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Friday, 22 November, 2024
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अमित शाह के सामाजिक समीकरण के दम पर भारत कैसे हुआ मोदीमय

उत्तर प्रदेश में अमित शाह ने जिस तरह से सामाजिक समीकरण का जाल बिछाया था, वह बाद में अन्य चुनावों के लिए मॉडल बन गया.

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मोदी की सुनामी की शुरुआत दिसंबर 2018 में तीन राज्यों – राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ की हार या फिर 14 फरवरी, 2019 को कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले से नहीं उपजी थी, बल्कि पिछले पांच साल तक संगठन और सरकार में अद्भुत समन्वय के साथ संगठन को सक्रिय और ऊर्जावान बनाए रखने का नतीजा थी.

हालांकि तीन राज्यों की हार ने भाजपा की जीत को लेकर संदेह जरूर पैदा किया और ऐसा माहौल बनने लगा कि मोदी-शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं है. लेकिन इतना तय था कि इस हार ने 2019 के लोकसभा चुनाव की लड़ाई को बेहद दिलचस्प बना दिया था. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी लोक-लुभावन वादों से चुनाव की दिशा तय कर रहे थे. लेकिन कांग्रेस और राहुल का चुनाव प्रबंधन भाजपा जैसा नहीं था, न ही कोई बड़ी रणनीति नजर आ रही थी.

तीन राज्यों की बड़ी जीत के बाद कांग्रेस अति आत्मविश्वास में आ गई थी. महागठबंधन की कवायद भी इस तरह तेज हो गई थी कि विधानसभा की जीत के बावजूद उसका सारा फोकस मोदी ही थे. जबकि दूसरी तरफ मोदी-शाह की बड़ी खासियत दिखी कि वे हर चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ते हैं, भले उसमें जीत मिले या हार. दोनों ही स्थितियों में संगठन की स्पीड को थमने नहीं देते. हर चुनाव को नॉकआउट बनाकर लड़ना इस जोड़ी की आदत में शुमार है और इसके लिए आखिरी दम तक जूझने का जज्बा नतीजे आने तक कायम रखते हैं. इसलिए जब तीन राज्यों में हार मिली और भाजपा के हाथ से जमी-जमाई तीन सरकारें निकल गईं तो भी मोदी-शाह के चेहरे पर शिकन नहीं थी, क्योंकि दोनों की निगाह मछली की आंख की तरह लोकसभा चुनावों पर टिकी थी, जिसकी तैयारी पांच साल से निरंतर चल रही थी.

11 दिसंबर, 2018 को सेमीफाइनल वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे आए थे और 13 दिसंबर को शाह ने राष्ट्रीय पदाधिकारियों की बैठक बुलाकर लोकसभा चुनाव अभियान के लिए 12 पन्नों का एक रणनीतिक एजेंडा थमा दिया था, जिसमें सामाजिक समीकरण को साधने के लिए पार्टी के सभी मोर्चों- युवा, महिला, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, किसान मोर्चों को अलग-अलग राज्यों में अधिवेशन और एक-एक रैली करने, पहला वोट मोदी को, कमल ज्योति संकल्प, बूथ पर सुशासन दिवस, कमल मोटरसाइकिल रैली, सैनिक सम्मान, मेरा परिवार—भाजपा परिवार जैसे महाभियान का खाका था.

भारत कैसे हुआ मोदीमय किताब का कवर

दूसरी तरफ, 15 जनवरी से 10 फरवरी के बीच अमित शाह का क्लस्टर स्तरीय कार्यक्रम रखा गया, जिसमें 5-5 बूथों से बने शक्ति केंद्रों का सम्मेलन, लाभार्थी संपर्क, 10.30 बजे से पहले मतदान, युवा संसद, प्रबुद्ध सम्मेलन करने का कार्यक्रम तय हो चुका था. युवा मोर्चा को चौदह तरह के अभियान चलाने का निर्देश दिया जा चुका था. सारे अभियान चुनावी अधिसूचना से ठीक पहले 2 मार्च तक खत्म करने की योजना थी. हर कार्यक्रम को किस तरह से करना है या कितने लोग, किस तरह के लोगों को लाना है, इसका एक-एक विवरण इस परिपत्र में शाह ने शामिल कर लिया था.

मोदी का चेहरा और विकास का एजेंडा सबसे ऊपर

प्रधानमंत्री मोदी की सौ रैलियों का खाका बन चुका था. इनमें से रणनीतिक तौर पर भाजपा ने 123 हारी हुई सीटों के लिए जो रणनीति बनाई थी, उन क्षेत्रों में या उसके आसपास मोदी की रैली का खाका क्लस्टर के हिसाब से हुआ. यह दौरा सरकारी होता था, लेकिन साथ में भाजपा की विशाल रैलियां भी होने लगी थीं. यही वह समय था, जब भाजपा अपने विस्तार के लिए पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना जैसे राज्यों में गतिविधि तेज कर चुकी थी. ईस्ट इंडिया प्लान हो या फिर मौजूदा राज्यों में लोकसभा की सभी सीटों को बरकरार रखने की चुनौती, शाह लगातार सर्वेक्षण कराकर अपनी रणनीति को अंजाम देने में जुटे थे. चुनाव प्रचार अभियान की रणनीतियां भी बन रही थीं, जिसमें मोदी का चेहरा और विकास का एजेंडा सबसे ऊपर था.

