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Tuesday, 4 November, 2025
होमसमाज-संस्कृति‘मैं दान नहीं, एक बेटी हूं’ — धर्म और पितृअहंकार के बीच पिसती एक पुत्री की कहानी

‘मैं दान नहीं, एक बेटी हूं’ — धर्म और पितृअहंकार के बीच पिसती एक पुत्री की कहानी

अचानक गाड़ी का एक पहिया एक छोटे से गड्ढे में चला गया और गाड़ी में हिचकोले खाती माधवी झटके से हलकी चीख के साथ गाड़ी में ही गिर गई. उसकी चीख सुनकर वह पलटा और कहा कि, ‘गाड़ी के बांस को पकड़कर रखो.’

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(किताब को लोकभारती पैपरबैक्स ने छापा है जिसका अंश प्रकाशन की अनुमति से छापा जा रहा है.)

प्रातःकाल होने के साथ ही सारे नगर में यह सूचना आग की भांति फैल गई थी कि महाराज ययाति ने अपनी पुत्री माधवी का दान कर दिया है. यह सूचना नगरवासियों के लिए अविश्वसनीय होने के साथ-साथ हृदय-विदारक भी थी. नगरवासी अपने सारे कामकाज छोड़कर सुनी हुई बात की सत्यता जानने के लिए राजभवन के मुख्य द्वार पर एकत्र हो गए थे.

मुझे लग रहा था कि राजमहल के प्रांगण के वृक्ष, लताएं मुझसे लिपटकर रो रही हैं. काश, मैं सचमुच में उनसे लिपटकर रो सकती, इसी बहाने पिता की आंखों से दूर रहने की अपनी वेदना को बहा सकती, कुछ समय तक यहाँ और ठहर सकती, क्या पता अगले क्षण कुछ ऐसा घटित हो जाए जो मेरे लिए सुखद हो? मन भी कैसा होता है, जब सबकुछ विपरीत हो जाता है तब भी वह किसी चमत्कार की आशा नहीं छोड़ता. मेरे दाहिने ओर वह वाटिका थी जहाँ पहले छोटी माँ रहती थीं और मेरा अधिकांश समय वहीं व्यतीत होता था. छोटी माँ पिताजी के समक्ष कठोरता से नहीं बोल पाती हैं. काश, आज माँ होतीं तो पिताजी ऐसा निर्णय लेने का साहस नहीं कर पाते. माँ तुम क्यों क्रोधित होकर बार-बार नानाजी के पास चली जाती हो? मन किंचित क्रोधित होकर प्रश्न कर रहा था पर मन में उनके लिए प्रश्न उठाने और क्रोध करने से क्या होगा? इस समय तो वह मेरी स्थिति की कल्पना से दूर नानाजी के पास हैं.

परिसर के मुख्य द्वार का फाटक खुलने के साथ ही बाहर खड़ी भीड़ परिसर में घुसने का प्रयास करने लगी और गाड़ी को रोककर खड़ी हो गई. सैनिक बड़े धैर्य से उनको किनारे हटा रहे थे और भीड़ को चीरती हुई गाड़ी धीरे-धीरे परिसर के बाहर निकल आई. महामन्त्री को इस स्थिति का अनुमान था इसलिए उन्होंने सेना की एक टुकड़ी को उनके साथ कर दिया था ताकि वे उसे सुरक्षित ढंग से नगर की सीमा को पार करा सकें.

मुख्य दरवाजे के बाहर और मार्ग के दोनों ओर नागरिकों की भीड़ महाराज ययाति के दान का विरोध कर रही थी, और उसे गालव के साथ जाने से रोक रही थी. गाड़ी को रोककर खड़ी महिलाएँ उसे देखकर रो रही थीं मानो उनकी पुत्री विदा हो रही हो.

