नई दिल्ली: कायदे से तो ‘के.जी.एफ.’ के दीवानों को किसी रिव्यू की परवाह होनी ही नहीं चाहिए क्योंकि पिछले भाग में जो उत्सुकता उपजी थी उसे शांत करने के लिए यह वाला भाग तो देखना बनता ही है. फिर भी यह तो जानना ही चाहिए कि यह फिल्म उसके मुकाबले कितने कदम आगे बढ़ी और कहां जाकर ठहरती है.
पिछले भाग में ‘बड़ा आदमी’ बनने के चक्कर में अपना हीरो रॉकी जा पहुंचा था कोलार गोल्ड फील्ड्स यानी के.जी.एफ. में जहां उसने गरुड़ा को मार डाला था. वह था तो किराए का गुंडा लेकिन यह फिल्म दिखाती है कि गरुड़ा को मार कर वह खुद वहां का सुलतान बन बैठा. जाहिर है कि उसे भेजने वाले अब उसकी जान के दुश्मन हो चुके हैं. उधर गरुड़ा का चाचा अधीरा, सी.बी.आई, सरकार वगैरह-वगैरह भी उसके पीछे हैं. तो कैसे वह इन सबका सामना करता है, इनसे निबटता है और अंत में उसका क्या होता है, यह फिल्म आपको सब दिखाती है.
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पिछले भाग में रॉकी के बचपन, उसकी मां के असमय मरने के बाद उसके बंबई आने, पहले पिटने और फिर दूसरों को पीट कर ‘रॉकी’ बनने, गैंग्स्टरों के लिए काम करने और उनके कहने पर बंधुआ मजदूर बन कर के.जी.एफ. में जाने, वहां पर तिकड़म व साहस से गरुड़ा को मारने की एक सिलसिलेवार कहानी थी जिसमें एक सहज प्रवाह था और साथ ही आगे होने वाली घटनाओं के प्रति उत्सुकता जगा पाने का दम भी.
जबर्दस्त एक्शन के साथ-साथ उसमें मां के प्रति रॉकी की भावनाएं, हीरोइन रीना के प्रति उसके प्यार के अलावा कॉमेडी का टच भी था. लेकिन यह दूसरा भाग एक्शन को छोड़ कर बाकी सारे मोर्चों पर उससे पीछे रहा है.
इस फिल्म को रॉकी और अधीरा की टक्कर के लिए देखा जाना चाहिए. अधीरा के किरदार में संजय दत्त और उनका लुक इस आकर्षण को बढ़ाते ही हैं. लेकिन बड़ा अजीब लगता है कि अकेले अधीरा के हर आदमी को मारते-मारते ठीक उसके सामने पहुंच कर रॉकी फुस्स हो जाता है.
गौर करें तो इसकी स्क्रिप्ट में ढेरों तार्किक कमियां हैं. लेखक-डायरेक्टर प्रशांत नील ने जब चाहा, गोलियों की बौछारों के बीच किसी को जिंदा छुड़वा दिया और जब चाहा, एक गोली से उसे चुप करवा दिया. जब चाहा, रॉकी को कहीं भी पहुंचा दिया और जब चाहा, उससे कुछ भी करवा लिया. लेकिन तर्कों का इस फिल्म के मिजाज से भला क्या लेना-देना.
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आमतौर पर इस किस्म की फिल्मों का नायक अपराधी होने के बावजूद शोषित होता है और उसकी लड़ाई अत्याचारियों के साथ होती है. लेकिन गौर कीजिए कि पहले पुष्पा और अब रॉकी, दोनों ही का कहीं शोषण नही हुआ और वे अपनी मर्जी से अपराध की दुनिया पर राज करने के लिए इसमें घुसे जा रहे हैं. पिछली फिल्म में रॉकी को अपना आशिक बताने वाली नायिका इस बार पहले ही सीन से बेवजह मुंह फुलाए खड़ी है.
श्रीनिधि शैट्टी को इतने कमज़ोर और बेमतलब के किरदार में देख कर लगता है कि इतनी बुरी गत तो हिन्दी वाले भी अपनी हीरोइनों की नहीं करते.
फिल्म बेहद भव्य है, इसमें जबर्दस्त एक्शन हैं, बहुत तेज रफ्तार है, कमाल के सेट हैं, गजब के स्पेशल इफैक्ट्स हैं, कानों को फाड़ने वाला बैकग्राउंड म्यूज़िक हैं, रॉकी के किरदार में यश की धाकड़ मौजूदगी हैं, तालियां पिटवाने वाले संवाद हैं, कहानी में कई सारे झटके हैं, दुबई और दिल्ली है, एकदम अंत में इंटरनेशनल होने वाले अगले भाग का इशारा है तो भला और क्या चाहिए ?
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(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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