पिछले ही हफ्ते देश ने सावित्रीबाई फुले की 188वीं जयंती मनाई. सावित्रीबाई फुले की जयंती यानी 3 जनवरी को देश के कई प्रमुख नेताओं ने देश को बधाई दी. पिछले साल तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से बधाई संदेश आया था और गूगल ने सावित्रीबाई पर डूडल भी बनाया था. सावित्रीबाई फुले हैशटैग ट्विटर पर ट्रैंड भी कर रहा था. धुर विरोधी विचार के बावजूद, आरएसएस ने सावित्रीबाई फुले को सम्मान के साथ याद किया. सावित्रीबाई फुले के नाम पर देश में डाक टिकट है, यूनिवर्सिटी का नाम है, सरकारी पुरस्कार हैं. इस तरह, देर से ही सही, लेकिन सावित्रीबाई फुले का नाम अब लोक विमर्श में स्थापित हो चुका है. सावित्रीबाई ने महिलाओं और जाति उन्मूलन के लिए कई काम किए. लेकिन जिस एक काम के लिए उनकी ख्याति सबसे ज्यादा है, वह काम है 1848 में पुणे के भिडेवाड़ा में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोलना और फिर वहां पढ़ाना.
लेकिन पुणे का वो स्कूल सावित्रीबाई ने अकेले नहीं खोला था, न ही वो वहां की एकमात्र महिला शिक्षिका थीं. कोई और भी था, जो इस प्रोजेक्ट में उनके साथ जुटा था. कोई था, जिसने बालिका सावित्रीबाई के साथ शिक्षा ग्रहण की थी, उनके साथ पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण विद्यालय में ट्रेनिंग ली थी. कोई था, जिसने सावित्रीबाई और उनके पति को अपना घर रहने और स्कूल खोलने के लिए दिया था. कोई था, जो इस स्कूल में सावित्रीबाई के साथ पढ़ाता था.
हम बात कर रहे हैं फातिमा शेख की, जो सावित्रीबाई फुले की तरह ही देश के पहले गर्ल्स स्कूल की टीचर थीं.
फिर ऐसा क्या हुआ कि सारी प्रसिद्धि सावित्रीबाई फुले के हिस्से आई और फातिमा शेख गुमनाम रह गईं. ऐसा भी नहीं है कि सावित्रीबाई को प्रसिद्धि कोई आसानी से मिल गई. सावित्रीबाई के साथ भारत के स्थापित इतिहासकारो और स्कूल टेक्स्ट बुक लिखने वालों ने न्य़ाय नहीं किया है. उनका काम लगभग डेढ़ सौ साल तक गुमनामी में पड़ा रहा. महाराष्ट्र के बाहर ये नाम अनजाना बना रहा. वो तो बामसेफ और बाद में बीएसपी के लोगो ने मान्यवर कांशीराम की प्रेरणा से जब बहुजन महापुरुषों को लोकमानस में स्थापित करना शुरू किया तो सावित्रीबाई का नाम सामने आया. फिर एक सामाजिक और मास कम्युनिकेशन की प्रक्रिया में पिछले दस साल में ये नाम देश भर में प्रचलित हुआ. इसमें सोशल मीडिया में दलितों और बहुजनों की उपस्थिति की बहुत बड़ी भूमिका रही. अब पब्लिक स्फीयर में सावित्रीबाई फुले एक स्थापित नाम बन चुका है.
यह भी पढ़ें: हर कटेगरी के लिए सिविल सर्विस में हो एक एज लिमिट
लेकिन यही सब फातिमा शेख के साथ क्यों नहीं हुआ? फातिमा शेख का काम सावित्रीबाई के बराबर का तो है है, कई मायने में ज़्यादा साहसिक और परोपकारी भी माना जा सकता है. सावित्रीबाई उस धर्म के आडंबर और भेदभाव से लड़ रही थीं, जो उनके परिवार का धर्म था. फातिमा शेख के लिए तो ऐसी कोई समस्या नहीं थी. मुस्लिम लड़कियां तो तब भी मदरसे में जाती ही थीं. दलित लड़कियों को अपने स्कूल में लाना और उन्हें पढ़ाना सावित्रीबाई का स्वाभाविक प्रोजेक्ट था. लेकिन समाज के प्रभुत्व वर्ग को नाराज़ करके फातिमा शेख ने इसमें जुड़ना क्यों उचित समझा होगा?
फातिमा शेख के बारे में हम बहुत कम जानते हैं. मुस्लिम लड़कियों को आधुनिक शिक्षा से जोड़ने के उनके प्रयासों के बारे में चर्चा होती है. वे मुस्लिम मोहल्लो में भी जाती थीं और परिवारों को स्त्री शिक्षा के बारे में बताता थीं. फातिमा शेख के बारे में जानकारी का स्रोत सावित्रीबाई द्वारा पति ज्योतिबा फुले को लिखे पत्र भी हैं. उन्हें एक साथ हिंदुओं और मुसलमानों के विरोध का सामना करना पड़ा. महाराष्ट्र सरकार ने उर्दू टेक्स्ट बुक बाल भारती में फातिमा शेख के योगदान का ज़िक्र किया है.
