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Wednesday, 25 December, 2024
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हस्तमैथुन पाप है? कामसूत्र की जननी भारत में Sex एजुकेशन के इर्द गिर्द घूमती फिल्म है OMG-2

भारतीय माता-पिता और शिक्षक बच्चों के साथ सेक्स के बारे में खुलकर बात करने से आज भी कतराते हैं? स्कूलों में पीरियड्स पर बात क्यों नहीं होती? इंटरनेट पर पोर्न आसानी से उपलब्ध है, लेकिन स्कूलों में सेक्स एजुकेशन पर बैन है. कुछ ऐसे ही सवालों का जवाब तलाश रही है फिल्म OMG-2.

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नई दिल्ली: भारत में सेक्स एजुकेशन क्यों ज़रूरी है, या इस पर बात खुल कर क्यों करनी चाहिए, 90 के दशक से ये हमेशा विवादों का विषय रहा है. साहित्य और सिनेमा समाज का दर्पण होते हैं, लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर आमतौर पर सिनेमा जगत बंटा है और ये कभी-कभार खुलकर सामने आता है.

शुक्रवार को भारत में रिलीज़ हुई 2012 की ब्लॉकबस्टर फिल्म ओह माय गॉड (OMG) की सिक्वल ओएमजी-2 इसी तरह के विषय पर आधारित है.

महाकाल की नगरी में शिव के कट्टर भक्त, कांति शरण मुद्गल (पंकज त्रिपाठी) के बेटे विवेक (आरुष वर्मा) को अश्लील हरकतें करने के चलते प्रतिष्ठा पर आंच आने के कारणों का हवाला देकर स्कूल से निकाल दिया जाता है, जिसके बाद अपने बेटे की खातिर धर्म, लिंग पर अपने विचारों और सामाजिक मानदंडों पर सवाल उठाने के लिए पिता को मजबूर होना पड़ता है. हालांकि, वो आधुनिक विषय को चुनौती ज़रूर देते हैं, लेकिन सनातनी मान्यताओं को आधार बनाकर, कांति कहते हैं- ‘‘जब पूरी दुनिया करवट ले रही थी, तब हमारा सनातन हिंदू धर्म दौड़ लिया था महाराज’’.

समाज में प्रचलित मान्यताएं कि क्या हस्तमैथुन करना पाप है? मर्दानगी औरतों के साथ बिस्तर में देर तक वक्त बिताने में है या उसके सुख की कद्र करने में? गुप्तांग के साइज़ के छोटे या बड़े होने से क्या फर्क पड़ता है या भारत में ऐसी कोई दवाई नहीं कोई तरीका नहीं जो पुरुषों के गुप्तांगों के साइज़ को बढ़ाने कारगर साबित हो.

हां, कथित तौर पर कुछ दवाइयां मौजूद हैं जो उत्तेजना को ज़रूर बढ़ाती हैं, लेकिन उन्हें इस्तेमाल करने के तरीके क्या हैं, बच्चों को यह सब समझाने की ज़रूरत क्यों है, हममें से कितने लोग अपने माता-पिता के सामने किसी फिल्म में प्रेम-प्रसंग दृश्य देखने में सहज हैं? योनि और लिंग को गुप्तांग का नाम क्यों दिया जाता है!

भारत को कामसूत्र की भूमि माना जाता है, फिर भारतीय माता-पिता और शिक्षक बच्चों के साथ सेक्स के बारे में खुलकर बात करने से क्यों कतराते हैं? स्कूलों में पीरियड्स पर बात क्यों नहीं होती? इंटरनेट पर पोर्न आसानी से उपलब्ध है, लेकिन स्कूलों में सेक्स एजुकेशन पर बैन है. दसवीं क्लास की साइंस की किताब में रिप्रोडक्शन के चैप्टर को स्किप करके क्यों पढ़ाया जाता है, ‘‘अगर ये सब अश्लील है तो अजंता-एलोरा, खजुराहों की गुफाओं में चित्र बच्चों को फ्री में, बूढ़ों को 100-150 का टिकट लगाकर क्यों दिखाए जाते हैं,’’ जैसे सवालों का जवाब तलाशती है.

