उसका दिन भी हमारी आपकी तरह अखबार के पन्ने पलटकर शुरू होता है. अंतर सिर्फ इतना है कि अखबार रखकर आप अपना दिन शुरू करते हैं और अखबार उठाते ही उसका काम शुरू हो जाता है. वो बहुत ध्यान से दो तरह की खबरें पढता है. सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं, हक और योजनाएं या वो खबरें जहां कोई ज़ुल्म, अन्याय या पीड़ित इंसान की खबर हो.
उसका मानना है कि इस दुनिया में कहीं भी होने वाला ‘अन्याय’ सभी जगह हो सकने या होने वाले ‘न्याय’ के लिए खतरा है. इसलिए वो अखबारों से अन्याय की खबर पहले चिन्हित करता है, कतरन काटकर अलग करता है और फिर उसे संलग्न कर संबंधित अधिकारी, विभाग या मंत्रालय से सवाल करता है.
वो सूचना के अधिकार के तहत तब तक सवाल करता है जब तक कि उसे न्याय की आहट सुनाई न दे जाए. फिर चाहे वो एक प्रतिष्ठित हिंदी अखबार में छपी छोटी सी खबर हो जिसमें एक गैर सरकारी संगठन द्वारा कराये गए सर्वेक्षण के हवाले से कोई 10000 बंधुआ मजदूरों के ईंट भट्टे में फंसे रहने की खबर थी कि जिसकी क्लिपिंग उसने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भेजकर पूछना शुरू किया जिसके चलते एक विशेष टीम को राजस्थान भेजकर उन मजदूरों को न सिर्फ छुड़ाया गया बल्कि सरकारी प्रावधान के तहत मुआवजा राशि भी दी गयी.
एक खबर जिसमें बरेली की एक लड़की का मेडिकल गैंग रेप के 45 दिन बाद हुआ और मामला रफा दफा कर दिया गया. उसने खबर की क्लिपिंग लगाकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भेजी, लगातार सवाल किये, नतीजन मामला दोबारा खुला, लड़की को न सिर्फ न्याय मिला बल्कि तंत्र ने चूक भी मानी और उसे मुआवजा राशि भी मिली.
फतेहगढ़ ज़िले की एक जेल में उचित इलाज के अभाव में एक कैदी की मृत्यु की खबर छपी और उसने लिखा पत्र फिर एक बार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को. कहा कि कैदी अपने किये की सजा भुगतने जेल पहुंचा है, उसके साथ ऐसा व्यवहार कहीं भी न्यायसंगत नहीं. आखिर उस मृत कैदी के परिवार को न्याय मिला.
इसी साल सीतापुर, उत्तर प्रदेश में बाढ़ के चलते कोई 190 परिवारों के पास रहने के लिए जगह न होने की खबर जब छपी तो उसने सूचना के अधिकार की मदद से जंग इस कदर छेड़ी कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने उसकी सनद लेते हुए ऊंची जगह पर न सिर्फ उन परिवारों को भूमि के पट्टे दिए बल्कि वहां आंगनवाड़ी और जन वितरण व्यवस्था भी की.
अखबार की कतरन और सूचना का अधिकार को अस्त्र बनाकर मानवाधिकार की जंग लड़ने वाले इस सिपाही का नाम उमेश गुप्ता है.
लखनऊ में कार्यरत उमेश पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पढ़ने के बाद गैर सरकारी संस्थानों से जुड़े तो रहे पर निजी तौर पर इस जंग को लगातार जारी रखे हुए हैं.
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दूसरी ओर हरियाणा मेवात में रहती है 22 साल की फरहीन. वहीं स्थित रेडियो मेवात की कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता है. एक ऐसे समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें निरक्षरता के चलते बहुत से अन्याय वो अपने आस पास होते देखती है. पर अभी कुछ ही साल पहले जब उसे रेडियो मेवात की टीम ने कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए चुना तो उसके सारे वो ख्वाब लौट आये जो कि गांव में सुविधा न होने के कारण कक्षा 12 के बाद पढाई रुक जाने से कहीं रूठ गए थे.
पिछले एक साल से रेडियो मेवात पर ‘से नो टू हिंसा’ नाम के शो के ज़रिये घरेलू हिंसा के मामलों पर न सिर्फ फरहीन जनजागृति बढ़ा रही है बल्कि साल भर में करीब 130 महिलाएं घरेलू हिंसा के खिलाफ उठ खड़ी हुई, कई मामले पुलिस थाने में दर्ज किये गए और इन सब में स्टूडियो के बाहर भी न्याय की जंग में फरहीन उन महिलाओं के साथ बनी हुई है. लगातार परामर्श और मदद के लिए बजती फरहीन के फोन की घंटी इस बात की तस्दीक करती है कि स्टूडियो का माइक्रोफोन किस तरह लोगों को अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए खड़ा कर सकता है.
उधर मध्य प्रदेश की उषा दुबे का ज़िक्र इस सब से अलग है. जब कई गैर सरकारी संस्थान और सरकारी विभाग कोरोना काल में किसी मोबाइल ऐप और इंटरनेट के सहारे हमारे आपके बच्चों तक शिक्षा का अधिकार पहुंचाने का दावा कर रहे थे तब सिंगरौली की ये शिक्षिका उन ग्रामीण बच्चों की तरफ देख रही थी कि जिनके पास न मोबाइल है न इंटरनेट और जो बड़ी मुश्किल से स्कूल तक पहुंचे थे. आखिर जब सभी शिक्षक घरों में बैठकर इंटरनेट कक्षाओं के ज़रिये बच्चों को शिक्षा दे रहे थे. तब सिंगरौली की उषा ने अपनी स्कूटी निकाली एक बड़ा सा हेंगर बनाया उसमें तरह-तरह के पाठ्यक्रम की किताबें और अन्य किताबें लेकर रोज़ गाव पहुंचकर बच्चों को पढ़ाने लगी और बच्चे उसे चलते फिरते पुस्तकालय वाली दीदी कहने लगे.
आंकड़े देखें तो सिर्फ अक्टूबर 2020 में कोई 7024 मामले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में दर्ज हुए हैं. इनमें बहुत छोटा भाग उन मामलों का है जो शोषित खुद दर्ज कराता है. ऐसे में गैर सरकारी संस्थान तो सक्रिय हैं ही पर इस मानवाधिकार दिवस पर खासकर आभार और गर्व के साथ उमेश गुप्ता, फरहीन और उषा दुबे जैसों के प्रयासों को पहचाना जाना ज़रूरी है.
ये व्यक्तिगत प्रतिबद्धता लिए वो चुप्पा योद्धा हैं जो मानो शम्सी मिनाई के उस शेर को अपने ताबीज़ की तरह बांध चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा है-
मुझे बख़्शी है ख़ुदा ने, कौन रोकेगा ज़बां मेरी
तुम्हें हर हाल में सुननी पड़ेगी दास्तां मेरी
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