नहीं अन्तर था उनके रोने में, पुत्री की विदाई में जहाँ एक ओर विछोह का दुख होता है तो दूसरी ओर भावी सुखद जीवन का आश्वासन भी, किन्तु वे देख रही थीं कि माधवी एक कुएँ में ढकेली जा रही है, उसका वर्तमान नष्ट हो गया है और भविष्य की भयानक कल्पना उनके समक्ष खड़ी थी. उनके रुदन में माधवी के लिए करुणा थी. कुछ महिलाएँ तो अपनी छाती पीट-पीटकर ईश्वर को कोसती हुई रो रही थीं. वे देख रही थीं कि उनके निर्दयी महाराज ने अपने अहंकार की तुष्टि के लिए बिना विचार किए अपनी पुत्री को एक मुनि कुमार को दान में दे दिया था. उनका रोना देखकर यत्न से रोके गए उसके कंठ से भी रुलाई फूट गई और उसने अपना सिर अपने घुटनों में छिपा लिया. उसके भीतर रुदन करती महिलाओं और व्याकुल और क्षुब्ध नगरवासियों को देखने का साहस शेष नहीं था. लोग प्रश्न कर रहे थे कि, कौन है यह मुनि कुमार, क्यों आया था यहाँ और ऐसी क्या याचना थी जिसे महाराज पूरा न कर पाए और उसके स्थान पर अपनी पुत्री को उसे सौंप दिया?

यही सारे प्रश्न तो माधवी के मन-मस्तिष्क में भी उठ रहे हैं, अन्तर केवल इतना है कि वह मौन है और प्रजा मुखर. वे गालव से भी प्रश्न कर रहे थे कि उसने ऐसा दान स्वीकार ही क्यों किया? उन्होंने बैलों की रस्सी पकड़कर गाड़ी को रोक लिया था. गाड़ी को चारों ओर से घेरकर चलनेवाले अश्वारोही सैनिक बड़ी कठिनाई से गाड़ी के लिए मार्ग बना रहे थे.

धीरे-धीरे गाड़ी नगर से बाहर आ गई. गालव ने सैनिकों को वापस लौटा दिया. अब न तो कोई उसका मार्ग रोकनेवाला था और न ही पहचाननेवाला. वह सोच रहा था कि राजाओं के मन की थाह पाना सरल नहीं. कहाँ वह तो ययाति के पास धन की याचना करने के लिए गया था ताकि उसकी सहायता से अश्व क्रय करके अपने गुरु को गुरुदक्षिणा समर्पित कर सके और ययाति ने उस अकिंचन की झोली में कामधेनु को डालकर विदा कर दिया. हाँ माधवी उसके लिए कामधेनु ही तो थी. उसके माध्यम से वह अपनी गुरुदक्षिणा प्राप्त करके गुरु के ऋण से मुक्त हो जाएगा. वह माधवी को पाकर आश्चर्यचकित था तो मन के कोने में एक चिन्ता भी सिर उठाने लगी कि, राजकुल में सुख-सुविधाओं के बीच पली माधवी को किस प्रकार से रख पाएगा? उसका भोजन, उसका शयन, सदा सुसज्जित और सुखद रथ पर यात्रा करनेवाली राजकन्या आज उसके कारण एक सामान्य बैलगाड़ी में यात्रा कर रही है.

अचानक गाड़ी का एक पहिया एक छोटे से गड्ढे में चला गया और गाड़ी में हिचकोले खाती माधवी झटके से हलकी चीख के साथ गाड़ी में ही गिर गई. उसकी चीख सुनकर वह पलटा और कहा कि, “गाड़ी के बांस को पकड़कर रखो.”

उसने भयभीत होकर इधर-उधर देखा और अपने पीछे गाड़ी के छाजनवाले बांस को पकड़ लिया.

अब गालव को माधवी की सुरक्षा की भी चिन्ता होने लगी. यद्यपि मुख्य मार्ग सुरक्षित और सुविधाजनक था, मार्ग में विश्राम के लिए राज्य एवं धनिक लोगों द्वारा बनवाई गई धर्मशालाएँ भी थीं, किन्तु मार्ग में कभी-कभी कुछ अवांछित तत्वों द्वारा छोटे व्यापारियों और समृद्ध यात्रियों के साथ लूट-पाट की घटनाएँ भी सुनाई देती रहती थीं. ऐसी स्थिति में वह त्रैलोक्य सुन्दरी माधवी की रक्षा किस प्रकार कर पाएगा? यद्यपि न तो माधवी सजी-धजी है और न ही उसके वस्त्र बहुमूल्य हैं पर उसका सौन्दर्य कैसे छिपेगा? एक-दो हट्टे-कट्टे व्यक्ति से निपटने के लिए उसकी आश्रम में प्राप्त विद्या ही पर्याप्त थी किन्तु समूह उसके लिए समस्या बन सकता था.

