जब 1980-90 के दशक में इसलामिक जिहादी कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों को निशाना बना रहे थे, श्रीनगर के अखबारों में आतंकवादी हिंदुओं को घाटी छोड़ने की धमकियाँ दे रहे थे, सरेआम उनकी हत्या कर रहे थे, उनकी महिलाओं का बलात्कार किया जा रहा था, जिसके परिणामस्वरूप 4.5 से 5 लाख के बीच कश्मीरी पंडित अपने घरों को छोड़कर पलायन को विवश हुए और बाद में सुरक्षाबल आतंकवादी हमले व स्थानीय लोगों के पथराव का शिकार होते रहे, तब हमारे देश में संविधान लागू था. सवाल उठता है कि आखिर हमारा संविधान कश्मीरी पंडितों और सुरक्षाबलों का रक्षा कवच क्यों नहीं बन पाया?
विचार कीजिए कि वर्षों पुराने, यहां तक कि दशकों पुराने महिला यौन-उत्पीड़न और यौन हमले के खिलाफ ‘मी टू’ (MeToo) नामक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन के अंतर्गत आए मामलों पर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल सुनवाई की, बल्कि इन पर निर्णय भी सुनाए. पूर्व केंद्रीय मंत्री एम.जे. अकबर का मामला इसका जीवंत उदाहरण है.
किंतु तीन दशक पहले, जो कुछ घाटी में कश्मीरी पंडितों के साथ जिहादियों ने किया था, उसके लिए दोषियों को सजा तो छोड़िए, उसकी सुनवाई तक देश के सर्वोच्च न्यायालय में अभी तक नहीं हो पाई है. 24 जुलाई, 2017 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने कश्मीरी पंडितों की ओर से दाखिल की गई पुनर्विचार याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था.
यह स्थिति तब है, जब हमारे संविधान की प्रस्तावना में विदेश से आयातित ‘सेक्युलर’ शब्द जोड़ दिया गया. विडंबना देखिए कि 26 दिसंबर, 1963 को उसी घाटी में श्रीनगर स्थित हजरतबल दरगाह से, जहाँ मुसलमानों की मान्यता है कि वहाँ पैगंबर मोहम्मद साहब की दाढ़ी का बाल (मू-ए-मुकद्दस) रखा हुआ है, उसके चोरी होने की अफवाह जंगल में आग की भाँति फैल गई थी और देश में हजारों-लाखों मुसलमानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया.
तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने मामला सँभालने के लिए अपने वरिष्ठ सहयोगी लालबहादुर शास्त्री को भारतीय गुप्तचर एजेंसी के समकालीन प्रमुख बी.एन. मलिक के साथ कश्मीर भेज दिया था. फरवरी 1964 में मू-ए-मुकद्दस ढूँढ़ने का दावा कर लिया और मामला शांत हो गया. सोचिए, जब 1989-91 में कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारा जा रहा था, तब उन्हें बचाने के लिए कोई राजकीय उपक्रम नहीं चलाया गया. क्या यही हमारे देश का सेक्युलरवाद है?
हमारा देश रक्तरंजित विभाजन के बाद अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ था. खंडित भारत ने अपनी सनातन संस्कृति के अनुरूप बहुलतावादी परंपरा का परिचय दिया और पंथनिरपेक्षता को अपनाया. अकसर, हमारे देश में कुछ मूर्ख लोग पंथनिरपेक्षता को धर्मनिरपेक्षता भी कहकर संबोधित करते हैं.
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आखिर इस विदेशी शब्दावली सेक्युलरिज्म का अर्थ क्या है?
Merriam Webster dictionary defines SECULARISM as “THE BELIEF THAT RELIGION SHOULD NOT PLAY A ROLE IN GOVERNMENT, EDUCATION, OR OTHER PUBLIC PARTS OF SOCIETY.”
यदि सेक्युलरिज्म की यही व्याख्या है, तो मुझे यह कहना ही होगा कि भारत ‘सेक्युलर’ देश नहीं है.
