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Sunday, 3 November, 2024
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आखिर भारतीय इस्लाम क्या चीज है? इसका उदय ब्रिटिश काल के ज़माने में हुआ था

भारतीय इस्लाम का उदय उपनिवेशवाद के ज़माने में हुआ था. इसका सीधा कारण यह था कि ब्रिटिश औपनिवेशिक विमर्श के लिए ‘इस्लाम’ और ‘भारत’ दो बिल्कुल विपरीत चीज़ें थी. ब्रिटिश और अगर व्यापक तौर पर कहें तो युरोपीय औपनिवेशिक ताकतें इस्लाम से सीधे तौर पर परिचित थीं.

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भारतीय इस्लाम की अवधारणा दो विरोधाभासी प्रवृत्तियां उजागर करती है. पहली है भारत को केंद्र में रख कर इस्लाम को देखना, और दूसरी है इस्लाम की पृष्ठभूमि में भारत के मायने तलाशना. इन दो विरोधाभासी रुझानों ने ही भारतीय इस्लाम को अकादमिक और राजनीतिक विमर्श के तौर पर स्थापित किया है. पहली प्रवृत्ति इस्लाम की सार्वभौमिकता को विशिष्ट संदर्भ में समेटते हुए उसे एक सांस्कृतिक आधार देती है. इससे इस्लाम का एक ख़ास भारतीय चेहरा प्रकट होता है जो इस्लाम के अन्य भौगोलिक सांस्कृतिक चेहरों के साथ मिलकर ग्लोबल इस्लाम की रंगीन तस्वीर पेश करता है.

इसके बरक्स दूसरी प्रवृत्ति के तहत ऐसा लगता है कि मानो इस्लाम की सार्वभौमिकता संदर्भ और काल जैसी श्रेणियों से कहीं ऊपर उठ कर एक ऐसे क्षेत्र का निर्माण कर रही हो जिसमें ‘भारत’ नाम का तत्त्व पूरी तरह विलीन हो गया है. यह प्रवृत्ति बताती है कि दरअसल इस्लाम एक ऐसी सम्पूर्णता है जिसमें संस्कृति, जाति और वर्ग जैसी विभिन्नताएँ संदर्भों से विमुक्त होकर पूरी तरह समा जाती हैं.

एक पद के रूप में भारतीय इस्लाम का उदय उपनिवेशवाद के ज़माने में हुआ था. इसका सीधा कारण यह था कि ब्रिटिश औपनिवेशिक विमर्श के लिए ‘इस्लाम’ और ‘भारत’ दो बिल्कुल विपरीत चीज़ें थी. ब्रिटिश और अगर व्यापक तौर पर कहें तो युरोपीय औपनिवेशिक ताकतें इस्लाम से सीधे तौर पर परिचित थीं. उनके लिए इस्लाम एक राजनीतिक चुनौती रह चुका था और उनके अपने उदीयमान आधुनिक विमर्श में इस्लाम और ईसाइयत संगठित राजनीतिक श्रेणियां थी. इसके बिल्कुल विपरीत भारत एक ऐसी विचित्र राजनीतिक इकाई था जहां धर्म और राजनीति का न तो मध्यकालीन युरोपीय मॉडल लागू हो सकता था और न ही ख़लीफ़ा शासित ऑटोमन साम्राज्य का मॉडल. यहां धर्म और राजनीति आपस में मिले होकर भी सामाजिक संरचनाओं, विशेषकर जाति संरचनाओं, से संचालित होते थे.

ऐसे में इस्लाम के अनुयायियों और मुसलमान शासकों के बीच एक ख़ास अंतर था. यह उतना ही बड़ा अंतर था जितना ग़ैर-मुसलमान जातियों और मुसलमान शासकों के बीच. सुदीप्त कविराज के शब्दों में कहें तो ‘भारत’ नाम के तत्त्व का निर्माण औपनिवेशिक विमर्श ने कुछ इस प्रकार किया कि समुदाय-रचना के सिद्धांत बिल्कुल बदल गये. कविराज बताते हैं कि प्राक्-औपनिवेशिक संदर्भ में समुदायों की बनावट और समुदाय की अपनी छवि दो तरह से अस्पष्ट थी. पहला, जाति, गांव और धर्म की जटिल पहचानों के बीच सीधी अवधारणात्मक रेखाएं नहीं थीं. ऐसे में व्यक्ति की पहचान इन सब पहचानों का एक ऐसा समुच्चय था जिसे तोड़ कर नहीं देखा जा सकता था. दूसरे, उस समय तक समुदायों की गणना नहीं हुई थी. ऐसे में किस समुदाय के कितने सदस्य हैं, या कौन सा समुदाय बहुसंख्यक है या अल्पसंख्यक, तय नहीं हुआ था.