दर्शकों के बीच पकड़ बनाने में फिल्म को कम से कम 20 मिनट का समय लगता है. अगर आप पुरानी फिल्म की अवधारणा बनाकर इसे देखने जा रहे हैं कि इस बार भी भगवान इन्श्योरेंस के पैसे चुकाएंगे, तो शायद आपको थोड़ा निराश होना पड़ सकता है, क्योंकि ओमएजी-2 प्रगतिशील होने के बावजूद आपसे पुरानी जड़ों की तरफ लौटने का आह्वान करती है. कांजी लाल मेहता सच्चे नास्तिक थे, लेकिन कांति शरण मुद्गल में आपको एक सच्चा आस्तिक दिखाई देगा, जो माथे पर हर समय चंदन लगाए रखता है और आस्था में जीता है ‘‘रख विश्वास तू है शिव का दास या तू है शिव के पास’’ जैसे डायलॉग इसकी पुष्टि करते दिखाई देते हैं.


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कहानी सेक्स पर शिक्षा की

कहानी कुछ यूं शुरू होती है, उज्जैन नगरी में हर तरफ भक्त महाकाल की लीला में मगन है, कांति मंदिर के पास पूजा की दुकान चलाते हैं, जिन्हें एक देखभाल करने वाला पति, दो बच्चों का ख्याल रखने वाला पिता, और आमतौर पर एक दयालु व्यक्ति कहा जा सकता है. इस मिडिल क्लास परिवार को आप साहित्यकार अमरकांत की बहुचर्चित कहानी दोपहर का भोजन’ से जोड़ सकते हैं, जो कि मध्ययमवर्ग का प्रतिनिधित्व करता है. विवेक हॉस्पिटल में है क्योंकि उसने कुछ ऐसा किया है, जिसे समाज में ‘‘पाप’’ माना जाता है. स्कूल के डांस प्रोग्राम में पार्टनर बदल देने के बाद, दूसरे बच्चे उसकी मर्दानगी पर सवाल उठा रहे हैं, जिससे विवेक कुछ ऐसे काम में उलझ जाता है और उसकी फिजिकल और मेंटल हेल्थ प्रभावित होने लगती है. घटना से संबंधित एक वीडियो जिसमें विवेक को स्कूल के शौचालय में हस्तमैथुन (‘सेल्फी’ लेते हुए- एक स्लैंग) करते हुए दिखाया गया है, के वायरल होने के बाद स्कूल अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए विवेक को निकाल देता है. सामाजिक बहिष्कार से परेशान लड़कपन में विवेक दो बार आत्महत्या की कोशिश करता है जिसके बाद कांति परिवार बेटे के आत्मविश्वास को जगाने की जुगत में लग जाता है. इस काम में इस बार शिवगण के तौर पर अक्षय कुमार उनकी मदद के लिए आते हैं.

कांति बेटे को हुए मानसिक उत्पीड़न के लिए स्कूल पर मुकदमा करते हैं और इस दौरान बाबाओं, सेक्स थेरेपिस्ट, एक डॉक्टर और एक केमिस्ट को और अपने आप को भी अदालत में घसीटते हैं. स्टूडेंट्स के लिए सेक्स एजुकेशन की ज़रूरत, सूचना के अधिकार के प्रति लापरवाही बरतने के लिए विशिष्ट शैक्षणिक संस्थान को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. स्कूल की तरफ से कामिनी माहेश्वरी (यामी गौतम) वकालत करती हैं, जो कि आधुनिक युग की महिला हैं, लेकिन उनका तर्क है कि ‘हस्तमैथुन एक पाप है’, हमारा रूढ़िवादी समाज अभी तक यौन शिक्षा के लिए तैयार नहीं है स्कूलों में अगर यह सब पढ़ाया जाएगा तो औरतें सड़कों पर सुरक्षित नहीं रहेंगी और यही कारण है कि इन अंगों को निजी अंग कहा जाता है. उनके विरोधाभासी विचार, कोर्ट के न्यायाधीश पुरुषोत्तम नागर (पवन मल्होत्रा) के सामने मौखिक आदान-प्रदान की कहानी बनाते हैं. फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा में कुछ छूट लेती है क्योंकि आप आसानी से बता सकते हैं कि नैतिक आधार पर लड़ी गई कानूनी लड़ाई कौन जीत रहा है, लेकिन देसी मान्यताओं को प्रगतिशील आवाज़ बनाते हुए भी ये दिलचस्प है और आपको हंसाते हुए कुछ ज़रूरी मुद्दों पर सोचने पर मजबूर करेगा.

