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Saturday, 2 November, 2024
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‘क्या सब पहले से नियत है’, महावीर स्वामी ने कैसे पहले ही गोसाल को बता दी थी घटित होने वाली घटना

देवदत्त पट्टनायक की पुस्तक 'तींर्थंकरः जैन धर्म के 63 विचार' जैन धर्म की तमाम शिक्षाओं पर प्रकाश डालती है.

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महावीर और बुद्ध से 200 वर्ष पहले जीवित पार्श्ववनार्थ, कर्म और नियति की बात करने वाले इतिहास में संभवतः पहले संन्यासी थे. हालांकि यह धारणा प्रारंभिक वेदों में नहीं दिखाई देती है, बाद में रचे वेदों और प्रारंभिक उपनिषदों में वह पाई जाती है. वैदिक ऋषि, याज्ञवल्क्य, जिन्होंने पहली बार पुनर्जन्म की बात की, संभवतः पार्श्ववनार्थ के समय, अर्थात 2800 वर्ष पहले जीवित थे. पाश्चात्य दर्शन शास्त्र मानता है कि कर्म में विश्वास करने से व्यक्ति भाग्यवादी बन जाता है. और चूँकि सभी कुछ पूर्व निर्धाारित होता है, वह अपनी परिस्थिति को सुधारने का प्रयास नहीं करता है. लेकिन पार्श्ववनाथ के अनुसार, हाालांकि परिस्थिति पूर्व-निर्धाारित होती है, पर उनके प्रति प्रतिक्रिया हम चुनते हैं. हमारी प्रतिक्रियााएं हमारा भविष्य निर्धारित करती हैं. इस प्रकार, कर्म का अर्थ हमारी क्रिया (हम जो चयन करते हैं) और हमारी प्रतिक्रिया (जिससे हमारे जीवन में परिस्थितियां निर्मित होती हैं) दोनों हैं.

शुरू में जैनों को निग्रंथ कहा गया, वे जो जीवन की सभी गांठों (ग्रंथि) को सचेत होकर खोलते हैं. वे आजीविका नामक संन्यासियों के एक और समूह के साथ बहुथा लड़ते थे, जो जीवन (जीविका) को बस सहन करते थे.

जैन और बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुसार (कोई आजीविका धर्मग्रंथ नहीं है) गोसाल महावीर के समय का आजीविका नेता था. दोनों साथी थे. गोसाल ने मुक्त इच्छा के विरुद्ध तर्क किया. महावीर ने गोसाल को तीन घटनाओं की भविष्यवाणी की थी जो गोसाल बदल नहीं पाया. इसलिए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मनुष्य अपनी नियति बदल नहीं सकते हैं और उन्हें सभी परिस्थितियों को स्वीकार कर पीड़ा सहनी चाहिए.

– पहली घटना में महावीर ने गोसाल को बताया कि भिक्षा में उसे केवल सड़ा हुआ खाना मिलेगा. गोसाल के प्रयत्नों के बावजूद उसे दिन भर केवल सड़ा हुआ खाना मिला.

– दूसरी घटना में महावीर ने देखा कि मटके में दूध भिगोए चावल पकाए जा रहे थे. उन्होंने घोषणा की कि कोई भी उस खीर को खा नहीं पाएगा. गोसाल के प्रयत्नों के बावजूद मटका टूट गया और सारा खाना आग में गिर गया.

– तीसरी घटना में, महावीर ने एक पौधे को देखकर घोषणा की कि वह वर्षा ऋतु के बाद भी जीवित रहेगा. महावीर को गलत ठहराने के लिए गोसाल ने उस पौधे को उखाड़ दिया लेकिन अगले वर्ष जब दोनों वहां से जा रहे थे तब उन्होंने देखा कि उसी स्थान पर पौधे की जड़ों के कारण वह जीवित रह पाया था.

एक बार तपस्वी ने जुंओं को अपना मांस खाने दिया. जब गोसाल ने उसकी हंसी उड़ाई तब उस तपस्वी ने अपनी आंकें खोलीं और उनसे गोसाल पर अंगारे बरसा दिए. महावीर ने शीतल किरणों से गोसाल की रक्षा की. यह जानकर कि ध्यान करने और मन को नियंत्रित करने से सिद्धि की शक्तियां प्राप्त की जा सकती हैं, गोसाल ने भी समय के साथ ये शक्तियां प्राप्त कीं.
जैसे महावीर को अधिक अनुयायी मिलते गए वैसे गोसाल को उनसे ईर्ष्या होने लगी. वह महावीर के साथ वाद-विवाद करना चाहता था, लेकिन हर बार महावीर कोई प्रतिक्रिया दिए मौन रहे. महावीर के आदेशों के बावजूद उनके कुछ छात्र गोसाल के साथ वाद-विवाद करने लगे. तब गोसाल अचानक से क्रोधित हुआ और उसने अपनी शक्तियों से आंखों से महावीर पर अस्त्रों से वार किया. फिर भी महावीर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. यह स्वीकृति नहीं थी. यह सचेत रूप से दूसरे के क्रोध और उसकी अज्ञानता को संतुष्ट न करना था.

यह सारांश देवदत्त पट्टनायक द्वारा लिखित किताब ‘तीर्थंकरः जैन धर्म पर 63 विचार’ से हार्पर कॉलिन्स के अनुमति से लिया गया है.
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