लोकतंत्र ऐसे पलटता है
पेरू के अलबर्टो फुजिमोरी ने तानाशाही की कोई योजना नहीं बनाई थी. उनकी तो राष्ट्रपति बनने की भी कोई योजना नहीं थी. जापानी मूल के फुजिमोरी एक यूनिवर्सिटी में मामूली से रेक्टर थे, जिन्होंने 1990 में सीनेटर बनने के लिए चुनाव लड़ने का सोचा था. जब किसी भी राजनीतिक दल ने उन्हें नामांकित नहीं किया, तो उन्होंने खुद की पार्टी बनाकर अपना नामांकन करा लिया. चूंकि उनके पास पैसे नहीं थे, तो उन्होंने यह सोचकर राष्ट्रपति की दौड़ में दांव लगा दिया कि इसी बहाने कुछ प्रचार मिलेगा जो सीनेटर के चुनाव में काम आ जाएगा. वह साल तीव्र आर्थिक संकट का था. एक ओर पेरू की अर्थव्यवस्था अपस्फीति के चलते गर्त में जा चुकी थी. दूसरी ओर माओवादी संगठन शाइनिंग पाथ के छापामार लड़ाके राजधानी लीमा तक पहुंच चुके थे. यह संगठन 1980 में अपने गठन के बाद से दसियों हजार लोगों की हत्या कर चुका था. लिहाजा पेरू की जनता स्थापित राजनीतिक दलों से क्षुब्ध थी और इसी बगावत के चक्कर में कई लोग सियासी रूप से उस नामालूम शख्स फुजिमोरी की ओर देखने लगे, जिनका नारा था ‘ए प्रेसिडेंट लाइक यू’ (आपके जैसा प्रेसिडेंट). सर्वेक्षणों में फुजिमोरी ने अप्रत्याशित रूप से बढ़त बना ली और दूसरे स्थान पर पहुंच गए. राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ में देश के प्रतिष्ठित उपन्यासकार मारियो वर्गास लोसा के खिलाफ सीधी टक्कर में पहुंचकर उन्होंने पेरू के राजनीतिक जगत को स्तब्ध कर दिया. लोसा, जिन्हें बाद में साहित्य का नोबेल मिला, उनके पीछे तकरीबन पूरा सत्ता-प्रतिष्ठान खड़ा था — नेता, मीडिया, कारोबारी, सब के सब — लेकिन पेरू के आम लोग लोसा को उन सत्ताधारी कुलीनों का आदमी मानकर चल रहे थे जिनके कान जनता के सरोकारों की ओर से बन्द हो चुके थे. लोगों के इस गुस्से को फुजिमोरी के लोकप्रियतावादी नारों ने पकड़ा और बहुत से लोगों को लगने लगा कि असली विकल्प यही है. फुजिमोरी जीत गए.
अपने उद्घाटन भाषण में फुजिमोरी ने ‘गणतंत्र के इतिहास में सबसे बड़े संकट’ के प्रति लोगों को आगाह किया. उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था ‘ढहने की कगार पर है’ और पेरू का समाज “हिंसा, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और ड्रग्स की तस्करी से टूट चुका है.” फुजिमोरी ने संकल्प लिया कि वे “पेरू को इस गड्ढे से बाहर निकालकर उसे सही दिशा में बेहतर भविष्य की ओर” ले जाएंगे. वे संकल्पबद्ध थे कि देश को कड़े आर्थिक सुधारों की जरूरत है और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई उसे तेज करनी होगी. लेकिन ये सब करना कैसे है, इसका अन्दाजा उनके मन में साफ नहीं था.
उनके सामने कई बड़ी बाधाएं भी थीं. चूंकि वे राजनीति में बाहरी थे, तो पेरू के परम्परागत सत्तादानों के बीच उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे. विपक्षी दलों का कांग्रेस पर नियंत्रण था और सुप्रीम कोर्ट में भी उन्हीं के लोग बैठे हुए थे. पारम्परिक मीडिया पहले ही लोसा का समर्थन कर चुका था और उसे फुजिमोरी पर विश्वास नहीं था. अपने चुनाव प्रचार में फुजिमोरी ने राजनीतिक अभिजात्यों पर बेसाख्ता हमले किए थे और उन्हें ऐसा भ्रष्ट कुलीनतंत्र करार दिया था जो देश को चला रहा था. लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने पाया कि जिनके ऊपर उन्होंने प्रचार के दौरान हमला किया था और जिन्हें हराया था, सत्ता के तमाम उपकरणों पर उन्हीं का नियंत्रण कायम है.