कामिनी कॉन्फिडेंट हैं और मामले को सेटल करने के लिए कांति के परिवार को भी कोर्ट में घसीटती हैं, लेकिन पारिवारिक एकता और सूझबूझ के आगे उन्हें झुकना पड़ता है. अपनी बात को साबित करने के लिए कांति ने कामशास्त्र, पंचतंत्र, गीता, कामासूत्र, चरक संहिता से लेकर अजंता-एलोरा, खजुराहों की गुफाओं में बने चित्र, हैदराबाद में महिला के साथ बलात्कार की घटना, भारत में पॉर्न साइट देखने वाले युवक-युवतियों के डेटा का सहारा लेते हैं बशर्ते इसे पढ़-लिखकर डाला गया है, सिर्फ कहने के लिए नहीं रखा गया है. वो शिव ‘लिंग’ का संदर्भ देते हुए मानव शरीर का एक चार्ट दिखाते हैं, जहां वो यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि स्कूलों को यौन शिक्षा कैसे देनी चाहिए, तब वे लिंग को ‘लिंग’ और योनि को ‘स्त्री की योनि’ कहते हैं और किसी भी बिंदु पर यह सुनना असहज नहीं लगता है.

यदि पुरुष अपनी यौन आवश्यकताओं और सीमाओं के बारे में अधिक जानें तो शायद देश में महिलाएं अधिक सुरक्षित हो सकती हैं? इसके लिए सेक्स वर्कर का छोटा किरदार और क्लाइमेक्स आपको तालियां मारने पर मजबूर कर देता है.


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OMG से कितनी अलग है OMG-2

सीक्वल का मूल फिल्म से आगे निकलना दुर्लभ है, लेखक-निर्देशक अमित राय की चतुर और कुरकुरा कोर्टरूम कॉमेडी इस विशाल कार्य को पूरा करती है. इसे उमेश शुक्ला की ओएमजी ओह माय गॉड का आध्यात्मिक सीक्वल! कहा जाए तो इसमें अतिश्योक्ति नहीं होगी. डायरेक्टर ने यथास्थिति को चुनौती दी है और फिर भी धर्म, गरिमा और भारत के पारिवारिक मूल्यों की पवित्रता को कायम रखा है.

जैसे- ‘‘जो काम छिप कर किए जाएं ज़रूरी नहीं कि वो गलत ही होते हैं’’, ‘‘बच्चे गिल्ट में मर जाते हैं, उसका पिता नहीं दोस्त बनिए’’, ‘‘पिछली बार गुस्सा आया था, तो 13 दिन लगे थे ठंडा होने में’’, ‘‘गंगा कहा से बहती है उसके बारे में मुझे मत बताना’’, ‘‘जब पूरी दुनिया करवट ले रही थी, तब हमारा सनातन हिंदू धर्म दौड़ लिया था महाराज’’, ‘‘आंख-नाक, छाती-पेट, घुटने-पैर- पेट के नीचे-घुटने के ऊपर कोई बात ही नहीं करना चाहता’’, ‘‘लुल्ली, गुल्ली, छुल्ली ये सब कह सकते हैं, लेकिन पढ़ा नहीं सकते’’.

