुचर्चित साहित्यकार और कांग्रेस के नेता जगदीश पीयूष ने बीते शुक्रवार की रात अपने गृह जनपद अमेठी के मुंशीगंज स्थित संजय गांधी अस्पताल में आंखें मूंदीं तो अवधी ने अपना बेहद समर्पित सेवक और गांधी परिवार ने आत्मीय समर्थक खो दिया.
इकहत्तर (71) साल के पीयूष पिछले दो हफ्तों से गंभीर रूप से बीमार थे और दो दिन पहले उन्हें उक्त अस्पताल में भर्ती कराया गया था. इससे पहले 12-13 दिन लखनऊ स्थित मेदांता अस्पताल में भी उनका इलाज चला था. वहां के डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें इस अस्पताल में लाया गया तो उनकी स्थिर हालत से उम्मीद हो चली थी कि वे मृत्यु के विरुद्ध जिंदगी की जंग जीत लेंगे. लेकिन शुक्रवार की रात उन्होंने अचानक आखिरी सांस लेकर इस संसार को अलविदा कह दिया और अपने प्रशंसकों को शोकमग्न कर गये.
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साहित्य और राजनीति में रूचि
पीयूष का जन्म सुल्तानपुर (अब अमेठी) जिले के संग्रामपुर ब्लॉक के कसारा गांव में 27 जुलाई, 1950 को एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था और होश संभालते ही उनकी साहित्यिक व राजनीतिक अभिरुचियां प्रकट होने लगी थीं. वे यावतजीवन अवधी के उत्थान के प्रति समर्पित रहे और न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि संपादन कर्म से भी उसे समृद्ध किया. उसे बोलने वालों को वे उसकी कई खंडों में प्रकाशित चार हजार पृष्ठों की अवधी रचनावली भी दे गये हैं, जिसे उनके कुशल संपादनकर्म की बड़ी नजीर माना जाता है और उनका सबसे बड़ा काम भी.
जहां तक उनकी साहित्य सेवाओं के सम्मान की बात है, उन्हें एक के बाद एक विश्व हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सम्मेलन, न्यूयॉर्क, अमेरिका), मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, जायसी सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान) और ‘माटीरतन’ सम्मान (अशफाक उल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान) मिले थे.
उन्होंने अरसे तक ‘बोली-बानी’ नाम से अवधी की अनियतकालिक पत्रिका निकाली, फिर ‘लोकायतन’ भी. इनमें ‘बोली-बानी’ अवधी के सर्किल में बहुत लोकप्रिय थी ओर अवधी को बोली के बजाय भाषा के दर्जे की हिमायत करती थी. कारण यह कि पीयूष उसमें बिना किसी राग-द्वेष या खेमेबंदी के अवधी साहित्य की विभिन्न विधाओं के छोटे बड़े सभी रचनाकारों को समुचित स्थान दिया करते थे. अवधी साहित्य की कई विधाओं को वे अपनी खुद की सर्जना से भी समृद्ध कर गये हैं. समय के साथ उन्होंने अवधी लोककथाओं पर भी काम किया और कई अन्य पुस्तकों के साथ ‘किस्से अवध के ’ नाम से किस्सों की एक पुस्तक भी लिखी. गांधी-नेहरू परिवार की देशसेवाओं पर तो उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं.
अयोध्या में शहीद अशफाकउल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान के प्रबंध निदेशक सूर्यकांत पांडेय बताते हैं कि 2009 में पीयूष उनके संस्थान के अनुरोध पर उसके द्वारा अशफाक के शहादत दिवस पर हर वर्ष दिया जाने वाला प्रतिष्ठित ‘माटी रतन ’ सम्मान ग्रहण करने आये तो यह बताये जाने पर बहुत प्रसन्न हुए थे कि देश के लिए शहीद हुई किसी विभूति के नाम पर दिया जाने वाला यह अपनी तरह का अनूठा सम्मान है.
फैजाबाद के हृदयस्थल में स्थित फार्ब्स इंटर कालेज में आयोजित सम्मान समारोह में अपने संबोधन में उन्होंने अवधी को बोली की जगह भाषा का दर्जा देने की वकालत की थी. उनका तर्क था कि अवधी महज अवध में ही नहीं, कई अन्य देशों में बोली जाती है, जिनमें नेपाल और मारीशस मुख्य हैं.
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गांधी परिवार के करीबी
पीयूष लंबे अरसे तक कांग्रेस की राजनीति में भी सक्रिय रहे. अमेठी के गांधी परिवार की कर्मभूमि बनने के बाद वे उसके अत्यंत करीबियों में से एक हो गये थे. उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी आपातकाल में संजय गांधी के साथ शुरू की थी, लेकिन संजय नहीं रहे तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा. समय के साथ वे राजीव गांधी के भी उतने ही निकट हो गये. उनके प्रधानमंत्रीकाल में उनके मीडिया प्रभारी तो रहे ही, उनकी गांधी परिवार के सदस्य जैसी ही प्रतिष्ठा रही. संजय के समय वे उनकी बनाई कई चुनाव समितियों में ही नहीं, रेलवे बोर्ड की हिंदी सलाहकार समिति में भी रहे. राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उन्हें रूस के युवा सम्मेलन में भाग लेने भेजा.
1984 में ‘अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका’ और ‘अमेठी का बिगुल, बेटवा राहुल’ जैसे लोकप्रिय नारे भी पहले-पहल उन्होंने ही दिये थे. इससे पहले उन्होंने इलाहाबाद के हिन्दी दैनिक ‘भारत’ के लिए पत्रकारिता भी की थी. कुछ दिनों तक अपना ‘अमेठी समाचार’ भी प्रकाशित किया था.
मशहूर गीतकार मनोज मुंतशिर ने उनके निधन पर शोक जाहिर करते हुए उन्हें पितातुल्य, अवधी का वरद-पुत्र और अमेठी का पहला सेलीब्रिटी बताया है. उन्होंने लिखा है, ‘जगदीश पीयूष नहीं रहे तो मेरे बचपन के कई पन्ने एक साथ मिट गए. वह मार्गदर्शक चला गया, जिसने पहली बार कवि सम्मेलन में मुझे 300 रूपए की फीस दिलवायी थी. मेरा वह साथी चला गया, जो पिछले 30 सालों में मेरी हर छोटी-बड़ी कामयाबी पर निहाल होता रहा. मैंने क्या खो दिया, ये सिर्फ मेरा दिल जानता है.’
पीयूष के निकटवर्ती सूत्रों के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति में आईं तो वे बहुत खुश हुए थे.
उन्होंने ‘दिप्रिंट हिन्दी’ की संपादक रेणु आगाल को एक साक्षात्कार में बताया था, ‘बड़े बुजुर्ग जिस तरह से पूत के पांव पालने में ही देख लिया करते थे, उसी तरह मैंने प्रियंका और राहुल को लेकर भविष्यवाणी कर दी थी. 1984 में, जब राहुल और प्रियंका छोटे बच्चे थे, मुझे वे उगते सूरज से दिखे. बहुत आभा थी उनमें. इसलिए मैंने ‘अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका’ और ‘अमेठी का बिगुल, बेटवा राहुल’ नारे दे डाले. हां, राहुल और प्रियंका को मैंने 10-12 साल की उम्र से ही देखा है, जब वे अपने पापा के साथ अमेठी आते थे और बहुत उछल-कूद करते थे. उस समय मैं खुद भी कांग्रेस में बहुत सक्रिय था. 12-13 साल की उम्र में गांव-गांव जाकर कांग्रेस का चुनाव प्रचार करता था.’
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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