उसने माधवी से कहा कि, तुम मेरा गेरुआ उत्तरीय लेकर उससे अपना मुख ढँकते हुए उसे पगड़ी की भाँति अपने सिर पर लपेट लो और गेरुए वस्त्र को चादर की भाँति ओढ़ लो. उसने वैसा ही किया. अब वह एक किशोर संन्यासी लग रही थी और गालव कुछ आश्वस्त हुआ.

वह यह भी नहीं चाहता था कि राह में चलनेवाले लोग माधवी को देखें और उससे सम्बन्धित प्रश्न करें. अपनी इस यात्रा में वह माधवी के लिए किस प्रकार से सुख-सुविधा की व्यवस्था कर पाएगा? यह प्रश्न अभी भी उसे मथ रहा था.

नियति भी कैसे-कैसे खेल खेलती है, उसका मात्र यह कहना कि, “मैं कहीं और से प्रबन्ध कर लूँगा”, ययाति का अहंकार तनकर खड़ा हो गया और अपने वैभवशाली अतीत और दान को याद करते हुए अगले ही क्षण उन्होंने अपनी दिव्य पुत्री को दान में दे दिया. ययाति ने माधवी को उसके भाग्य के भरोसे उसे सौंप दिया था कि, मैं उसे किसी सम्राट को अर्पित करके आठ सौ अश्व प्राप्त कर लूँ. उन्हें माधवी के प्रारब्ध को बाँचनेवाले पर भी सन्देह नहीं था अन्यथा कोई पिता अपनी पुत्री को किसी अनजान व्यक्ति को कहाँ सौंपता है? मेरे और माधवी के भविष्य में विधाता ने क्या लिखा है यह अभी किसी को भी ज्ञात नहीं?

माधवी की सुरक्षा से आश्वस्त होते ही उसका मन पुनः उथल-पुथल मचाने लगा. आज वह माधवी का स्वामी है, ययाति ने उससे कहा था कि वह चक्रवर्ती पुत्रों को जन्म देगी. वह चाहे तो स्वयं भी चार चक्रवर्ती पुत्रों का पिता बन सकता है. दूसरे ही क्षण उसका विवेक उसे सचेत करने लगा कि ब्राह्मण का पुत्र चक्रवर्ती सम्राट? पुनः दूसरे मन ने कहा, क्यों नहीं? जब क्षत्रिय होकर विश्वामित्र ब्रह्मर्षि बन सकते हैं तो, उसके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट क्यों नहीं बन सकते? वह चार-चार चक्रवर्ती सम्राटों का पिता होगा, सम्पूर्ण विश्व में उसके पुत्रों के पराक्रम का डंका बजेगा, उसके पुत्र इस पृथ्वी की समस्त निधियों को उसके चरणों में अर्पित कर देंगे. इससे सुन्दर भविष्य की कल्पना क्या हो सकती है कि माधवी जैसे शुभ लक्षणों से युक्त रूपसी कन्या उसकी पत्नी बने, उसके पुत्रों की माता बने? वह मग्न होकर उस सुख भोग-विलास की कल्पना करने लगा.