प्रतीकों के तौर पर अक्षय कुमार के पीछे शिव के वाहन नंदी का चलना, शिव की तरह मदिरापान करने विवेक के ज़हर पीने पर शिवगण के कंठ में नील लग जाने का इस्तेमाल किया गया है. पार्क में घूमने के समय को ‘चूमने का समय’ दिखाने, शिप्रा नदी, मंदिर के नए कोरिडॉर, महाकाल की भस्म आर्ती के नज़ारे और ग्राफिक्स को ठीक से दिखाया गया है. शिव भक्त कैलाश खैर और हंसराज रघुवंशी की आवाज़ में गाए गए गीत इसकी धार्मिकता को और मजबूती देते नज़र आते हैं. हिंदी भाषा पर ज़ोर देना, मध्य प्रदेश/बुंदेलखंडी एक्सेंट (तम-तम और हाउ-हाओ) में बात करना पंकज त्रिपाठी का अंदाज़ आपको गुदगुदा सकता है. हालांकि, 2012 से 2023 तक काफी कुछ बदल गया है. कांजी लाल तब लोगों को ऊपरवाले पर चढ़ावा देने पाखंड करने से रोक रहे थे, लेकिन कांति यहां प्रभु की शरण में रह कर ओझा, झोलाछापों से दूर रहने पढ़ाई-लिखाई को सुदृढ़ बनाने के लिए लड़ते हुए नज़र आ रहे हैं.

उनके द्वारा बोले गए डायलॉग से लेकर हरेक हाव-भाव तक, यह इतना सूक्ष्म और अच्छी तरह से प्रस्तुत किया गया है कि इसके लिए तालियां बजती रहती हैं. भाषा पर उनकी पकड़ बेजोड़ है, हालांकि, कई बार शुद्ध हिंदी डायलॉग को संभालना थोड़ा मुश्किल हो जाता है.

अपराधबोध और गुस्से के बीच फंसे पिता की भूमिका में पंकज त्रिपाठी बेहतरीन हैं और कईं बार अकेले पूरी फिल्म संभालते हुए नज़र आ रहे हैं. यामी गौतम ईमानदार हैं, लेकिन एक खतरनाक वकील के रूप में पेश करने की कोशिश काम नहीं करती. पत्नी, बेटी, सहयोगी के किरदार बहुत कुछ न कहते हुए भी छाप छोड़ जाते हैं.

अक्षय कुमार का किरदार और गेट-इप गतिरोधों, देवतुल्य मुस्कान, हरे रंग की पैंट, स्वेटर, जटाओं के साथ एक दिव्य ‘स्वैग’ रखता है. इंटरवल से पहले के शिवरात्रि का दृश्य दिखाया गया है, जिसमें कुमार तांडव कर रहे हैं, जिसे छोड़ा नहीं जा सकता. स्टार पावर और मजबूत स्क्रीन उपस्थिति के बावजूद, कुमार एक बार भी त्रिपाठी पर भारी नहीं पड़ते, बल्कि उनके सीन को ऊंचा करते हैं. जज के रूप में पवन मल्होत्रा ने भी फिल्म ‘‘72 हूरों’’ से बिगड़ी अपनी इमेज को सुधारने का काम किया है.

हालांकि, फिल्म में हस्तमैथुन से जुड़े डायलॉग्स को 27 बार बदला गया, जिससे डबिंग साफ दिखाई दे रही थी. सीबीएफसी के संशोधन के बाद अक्षय कुमार के किरदार को बदलकर शिव का दूत किया गया. यह देखते हुए कि यह फिल्म परिवारों और किशोरों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, ए रेटिंग एक अलग मुद्दा है, लेकिन ये माता-पिता की उन खामियों को उजागर करती है जो लंबे समय से संस्कृति की आड़ में दबी हुई हैं और इसे परिवार के साथ और स्कूल के स्टूडेंट्स को ज़रूर देखना चाहिए.

आध्यात्मिक गुरु सधगुरु ने फिल्म के लिए कहा है,‘‘ इस मामले में ‘ए’ सर्टिफिकेट में किशोरों को शामिल किया जाना चाहिए. यहीं यह सबसे अधिक मायने रखता है. मानव जीव विज्ञान को समझने और किसी व्यक्ति की जैविक आवश्यकताओं को सम्मानजनक और जिम्मेदार तरीके से जवाब देने के बारे में शिक्षा एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए बहुत आवश्यक है जो इसमें शामिल सभी लोगों के लिए निष्पक्ष और न्यायपूर्ण हो.’’


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