लिहाजा, फुजिमोरी की शुरुआत कठिन रही. उनके राष्ट्रपति बनने के शुरुआती महीनों में कांग्रेस से एक भी बिल पास नहीं हुआ. अदालतें भी ऐसा लगता था कि बढ़ते आतंकी खतरे पर प्रतिक्रिया देने में दिलचस्पी नहीं ले रही थीं. फुजिमोरी के पास जटिल विधायी प्रक्रियाओं का कोई पूर्व-अनुभव नहीं था, लेकिन ज्यादा बड़ी दिक्कत यह थी कि उनके भीतर इसे सीखने के लिए धैर्य की कमी भी थी. जैसा कि उनके एक सहयोगी का कहना था, “फुजिमोरी इस बात को समझ ही नहीं पा रहे थे कि हर बार जब उन्हें कांग्रेस से कोई कानून पास कराना होता था तो उसके लिए राष्ट्रपति निवास पर सीनेट के अध्यक्ष को बुलावा भेजने का मतलब क्या था.” कभी-कभार इससे खीजकर वे कहते थे कि इससे तो बेहतर था वे अपने लैपटॉप के सहारे पेरू पर अकेले ही राज करते.
इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के नेताओं से वार्ता करने के बजाय फुजिमोरी ने उन्हें ‘निकम्मे और ढोंगी’ कहकर लताड़ना शुरू कर दिया. सहयोग न करने वाले जजों को उन्होंने ‘गीदड़’ और ‘दुष्ट’ कह डाला. इससे ज्यादा बुरा तब हुआ जब वे कांग्रेस की उपेक्षा करके कार्यकारी आदेश जारी करने लगे. अब सरकारी अधिकारी यह शिकायत करने लगे कि पेरू का संविधान ‘सख्त’ और ‘बाध्यकारी’ है. इससे यह डर और पुष्ट हुआ कि फुजिमोरी की लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति वचनबद्धता कमजोर है. कारोबारी नेताओं को दिए एक भाषण में फुजिमोरी ने पूछा, “क्या हम वास्तव में लोकतंत्र हैं?…मुझे हां कहने में दिक्कत हो रही है. हकीकत में हम एक ऐसे देश हैं जहां हमेशा से ताकतवर अल्पसंख्यकों, मुट्ठी-भर कम्पनियों, गिरोहों, और धड़ों का राज रहा है.”
इस बयान पर पेरू का सत्ता-प्रतिष्ठान सकते में आ गया और उसने पलटकर जोर लगाना शुरू कर दिया. जब फुजिमोरी ने अदालतों की उपेक्षा करते हुए जेलों में आतंकवादियों के लिए जगह बनाने के लिए छिटपुट जरायम के दोषी हजारों कैदियों को रिहा कर दिया, तब नेशनल एसोसिएशन ऑफ जजेज ने उनके ऊपर ‘अस्वीकार्य लोकतंत्र-विरोधी निरंकुशता’ का आरोप लगाया. इसके बाद अदालतों ने उनके दिये कई आदेशों को असंवैधानिक ठहरा दिया. बहुत जल्द फुजिमोरी के आलोचक उन्हें ‘निरंकुश’ कहकर खारिज करने लगे और मीडिया में उन्हें जापानी सम्राट बताया जाने लगा. 1991 की शुरुआत में उनके ऊपर महाभियोग चलाने की अफवाहों ने जोर पकड़ा. मार्च में समाचार पत्रिका कैरिटास ने अपने कवर पर फुजिमोरी का चेहरा तनी हुई बन्दूकों के बीच छापा और लिखा, “क्या फुजिमोरी को हटाया जा सकता है? कुछ लोग संविधान पढ़ रहे हैं.”
खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहे फुजिमोरी ने वार तेज कर दिया. कारोबारी नेताओं को दिये एक भाषण में उन्होंने दावा किया, “मैं तब तक नहीं ठहरूंगा जब तक सारी बची-खुची वर्जनाओं को तोड़ नहीं देता. एक-एक करके सब गिर जाएंगी. देश को प्रगति से रोकने वाली तमाम पुरानी दीवारों को हम पूरे साहस के साथ गिरा देंगे.” नवम्बर 1991 में उन्होंने 126 कार्यकारी आदेशों का गट्ठर कांग्रेस के पास मंजूरी के लिए भेजा. ये आदेश ऐसे थे जिनके दीर्घकालिक परिणाम बहुत अहम होते. इनमें कुछ आतंकवाद निरोधी उपाय भी शामिल थे जिनके कारण नागरिक स्वतंत्रताएं बाधित हो सकती थीं. कांग्रेस अड़ गई. उसने न सिर्फ कई अहम आदेशों को वापस कर दिया या हल्का कर डाला बल्कि फुजिमोरी के अधिकारों में कटौती का एक कानून भी बना दिया. इसके बाद टकराव बढ़ गया. फुजिमोरी ने कांग्रेस के ऊपर ड्रग तस्करों से नियंत्रित होने का आरोप लगा दिया. इसके जवाब में सीनेट ने फुजिमोरी की ‘नैतिक अक्षमताओं’ का हवाला देते हुए उन्हें राष्ट्रपति पद ‘खाली’ करने का एक प्रस्ताव पारित कर दिया. चैम्बर ऑफ डेप्युटीज में यह प्रस्ताव हालांकि, कुछ वोटों से गिर गया, लेकिन इस प्रक्रिया में टकराव इस हद तक बढ़ चुका था कि एक घबराए हुए सरकारी अधिकारी का कहना था कि “या तो कांग्रेस राष्ट्रपति की हत्या कर देगी या फिर राष्ट्रपति कांग्रेस को खत्म कर देंगे.”
राष्ट्रपति ने कांग्रेस को निपटा दिया. 5 अप्रैल, 1992 को फुजिमोरी टेलीविजन पर आए और उन्होंने ऐलान किया कि वे कांग्रेस और संविधान दोनों को भंग कर रहे हैं. अपने अप्रत्याशित चुनाव के दो साल के भीतर एक बाहरी इस तरह आततायी बन गया.
कुछ निर्वाचित दबंग ऐसे होते हैं जिनके हाथों में पदग्रहण से पहले ही राज करने का एक खाका होता है, फुजिमोरी जैसों के हाथ खाली होते हैं. वैसे भी, लोकतांत्रिक ढांचे के पतन में किसी खाके की जरूरत नहीं पड़ती. बजाय इसके, जैसा कि पेरू का तजुर्बा हमें बताता है, यह पतन कुछ अनपेक्षित घटनाओं की शृंखला का परिणाम हो सकता है, जैसे नियम-कानूनों की अवहेलना करने वाले एक दबंग नेता और डरे हुए राजनीतिक प्रतिष्ठान के बीच की रस्साकशी से उपजी घटनाएं.
अक्सर जबानी जमाखर्च से यह सिलसिला शुरू होता है. दबंग नेता अपने आलोचकों पर कठोर और उकसाने वाली भाषा में हमला बोलता है, जैसे वह उन्हें शत्रु, विध्वंसक, और यहां तक कि आतंकवादी भी बोल सकता है. हुगो चावेज़ जब पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हुए, तो उन्होंने अपने आलोचकों को ‘बदबूदार सूअर’ और ‘घिनौने कुलीन’ कहा था. राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपने आलोचकों को ‘दुश्मन’ और ‘राष्ट्रद्रोही’ की संज्ञा दी. फुजिमोरी ने अपने विरोधियों को आतंकवाद और ड्रग की तस्करी से जोड़ दिया, वहीं इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी ने उन जजों पर हमला किया जिन्होंने उन्हें ‘कम्युनिस्ट’ कहकर उनके खिलाफ फैसला दिया था. पत्रकार भी ऐसे हमलों का निशाना बने हैं. इक्वाडोर के राष्ट्रपति राफेल कोरीया ने मीडिया को एक ‘गम्भीर राजनीतिक शत्रु’ बताया था जिसे ‘परास्त किया जाना जरूरी’ है. तुर्की के रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पत्रकारों पर ‘आतंकवाद’ फैलाने का आरोप लगाया था. ऐसे हमले गम्भीर हो सकते हैं. लोग अगर वास्तव में यह मानने लग जाएं कि विपक्षी आतंकवाद से ताल्लुक रखते हैं और मीडिया झूठ फैला रहा है, तो इनके खिलाफ कार्रवाइयों को सही ठहराना आसान हो जाता है.