दूसरे ही क्षण वह कल्पना से यथार्थ के धरातल पर उतर आया. यदि वह अपनी कामना पूर्ति करेगा तो गुरुदक्षिणा का क्या होगा? गुरुदक्षिणा प्रदान करने का अर्थ है सारा सुख-वैभव दूसरे की झोली में डालकर रिक्त हस्त आश्रम से बाहर निकल आना और जीवन-यापन के लिए प्रति दिन संघर्ष करना, ठीक वैसे ही जैसे दक्षिणा की खोज में वह कुछ समय पहले निकला था. इस प्रकार से उसके जीवन में कुछ भी तो नवीन नहीं होगा. वह सारी सुख-सुविधाओं से दूर किसी स्थान पर आश्रम बनाकर जीवन-यापन करेगा, उसके जीवन में अन्तर इतना ही होगा कि उसके पास एक पत्नी होगी, भविष्य में सन्तान भी होंगी और वह राजाओं और धनिकों के सहयोग से एक गुरुकुल का आचार्य बनकर विद्यार्थियों को पढ़ाएगा. उसकी दिनचर्या प्रातःकाल पूजा-अर्चना से आरम्भ होगी और सन्ध्या से समाप्त हो जाएगी और दूसरी ओर संसार के सभी भोग-विलास के साधन के साथ-साथ शक्ति भी. वह भली भाँति जानता है कि, ज्ञान में बल है तो शक्ति में महाबल. उसे अपने जीवनयापन के लिए किसी से याचना नहीं करनी पड़ेगी वरन वह याचकों को सन्तुष्ट कर सकेगा.

उसके मन में निरन्तर मन्थन चल रहा है, जहाँ एक ओर वह गुरुदक्षिणा न देने के पाप का भागी नहीं बनना चाहता है तो दूसरी ओर माधवी के रूप और गुण के आकर्षण से मुक्त भी नहीं हो पा रहा है. पूरा जीवन सुख-वैभव की एक-एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बिताते जाने का लोभ छोड़ना सरल नहीं है. क्या करूँ? आचार्य से क्षमा माँग लूँ कि, इस प्रकार के अश्व इस धरा पर नहीं हैं और वे मेरे सामर्थ्य के अनुसार दूसरी दक्षिणा माँग लें और मैं माधवी से विवाह करके अपना संसार बसा लूँ? माधवी तो मुझे प्राप्त ही है, चार पुत्रों को उत्पन्न करने के बाद ययाति को लौटा दूँगा और स्वयंवर में पुनः प्राप्त कर लूँगा, किन्तु साधन प्राप्त होने के बाद भी गुरु और ययाति दोनों से विश्वासघात करना क्या उचित होगा? नहीं, विश्वासघात से बड़ा कोई पाप नहीं, क्या वह विश्वासघाती होकर जी सकेगा? मन ने कहा, नहीं.

मन तर्क-वितर्क करने से भी नहीं मानता है. वह बार-बार अपनी इच्छा को ही उचित ठहराने के लिए उत्तर ढूँढता है. विवेक कहता है कि, ययाति ने तो मुझे इसलिए समर्पित किया है कि,मैं उसे किसी नरेश को समर्पित करके अश्व प्राप्त कर लूँ, इस प्रकार से नरेश को चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त होंगे और मुझे गुरुदक्षिणा. यदि मैं माधवी से विवाह करता हूँ तो एक ओर ययाति के दान को भंग करने का दोषी बनता हूँ तो दूसरी ओर गुरुदक्षिणा का ऋणी भी बना ही रहूँगा. मन के तराजू में कभी धर्म का पलड़ा भारी हो जाता तो कभी सुख का. उसने अपने मन पर अंकुश लगाने का प्रयास किया कि, वह वचनबद्ध है, उसे गुरुदक्षिणा अर्पित करना है और माधवी उससे मुक्ति का साधन है, इससे अधिक कुछ नहीं. यदि वह इससे इतर सोचता है तो वह ययाति, विश्वामित्र, माधवी और स्वयं के साथ छल करने का पापी होगा.

यश अर्जित करने में पूरा जीवन लगाना पड़ता है. जैसे घड़े में पड़ी पतली सी दरार से सारा जल रिसकर बह जाता है, उसी प्रकार यशरूपी घड़े में अपयश की दरार से सारा यश बह जाता है और शेष बचता है केवल अपयश, जो कि मृत्यु से भी अधिक भयानक होता है. मृत्यु तो कुछ समय की यन्त्रणा के बाद मुक्ति दे देती है किन्तु अपयश मृत्यु के उपरान्त भी पीछा नहीं छोड़ता है. वह अपयशी होने से पूर्व मृत्यु को गले लगाना अधिक श्रेयस्कर समझेगा. पहले भी तो वह गुरुदक्षिणा देने में असमर्थ होने पर मृत्यु को ही गले लगाने जा रहा था. गुरु से याचना करनी होती तो वह पहले ही कर लेता. उसके भीतर से दूसरा गालव बोल रहा था.