इसके बाद अंतरिम बजट में सम्मान निधि से किसानों, बीमा से व्यापारियों, आय कर में छूट से मध्यम वर्ग को साधने की कोशिश हुई. लेकिन 14 फरवरी, 2019 को कश्मीर के पुलवामा में आतंकी हमले में 40 सी.आर.पी.एफ. जवानों की शहादत ने चुनाव की पूरी बहस ही बदल दी. पाकिस्तान को माकूल जवाब देने की रणनीति बनी तो 16 फरवरी से भाजपा ने अपने चुनाव अभियान की दिशा मोड़ दी. राष्ट्रवाद सर्वोपरि हो गया, विकास जैसे मुद्दे नीचे चले गए. अमूमन यह माना जाता है कि पुलवामा और फिर ‘ऑपरेशन बालाकोट’ ने भाजपा को राष्ट्रवाद का मुद्दा थमाया लेकिन ऐसा मानने वाले भाजपा-संघ को शायद समझते नहीं हैं. भाजपा-संघ का राष्ट्रवाद से अन्योन्याश्रय संबंध है, जिसे पिछले पांच वर्षों में भाजपा ने कई बार अलग-अलग अंदाज में हवा दी.

बिहार चुनाव की हार के बाद इस पर बड़ा मंथन हुआ और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से पार्टी ने सिर्फ राष्ट्रवाद की राह पकड़ी. जे.एन.यू. कांड ने भाजपा को मजबूती दी. दरअसल राष्ट्रवाद ऐसा विषय है, जिसे भाजपा वक्त की नजाकत के हिसाब से उसकी तीव्रता को कम-ज्यादा करती रहती है. इस पूरी रणनीति को अलग अध्याय के जरिए रखा गया है, जिससे साफ है कि पुलवामा के बाद भाजपा ने जो भी गतिविधियां कीं, उस तरह के सारे अभियान अगस्त 2017 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ पर भी कर चुकी थी और उसी वक्त मैंने एक खबर प्रमुखता से छापी थी- ‘2019 में राष्ट्रवाद के सहारे चुनाव में उतरेगी भाजपा.’

देश का माहौल कुछ ऐसा ही था जैसा सन् 1971-72 में इंदिरा गांधी के लिए था. वजह थी- भारत-पाक युद्ध में उन्होंने दुश्मन को धूल चटाई थी. भले चुनाव पहले ही हो चुके थे, लेकिन राष्ट्रवाद की ऐसी भावना जाग्रत हुई कि हर व्यक्ति इंदिरा गांधी में भारत की सुरक्षा देख रहा था. यही स्थिति बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद नरेंद्र मोदी के लिए बन गई थी.

शाह का सामाजिक समीकरण चुनावी मॉडल बन गया

भाजपा ने बहुत चतुराई के साथ अपनी बनिया-ब्राह्मण वाली पार्टी की छवि तोड़ने की योजना पर काम किया. गरीब और गरीबी के जरिए भाजपा और मोदी की रणनीति गरीबों के हिमायती होने का वही टैग हासिल करने की बनी, जो कभी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ जुड़ा था. इसमें नोटबंदी का फैसला सबसे अहम था. इस फैसले में बड़ा जोखिम भी था. लेकिन इसके बाद के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई, पार्टी ने जाति की बजाय वर्ग की राजनीति को प्राथमिकता दी और गरीब के रूप में नया वोट बैंक अपने साथ जोड़ लिया.

उत्तर प्रदेश में शाह ने जिस तरह से सामाजिक समीकरण का जाल बिछाया था, वह बाद में अन्य चुनावों के लिए मॉडल बन गया. इसकी विस्तृत जानकारी अलग अध्याय में समाहित की गई है. लेकिन बड़ी जीत के बाद भी उन राज्यों में विस्तार की योजना को थमने नहीं दिया, जहां पार्टी 2014 में भी कमज़ोर थी. पहले कोरोमंडल प्लान बना, लेकिन जब साल-डेढ़ साल बाद पार्टी को अहसास हो गया कि केरल और तमिलनाडु में उसकी जमीन सीटों के लिहाज से अभी उपजाऊ नहीं होने वाली तो उन्होंने ईस्ट इंडिया प्लान बनाया. शाह के ईस्ट इंडिया प्लान वाले क्षेत्र की कुल 105 में से भाजपा के पास सिर्फ 6 सीटें 2014 में आई थीं. लेकिन 2019 में पार्टी ने कमजोर संगठनात्मक ढांचे के बावजूद इन राज्यों में पांच गुना बढ़ोतरी कर 30 सीटें हासिल कर लीं.

शाह की निगाह 2019 के लोकसभा चुनाव पर थी, सो वे लगातार अपनी 282 सीटें बचाने के साथ-साथ नई सीटें बढ़ाने पर काम कर रहे थे, जिसके लिए पार्टी ने हारी हुई 123 सीटों पर मिशन मोड में काम शुरू किया. 25 क्लस्टर में बांटकर प्रभारी तैनात कर दिए. गुजरात की कठिन हो चुकी लड़ाई को कैसे आसान बनाया, त्रिपुरा में लेफ्ट का गढ़ ढहाया और कर्नाटक में अपना किला मजबूत करने के लिए कौन-कौन सी रणनीति अपनाई, इसकी पूरी कहानी इस पुस्तक में लिपिबद्ध है. चुनाव में सोशल मीडिया की महती भूमिका को समझते हुए पार्टी ने सोशल मीडिया का संगठनात्मक ढांचा मजबूत करने के लिए नया लक्ष्य रखा. भाजपा की पहुंच अमूमन 4 से 7 फीसदी लोगों तक थी, जबकि पार्टी का लक्ष्य इसे 25 से 30 फीसदी तक पहुंचाना था, ताकि समूचे चुनाव अभियान को डिजिटल वॉर के रूप में तब्दील किया जा सके.

(भारत कैसे हुआ मोदीमय का अंश प्रभात प्रकाशन से साभार.)

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