इसके मैं कई तथ्यपरक कारण गिना सकता हूँ. स्वतंत्रता मिलते ही तत्कालीन भारतीय नेतृत्व 1950 के दशक में अविलंब ‘हिंदू कोड बिल’ ले आया. हिंदू, सिख और बौद्ध आदि हिंदू कोड बिल के दायरे में तो आ गए, किंतु भारतीय मुसलमान को ‘मुसलिम पर्सनल लॉ’ (शरीयत) और उनकी सामाजिक कुरीतियों (तीन तलाक, हलाला सहित) के साथ छोड़ दिया गया. क्या भारत में यही सेक्युलरिज्म की व्यवस्था है? जब हम सेक्युलर देश हैं, तो यहाँ सबके लिए कानून एक क्यों नहीं है?
क्या देश के सेक्युलरवादियों को 1985-86 का शाहबानो मामला स्मरण है? इंदौर निवासी शाहबानो जब 62 वर्ष की थी, तब उनके तीन तलाक का मामला सुर्खियों में आया. शाहबानो के 5 बच्चे थे. उनके पति ने 1978 में उन्हें तलाक दिया था. पति से गुजारा भत्ता पाने का मामला 1981 में सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा.
पति का कहना था कि वह शाहबानो को गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है. अदालत ने 1985 में सी.आर.पी.सी. की धारा-125 पर फैसला दिया. यह धारा तलाक मामले में गुजारा भत्ता तय करने से जुड़ी है. न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए शाहबानो को बढ़ा हुआ गुजारा भत्ता देने का निर्णय दिया.
भारतीय मुसलिम समाज के एक बड़े वर्ग और इसलामी कट्टरपंथियों ने जब इसके विरुद्ध विरोध-प्रदर्शन किया, तो उस समय राजीव गांधी सरकार ने इन कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए संसद् में बहुमत के बल पर 1986 में एक विधेयक पारित किया, जो बाद में कानून बन गया.
यह कानून ‘द मुसलिम वुमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स एक्ट 1986’ कहलाया. इसने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया. संसद् द्वारा पारित कानून के अंतर्गत मुसलिम महिलाओं को केवल इद्दत (तलाक के समय) के दौरान ही गुजारा भत्ता मांगने की अनुमति मिली. राजीव गांधी सरकार के इस घोर सांप्रदायिक फैसले के खिलाफ तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इस्तीफा दे दिया था.
क्या यही देश का सेक्युलरवाद है? लेकिन 1985-86 में जो शाहबानो को प्राप्त नहीं हो सका था, वह 2017 में शायरा बानो और उनकी जैसी अर्थात् तीन तलाक का शिकार अन्य लाखों मुसलिम महिलाओं को मोदी सरकार से ट्रिपल तलाक विरोधी कानून के रूप में प्राप्त हो गया.
वर्ष 1988 में अंतरराष्ट्रीय लेखक सलमान रुश्दी का विवादित उपन्यास ‘सेटेनिक वर्सेस’ का लंदन में प्रकाशन हुआ था. तब भारत में मुसलिम समाज की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राजीव गांधी सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया.
अर्थात् देश की 87 प्रतिशत गैर-मुसलिम आबादी के पढ़ने के अधिकार का तत्कालीन सरकार ने गला घोंट दिया. क्या तत्कालीन सरकार ने ‘सेक्युलरिज्म’ बचाने के लिए ऐसा किया था? 1993 में तसलीमा नसरीन के उपन्यास ‘लज्जा’ के साथ भी ऐसा हुआ था.
वर्ष 2015 में एक उर्दू अखबार की महिला संपादक को मुंबई में इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था, क्योंकि उन्होंने ‘चार्ली हेब्दो’ में प्रकाशित पैगंबर मोहम्मद साहब के विवादित कार्टून को भूलवश दोबारा छाप दिया था. इसके लिए उन्होंने माफी भी मांगी, लेकिन यह उन्हें गिरफ्तारी से नहीं बचा पाया. क्या इससे देश का ‘सेक्युलरवाद’ बच गया?
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देश के स्वघोषित सेक्युलर नेता डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए 9 दिसंबर, 2006 को बड़ी चालाकी से दलितों, वंचितों के साथ अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलिम समाज का नाम लेकर देश के संसाधनों पर उनका पहला अधिकार बता दिया था.
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