गुरुदक्षिणा देकर भी मुझे क्या प्राप्त होगा? केवल यही सन्तोष कि मैंने आचार्य को उनकी मनोवांछित गुरुदक्षिणा दी है, किन्तु ऐसा करनेवाले तो सैकड़ों छात्र हैं जो आचार्य से पूछकर उनको दक्षिणा प्रदान करते हैं. क्या उसकी दक्षिणा अन्य से भिन्न होगी? निःसन्देह वह भिन्न होगी

क्योंकि किसी आचार्य ने आज तक ऐसी दुर्लभ दक्षिणा नहीं माँगी है. यह सौभाग्य मेरे भाग में आया है और इसे पूरा करने का यश भी मेरे ही भाग में आएगा.

मन फिर से दुविधा में हिचकोले खाने लगा. एक ओर यश तो दूसरी ओर शक्ति और समृद्धि. शक्ति और समृद्धि का यश भी तो कम नहीं होता है? ययाति के द्वार पर वह उनकी समृद्धि का यश सुनकर ही तो गया था.

उसे ज्ञात है कि आचार्य के आचरण की निन्दा या क्रोध करना पाप है, किन्तु इस समय उसका मन अपने आचार्य विश्वामित्र पर भी प्रश्न करने से नहीं मान रहा था. उसे लग रहा है कि आचार्य ने उसके प्रेम को दोष मानकर दंड दे दिया है. प्रेम और आदर का इतना बड़ा दंड? उसे बार-बार लगता है कि, उस समय आचार्य ने मेरी भावना पर दृष्टिपात किए बिना इतना कठोर दंड दे दिया. उन्होंने जान-बूझकर उसे कठिन परीक्षा में डाला है जहाँ से वह असफल होकर उनसे क्षमा याचना करता हुआ उनके चरणों में नत-मस्तक हो जाए. वह तो सदैव से ही उनका प्रिय शिष्य था, उसके अनुरोध में भी आचार्य के लिए प्रिय करने की ही भावना थी, किन्तु इसे उसके जीवन की विडम्बना ही कहा जाएगा कि उसे आचार्य का प्रिय करने के बदले में आचार्य से दंड मिला. एक बात उसके मन में बार-बार खटकती रहती थी कि इससे पहले तो आचार्य ने किसी शिष्य से ऐसी दुर्लभ गुरुदक्षिणा नहीं माँगी थी फिर मुझसे ही क्यों? क्यों परिस्थितियाँ उसे एक से बढ़कर एक परीक्षा में डाल रही हैं?

यात्रा करते हुए एक प्रहर बीत चुका था. गालव ने गाड़ी को एक तालाब के निकट रोका और माधवी को नीचे उतरने के लिए कहा. माधवी हाथ-मुँह धोकर एक पेड़ के नीचे बैठ गई. गालव बैलों को पानी पिलाकर चरने के लिए छोड़कर माधवी के निकट आकर बैठ गया.

कुछ क्षण मौन में बीता. वह चुपके से अवसर देखकर माधवी के मुख को देख रहा था. गालव को अपनी ओर देखते हुए देखकर माधवी ने गालव से पूछा, “क्या देख रहे हो गालव?”

“कुछ नहीं. हड़बड़ाकर बोला मानो उसकी चोरी पकड़ ली गई हो. विदा के समय माधवी के रूप की झलक देखकर आश्चर्यचकित रह गया था और घबराकर अपनी दृष्टि उसके मुख पर से हटा ली थी. जितने समय तक वह वहाँ बैठा रहा दोबारा उसकी ओर आँख उठाकर देखने का साहस नहीं कर सका.