ये हमले सामान्यत: यहीं नहीं रुकते. वैसे तो राजनीतिक पर्यवेक्षक हमें आश्वस्त करते नजर आते हैं कि दबंग नेता केवल ‘बकबक’ करते हैं और उनकी बातों को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए. लेकिन दुनिया-भर में पैदा हुए दबंग नेताओं के ऊपर नजर डालने से पता चलता है कि उनमें से कई ने अपनी कथनी को करनी में बदला है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अक्सर किसी दबंग नेता के राजनीतिक उदय के साथ ही समाज ध्रुवीकृत होने लग जाता है और हर तरफ घबराहट, नफरत और परस्पर अविश्वास का माहौल बन जाता है. ऐसे में नये नेता के धमकी-भरे शब्दों का अक्सर उलटा असर भी होता है, जैसे अगर मीडिया को लगा कि उसे धमकाया जा रहा है तो वह लगाम छुड़ा लेगा और सरकार को कमजोर करने की सचेत कोशिश में अपने पेशेवर मानकों को छोड़ देगा. इसी तरह विपक्ष को भी लग सकता है कि देश के भले के लिए किसी भी तरह से सरकार को जाना चाहिए, चाहे महाभियोग लाना पड़े, आन्दोलन करना पड़े या तख्तापलट.
1946 में अर्जेंटीना में जब पहली बार हुआन पेरोन चुने गए थे, उनके कई विरोधी उन्हें फासिस्ट मानकर चल रहे थे. विपक्षी दल रैडिकल सिविल यूनियन ने पेरोन के शपथ-ग्रहण का बहिष्कार कर दिया था. वह खुद को ‘नाजियों के खिलाफ संघर्षरत’ मानता था. पेरोन के पदग्रहण के पहले ही दिन से कांग्रेस में उनके विपक्षियों ने ‘विरोध, अवरोध और उकसावे’ की रणनीति अपना ली. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट से उन्होंने आह्वान कर डाला कि वह सरकार को अपने नियंत्रण में ले. इसी तरह, वेनेजुएला के विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया था कि वह मनोचिकित्सकों का एक दल गठित करे, यह जाँचने के लिए कि चावेज़ को ‘मानसिक अक्षमता’ के आधार पर पद से हटाया जा सकता है या नहीं. वहीं कई प्रतिष्ठित अखबारों और टेलीविजन नेटवर्कों ने चावेज़ को हटाने के लिए किये गए संविधानेतर प्रयासों का अनुमोदन किया. ऐसे में स्वाभाविक है कि शासक के भीतर अगर तानाशाही की प्रवृत्तियाँ हों, तो वह ऐसे हमलों को एक गम्भीर खतरे के रूप में लेगा और पहले से ज्यादा हमलावर हो जाएगा.
आम तौर पर दबंग शासक एक और वजह से ऐसे हमले करते हैं. दरअसल लोकतंत्र के भीतर काम करने में बहुत घिसाई की जरूरत पड़ती है. पारिवारिक कारोबार या फौजी टुकड़ियों को तो हुकुम के बल पर चलाया जा सकता है, लेकिन लोकतंत्र में बातचीत, समझौतों और रियायतों की जरूरत पड़ती है. हो सकता है कि राष्ट्रपति द्वारा की गई पहले कांग्रेस में जाकर खत्म हो जाएं या अदालत उन पर रोक लगा दे. ऐसी बन्दिशों से सारे नेता हताश होते हैं, लेकिन जो लोकतांत्रिक होते हैं वे जानते हैं कि उन्हें इन फैसलों को स्वीकार करना होगा. वे लगातार होती अपनी आलोचना को झेल जाते हैं. वहीं बाहरी लोगों के लिए, खासकर वे जो दबंग प्रवृत्ति के हों, लोकतांत्रिक राजनीतिक अक्सर खिजाने वाली और नाकाबिले बर्दाश्त होती है. उन्हें लोकतांत्रिक निगरानी और सन्तुलन की प्रणाली दमघोंटू जान पड़ती है. जैसे राष्ट्रपति फुजिमोरी इस बात को पचा ही नहीं पाते थे कि हर बार कोई कानून पास करवाने के लिए उन्हें सीनेट के नेताओं के साथ बैठना पड़ेगा. इसी तरह निरंकुश प्रवृत्ति के नेताओं के भीतर लोकतंत्र की दैनन्दिन राजनीति को झेलने का धैर्य बहुत कम होता है. इसलिए फुजिमोरी की तरह वे भी जंजीरें तोड़कर स्वच्छन्द हो जाना चाहते हैं.
(‘लोकतंत्र की चौकीदारी’ किताब के लेखक स्टीवेन लेवित्स्की और डेनियल ज़िब्लाट हैं. यह किताब अंग्रेज़ी किताब ‘How Democracies Die’ का हिंदी अनुवाद है, जिसे अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है. किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. इस अंश को प्रकाशन की अनुमति से प्रकाशित किया जा रहा है.)