परिणामस्वरूप समुदायों के बीच के रिश्ते व्यावहारिक थे और आपसी समझ और विवादों का क्षेत्र भी अत्यंत सीमित था. लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने इन संरचनाओं को नयी श्रेणियों में विभाजित कर दिया. समुदायों की धर्म और जाति के आधार पर गिनती ने उन्हें तयशुदा और बंद पहचानें दीं और इस तरह भारतीय मुसलमान नामक श्रेणी का जन्म हुआ. साथ ही यह भी पता लगा कि दरअसल भारतीय मुसलमान इस देश के अल्पसंख्यक हैं. मुसलमानों का भारत में आना, उनके द्वारा स्थापित शासन पद्धतियाँ, उनके मज़हब, रीति-रिवाज़ और उनके भारत के बाहर मौजूद इस्लामिक विमर्श से भारतीय समाज का संबंध एक राजनीतिक प्रश्न बन गया. भारतीय इस्लाम का अकादमिक विमर्श भी इन्हीं प्रश्नों से जुड़ता रहा है. दिलचस्प यह है कि इस सतत प्रयास ने जिस साहित्य की रचना की है वह अत्यंत रोचक ही नहीं है, बल्कि ग्लोबल इस्लाम के विमर्श को एक नयी दिशा भी देता है.


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यदि औपनिवेशिक भारत पर नज़र डाले तो अमीर अली की कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियां नज़र आती हैं जिनका मूल उद्देश्य ब्रिटिश सरकार और अंग्रेज़ अभिजन को इस्लाम के मूल सिद्धान्तों से परिचित कराना है. इन पुस्तकों में 1847 की अशॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ कारसेंस और 1890 की द लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद उल्लेखनीय है. ये पुस्तकें भारतीय इस्लाम को इस्लाम के व्यापक इतिहास में रख कर देखती हैं. यही कारण है कि भारत में मुसलमान शासन का हवाला इन कृतियों में यदा-कदा ही मिलता है.

यही प्रवृत्ति आगे चलकर मुहम्मद इकबाल के लेखन में भी मिलती है. हालांकि इकबाल की शायरी में भारत एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, परन्तु 1930 में प्रकाशित उनकी दार्शनिक कृति रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ रिलीजस थॉट इन इस्लाम एक ऐसी धार्मिक संस्कृति का तर्क स्थापित करती है जिसकी रोशनी में तमाम मुसलमान को एक इकाई में बदलते दिखते हैं.

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और व्यापक तौर पर कहें तो जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ने इस प्रवृत्ति को एक दूसरी दिशा दी है. आज़ाद के लेखन में भी इस्लाम की व्यापकता और राष्ट्रवाद के बीच एक वैचारिक साम्य बैठाने की कोशिश दिखती है. लेकिन राष्ट्रवाद किसी भी तरह भारतीय सामाजिक संरचनाओं में मौजूद इस्लामी प्रभावों पर आधारित नहीं हैं. बल्कि इस तरह के लेखन में यह बताया गया है कि दरअसल इस्लाम की व्यापकता में राष्ट्रवाद या यूँ कहें कि भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक जगह मौजूद है. मुसलमान और भारत के बीच एक साम्य हो सकता है जिसे आज़ाद की विचारधारा ‘दारुल-सुलह’ का नाम देती है.

भारतीय इस्लाम पर विशुद्ध अकादमिक विमर्श की शुरुआत चालीस और पचास के दशकों से होती है. डब्ल्यू.सी. स्मिथ की कृतियां नये सिरे से इस्लामी बहुलताओं और मुसलमान राजनीति को देखने की कोशिश करती हैं. 1957 में प्रकाशित स्मिथ की पुस्तक इस्लाम इन मॉडर्न हिस्ट्री में भारतीय इस्लाम की विविधताओं और विशेषताओं का विस्तृत विश्लेषण किया गया है. इसी बहुलता का एक सटीक चित्र अज़ीज़ अहमद के लेखन में मिलता है. अज़ीज़ अहमद की दो पुस्तकें स्टडीज़ इन इस्लामिक कल्चर इन एनवायरनमेंट (1964) और इस्लामिक मॉडर्निज़म इन इण्डिया ऐंड पाकिस्तान (1967) दक्षिण एशियाई भारतीय इस्लाम का ऐतिहासिक विश्लेषण करती हैं.