गाड़ी हाँकते समय भी मन में चाह उठ रही थी कि पलटकर उसे देखे, किन्तु नहीं. उसके रूप और दैवीय वरदान ने उसके मन के निश्चय को एक बार डगमगा दिया था और अब वह नहीं चाहता कि प्रयास से संयमित किए गए उसके मन में पुनः किसी प्रकार की हलचल मचे, किन्तु जब वह माधवी के निकट बैठा था और वह दूर मार्ग को टकटकी लगाए देख रही थी तब उसने छिपी दृष्टि से उसकी ओर देखा था, उसकी सुडौल ग्रीवा तीखे नाक-नक्श और दमकती गौर त्वचा मन को पुनः मथने को तत्पर हो गई थी. उसका मन कर रहा था कि वह अपने हाथों से धीरे से उसका मुख अपनी ओर घुमा ले और जी भरकर देखे. नहीं, दूसरे ही क्षण वह वहाँ से उठकर उससे थोड़ी दूर पर बैठ गया. अब उसे केवल उसकी पीठ दिखाई दे रही थी. उसने मन संयमित किया और आँखें बन्द कर लीं. वह चाहता था कि इसके मन-मस्तिष्क में केवल दौड़ते हुए श्यामकर्णी श्वेत अश्व ही दौड़ें, किन्तु माधवी की छवि बार-बार उनकी छवि को परे ठेल दे रही थी.

उसने देखा कि बैल चरते-चरते दूर जा रहे हैं, वह आगे बढ़कर खड़े बैलों को आवाज लगाने लगा बैल धीरे-धीरे उसके निकट आ गए और उसने पेड़ में उनकी रस्सी बाँध दी और गाड़ी से नाँद निकालकर उसमें उसके लिए भूसा-दाना और पानी डालकर पुनः माधवी के निकट बैठ गया.

उसने आँखें उठाकर उसे देखा मानो वह अपना प्रश्न दोहरा रही हो. कुछ क्षण बाद संयत होकर बोला, “देख रहा हूँ कि तुम कितनी सुन्दर हो, साधारण मनुष्य को कौन कहे बड़ा से बड़ा सम्राट भी तुमको पाकर धन्य होगा.”

माधवी चुप रही.

“तुम दुखी तो नहीं हो माधवी?”

“मेरे दुख का प्रश्न ही कहाँ है गालव, मैं तो तुम्हारी गुरुदक्षिणा के निमित्त अपने पिता द्वारा अर्पित की गई हूँ.”

“स्वयं को इतना सामान्य न बनाओ माधवी! तुम शूरवीर, दानवीर महाराज ययाति की पुत्री हो, तुम जिस सम्राट को स्वीकार करोगी उसकी सन्तान चक्रवर्ती सम्राट होगी.”

“मेरे स्वीकार करने का प्रश्न कहाँ है गालव? मुझे ज्ञात है मेरा वस्तु की भाँति विनिमय होगा और जो इस धरा पर दुर्लभ श्यामकर्णी श्वेत अश्व देगा वह मेरा स्वामी बनेगा. आज तुमने मुझे गुरुदक्षिणा के निमित्त प्राप्त किया है तो कल दूसरा मुझे चक्रवर्ती सन्तानों की इच्छा से प्राप्त करेगा. दोनों ही स्थितियों में मैं तो साधन ही हूँ.”

“मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा है.”

“क्या अच्छा नहीं लग रहा है गालव?”

“यही कि यदि मैं तुम्हें किसी नरेश को समर्पित कर दूँगा तो तुमको सदा के लिए खो दूँगा.”

“तुम मुझे इसीलिए तो मेरे पिता से माँगकर लाए हो.”

“यदि मेरा वश चले तो तुमको कभी भी अपने से अलग न करूँ. गालव भावुक हो गया. एक बात बताओ माधवी! क्या यह सच है कि तुम चार चक्रवर्ती पुत्रों को जन्म दोगी?”

“गालव! जब मैं छोटी थी तो एक दिन दरबार में एक ब्राह्मण का आगमन हुआ था. वे कौन थे, कहाँ से आए थे कुछ भी ज्ञात नहीं था किन्तु उनका व्यक्तित्व अद्भुत था. दरबार में उनका स्वागत-सत्कार हुआ. मैं खेलती हुई अपने पिता के पास चली गई और उन महात्मा ने मुझे अपने निकट बुलाया और मेरे माथे और हथेलियों की रेखाओं को देखकर पिताजी से कहा था कि यह कन्या चार चक्रवर्ती सम्राटों को जन्म देगी. इसके अतिरिक्त एक ऋषि ने मुझे वरदान भी दिया था कि मैं सन्तान उत्पन्न करने के बाद अनुष्ठान द्वारा पुनः कौमार्य प्राप्त कर सकती हूँ. इसके अतिरिक्त उन्होंने मेरे पिता से मेरे बारे में क्या कहा था, मैं नहीं जानती. तुमको मेरे पिता के कथन पर सन्देह हो रहा है क्या?”

“नहीं. वे इतने बड़े महाराज, दानी और पराक्रमी हैं, उनके विषय में ऐसा विचार मन में भी नहीं आ सकता, मैं तो बस ऐसे ही.”

“इस दैवी कृपा से तुम्हारे लिए सरलता हो जाएगी क्योंकि बड़े से बड़े चक्रवर्ती सम्राट की भी कामना होती है कि उनका पुत्र चक्रवर्ती सम्राट बने.”

“ऐसी महत्त्वाकांक्षा होना स्वाभाविक है माधवी.”

“हाँ गालव! तुम्हारी भी तो महत्त्वाकांक्षा है कि तुम अपने गुरु को दुर्लभ गुरुदक्षिणा दो.” माधवी के स्वर में छिपे व्यंग्य को गालव ने भली भाँति अनुभव किया, किन्तु चुप रहा. वह समझ रहा था कि,वह अपने स्वार्थ के लिए उसे राजभवन से निकालकर एक बैलगाड़ी पर लेकर उसका विनिमय करने के लिए निकला है तो उसके मन में उसके लिए कटुता का होना स्वाभाविक है.

“जानती हो माधवी! मैं एक दिन हताश होकर आत्महत्या करने जा रहा था, उस समय गरुड़ ने मेरी सहायता की और मुझे लेकर तुम्हारे पिता के पास आए और तुम्हारे पिता ने मेरी गुरुदक्षिणा प्राप्ति में सहायता के लिए तुमको प्रदान कर दिया. प्रारब्ध से तुम मुझे प्राप्त हुई और यही प्रारब्ध मुझे तुमसे अलग भी करेगा. शेष हम दोनों के लिए भाग्य के गर्भ में न जाने क्या छिपा है? एक लम्बी साँस लेकर गालव ने आगे कहा कि, काश, मेरे ऊपर गुरुदक्षिणा का भार न होता.”

“हाँ गालव! निश्चय ही तुम्हारे गुरु क्रूर और अहंकारी होंगे तभी वे तुम्हारे सामर्थ्य की अनदेखी करके इतनी कठिन गुरुदक्षिणा माँग रहे हैं.”

“नहीं माधवी! आचार्य ऐसे नहीं हैं, मैंने ही गुरुदक्षिणा के लिए बार-बार हठ करके उन्हें क्रोधित कर दिया था.”

“गालव! तुमने श्यामकर्णी श्वेत अश्व देखा है?”

“नहीं.”

“नहीं!…माधवी आश्चर्यचकित थी उसके विशाल नेत्र आश्चर्य से और बड़े हो गए, और उसके बाद भी तुम इस प्रकार के अश्वों को ढूँढ़ रहे हो?”

“माधवी! मुझे तुम्हारे पिता ने बताया है कि,सम्भवतः अयोध्या नरेश के पास इस प्रकार के अश्व हैं और इसी प्रयोजन से मैं उनके पास जा रहा हूँ.”

“यदि उनके पास अश्व नहीं मिले, या उन्होंने तुम्हारे विनिमय के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो?”

“तो भी मैं अपना प्रयास तब तक नहीं छोड़ूँगा जब तक कि अश्व मुझे प्राप्त न हो जाएँ.” गालव के स्वर में निश्चय था.