इस्लामिक बहुलता का समाजशास्त्रीय अध्ययन 1960 के अंतिम वर्षों में प्रारम्भ हुआ. इम्तियाज़ अहमद, त्रिलोकी नाथ मदन एवं पॉल ब्रास ने भारतीय इस्लाम की बहस को एक नयी दिशा दी. इम्तियाज़ अहमद ने चार खण्डों के एक ऐसे ग्रंथ का सम्पादन किया जिसने मुसलमानों और इस्लाम के विविध स्वरूपों और मुसलमानों के रीति-रिवाज़ों और सामाजिक प्रक्रियाओं का ज़मीनी विश्लेषण पेश किया. ब्रास के काम ने यह साबित किया कि किस प्रकार उर्दू का विमर्श मुसलमान राजनीति का प्रतीकात्मक चिह्न बन गया. मदन ने कश्मीरी इस्लाम की पेचीदगियों की एक समाजशास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत की. इन सभी विश्लेषणों ने एक परिपेक्ष्य का निर्माण किया जिसे आत्मसातीकरण की थीसिस कहा जा सकता है.

सत्तर के दशक में इस थीसिस के बरक्स एक नये अकादमीय दृष्टिकोण की शुरुआत हुई. फ़्रांसिस रॉबिंसन ने आधुनिक मुसलमान इतिहास का पुनरावलोकन करते हुए बताया कि मुसलमान समुदायों मे इस्लाम के प्रति रुझान उनकी राजनीतिक पहचान को निर्धारित करता है. ऐसे में आत्मसातीकरण की थीसिस में निहित बहुलता मुसलमान पृथकतावाद की सही व्याख्या नहीं करती. रॉबिन्सन की इसी परम्परा को फ़रज़ाना शेख़ ने आगे बढ़ाया. शेख़ की पुस्तक कम्युनिटी ऐंड कम्पर्न इन इस्लाम : मुसलमान रिप्रज़ेंटेशन इन कोलोनियल इण्डिया (1989) मुसलमान प्रतिनिधित्व की पूरी बहस इस्लाम को एक राजनीतिक समुदाय के तौर पर स्थापित करती है. रॉबिंसन और शेख़ के आलोचनात्मक ऐतिहासिक विश्लेषणों ने भारतीय इस्लाम को जिस परिप्रेक्ष्य से प्रस्तुत किया उसे प्राइमोर्डियल पर्सपेक्टिव या मूलात्मक थीसिस कहा जा सकता है.

भारतीय इस्लाम के इन दो परिप्रेक्ष्यों के बीच एक नये मध्यमार्गी विमर्श का जन्म हो रहा है. इसमें इतिहासकार रिचर्ड ईटन, शैल मायाराम और योगिंदर सिकंद के नाम उल्लेखनीय है. ईटन ने मध्यकालीन इस्लाम का विश्लेषण करते हुए बताया कि दरअसल भारतीय इस्लाम की पहचान परस्पर विपरीत चलने वाली प्रक्रियाओं से तय होती है. एक प्रक्रिया मुसलमान समुदायों को इस्लाम के केंद्रों से जोड़ कर स्थानीय सांस्कृतिक समुदायों का इस्लामीकरण करती है, वहीं दूसरी प्रक्रिया इस्लामी सिद्धांतों को स्थानीय संस्कृतियों की नज़र से परिमार्जित करके उनका स्थानीयकरण करती है. इस तरह मुसलमान ‘स्थानीय’ होकर भी इस्लामिक होते हैं, वहीं इस्लाम व्यापक होकर भी मुसलमान स्ति्रयों, मुसलमान दलितों और ऐसी जातियों, जिनको इस्लाम और हिंदू धर्म जैसी श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता, का अध्ययन करके भारतीय इस्लाम के विमर्श की जटिलता को दर्शाता है.

पिछले डेढ़ दशक से दलित-मुसलमान/पसमंदा मुसलमान परिप्रेक्ष्य को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए, जिसने भारतीय इस्लाम की विशिष्ट जातिगतसंरचनाओं को राजनीतिक विमर्श का आधार बनाया है. संक्षेप में कहें तो भारतीय इस्लाम एक ऐसे गतिमान विमर्श का नाम है जिस की गति पेंडुलम की तरह है. इस पेंडुलम के एक सिरे पर इस्लाम के सिद्धांत हैं, इस्लाम के केंद्र हैं और इस्लाम की एकरूपता है, वहीं दूसरे सिरे पर मुसलमान संस्कृतियां, विविधताएं और स्थानीयताएं हैं.

(हिलाल अहमद राजनीतिक इस्लाम के विद्वान हैं और नई दिल्ली में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Ahmed1Hilal है.)


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