“गालव! जिसे न तो तुमने देखा है और न ही जिनके बारे में तुम्हारे पास कोई स्पष्ट सूचना है कि, इस प्रकार के अश्व कहाँ उपलब्ध हैं, उसके उपरान्त भी तुम उनको ढूँढ़ते रहोगे, भले ही वर्षों लग जाएँ?”

“हाँ माधवी.” माधवी के कथन के बाद भी गालव का स्वर पूर्ववत था.

“गालव! मुझे लगता है कि इस प्रकार से हम अनिश्चित काल तक केवल भटकते ही रहेंगे.”

“इस विषय में मैं अभी कुछ भी नहीं कह सकता माधवी.”

“मेरा मन कहता है कि इस प्रकार की गुरुदक्षिणा माँगने के बाद जब उनका चित्त स्थिर हुआ होगा तो उन्हें अपने कृत्य पर पश्चात्ताप भी हुआ होगा इसलिए मैं तुमसे कह रही हूँ कि तुम उनसे क्षमा माँग लो और अपनी सामर्थ्य के अनुसार गुरुदक्षिणा के लिए अनुरोध करो या वे विशिष्ट श्यामकर्णी श्वेत अश्वों के स्थान पर सामान्य आठ सौ अश्व लेकर तुम्हें गुरुदक्षिणा के भार से मुक्त कर दें.”

“नहीं माधवी! उनके समक्ष रिक्त हस्त जाने से मेरा स्वाभिमान आहत होगा. यह भी सम्भव है कि वे मेरे ऊपर क्रुद्ध हो जाएँ.”

“नहीं गालव! माता-पिता और गुरु क्षमा माँगने पर क्रुद्ध नहीं वरन उदार हो जाते हैं. यदि तुम स्वयं नहीं जाना चाहते तो मुझे उनके पास ले चलो, भले ही तुम गुरुकुल के प्रांगण में पैर भी मत रखना और मैं अकेली उनके पास जाकर याचना करूँगी कि वे तुमसे तुम्हारी सामर्थ्य को देखते हुए दूसरी गुरुदक्षिणा माँग लें. मुझे विश्वास है कि वे मेरी याचना को नहीं ठुकराएँगे.”

“नहीं माधवी! गुरुदेव समझ जाएँगे कि गालव गुरुदक्षिणा देने में असमर्थ होने पर स्वयं सम्मुख न आकर तुमको भेजा है और वे मुझपर क्रोधित भी हो सकते हैं. तुम्हारा आश्रय लेकर याचना करना उचित नहीं है.”

“कैसे उचित नहीं है गालव? जिस नरेश से तुम याचना करने जा रहे हो उनके समक्ष भी तो तुम मेरा ही आश्रय लोगे तो आचार्य के समक्ष क्यों नहीं?”

“उसमें मेरा स्वाभिमान आहत होगा माधवी.” गालव ने दुखी स्वर में कहा.

“गालव! मैं नहीं चाहती हूँ कि तुम्हारा स्वाभिमान आहत हो, मैं तो केवल इतना ही चाहती हूँ कि तुम गुरुदक्षिणा के भार में मुक्त हो जाओ.”

“यदि उन्होंने मुझे मुक्त कर दिया तो क्या तुम अपने पिता के पास लौट जाओगी?”

“हाँ गालव! उन्होंने मुझे जिस उद्देश्य से दिया है, उसकी पूर्ति हो जाने पर तुम मुझे मेरे पिता को दिये गए वचन के अनुसार उनको लौटा देना और मेरे पिता से अपने आचार्य के लिए माँगी गई दूसरी गुरुदक्षिणा भी प्राप्त कर लेना.”

“नहीं माधवी! अब यह सम्भव नहीं है. मानता हूँ कि मैं बहुत बड़ी समस्या में फँस गया हूँ, किन्तु अब विश्वास है कि अयोध्या नरेश के पास मुझे अश्व मिल जाएँगे.”

“यदि गुरु से अनुरोध तुम्हें स्वीकार नहीं है तो चलो याचक बनकर अयोध्या नरेश के पास.” मेरी वाणी में किंचित खिन्नता थी जिसे गालव ने भली भाँति महसूस किया था.

(माधवी की देहगाथा की लेखिका शची मिश्र हैं.)

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