सवाल उठता है कि फातिमा शेख के हिस्से में इतनी गुमनामी क्यों आई?
इसकी तीन व्याख्या हो सकती हैं.
एक, फातिमा शेख का कोई लेखन-कर्म ज्ञात नहीं है. इसलिए फातिमा शेख या उनके विचारों के बारे में हम कम जानते हैं. सावित्रीबाई अपना काम करने के साथ लगातार लिख भी रहीं थीं और ये लेखन कविता से लेकर गद्य और पत्र यानी कई विधाओं में था. इसलिए सावित्रीबाई के बारे में बात करना आसान है. उन पर शोध करना मुमकिन है. इन लेखन में उनके विचार ही नहीं, जीवन और संघर्ष भी झलकता है. इस वजह से आप सावित्रीबाई के व्यक्तित्व के बारे में एक मानसिक रेखाचित्र बना सकते हैं कि वे कैसी होंगी, क्या करती होंगी. फातिमा शेख के मामले में ऐसा नहीं है. सावित्रीबाई के साथ ये संयोग भी था कि उनके पति ज्योतिबा फुले अपने दौर के सबसे प्रखर चिंतक और सामाजिक परिवर्तन के अग्रणी थे. वे खुद भी लेखक थे. ऐसा नहीं है कि सावित्रीबाई का काम पूरी तरह से ज्योतिबा फुले पर निर्भर था, लेकिन उनकी भूमिका के दस्तावेज़ीकरण में ज्योतिबा फुले का भी योगदान है. फातिमा शेख के बारे में हम नहीं जानते कि उनका निकाह हुआ था या नहीं. उनके भाई उस्मान शेख ने फुले दंपति के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और विरोध के बावजूद उन्हें स्कूल खोलने के लिए मकान दिया, लेकिन उस्मान शेख के बारे में भी जानकारियों का अभाव है.
यह भी पढ़ें: कौन हैं अनुप्रिया पटेल, जिनकी नाराज़गी के आजकल चर्चे हैं?
दो, सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का काम महाराष्ट्र के समाज परिवर्तन आंदोलन के एजेंडे में बिल्कुल उपयुक्त साबित हुआ. इस वजह से जाति उन्मूलन के लिए काम करने वालों ने और जाति विरोधी समाज सुधारकों ने फुले दंपति के विचारों और उनको भी अपना लिया. बाबा साहेब आंबेडकर ने महात्मा फुले को बुद्ध और कबीर के अलावा अपना तीसरा गुरु मानते हुए अपनी किताब शूद्र कौन थे, उन्हें समर्पित की है. इसके उलट, फातिमा शेख को किसी समाज सुधार आंदोलन ने अपने प्रतीक के रूप में प्रचारित नहीं किया. इस मायने में महाराष्ट्र का दलित और बहुजन आंदोलन संकीर्ण नज़रिए वाला साबित हुआ. दलित आंदोलन ने पिछड़ी जातियों के नायक और नायिकाओं को तो अपनाया, लेकिन मुस्लिम नायिका फातिमा शेख को पर्याप्त महत्व नहीं दिया.
तीन, मुस्लिम समाज ने भी फातिमा शेख को वह महत्व नहीं दिया, जिसकी वे हकदार थीं. मुसलमान इलीट में आम मुसलमान लड़कियों के शिक्षा आंदोलन को लेकर पर्याप्त उत्साह नहीं था. परंपरागत मदरसों में लड़कियां पहले भी जाती थीं. फातिमा शेख अगर दलित और बाकी हिंदू लड़कियों को पढ़ा रही थीं, तो इसे लेकर उत्साहित होने का मुसलमानों के लिए कोई सीधा कारण नही था. फातिमा शेख और सावित्रीबाई ने 1848 में लड़कियों का स्कूल खोला था. उसके 27 साल बाद 1875 में सर सैय्यद अहमद खान ने मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज खोला जिसकी बुनियाद पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई. मुसलमान समाज सैय्यद अहमद खान को शिक्षाविद के तौर पर जितना महत्व देता है, उसके मुकाबले फातिमा शेख को कुछ भी महत्व नहीं मिला.
यानी फातिमा शेख को अपनो ने सराहा नहीं और जिनके लिए उन्होंने काम किया, उनके पास अपने नायक और नायिकाएं थीं. फातिमा शेख इतिहास के एक निर्मम संयोग का शिकार बन कर रह गईं. उम्मीद है कि वर्तमान दौर में उनके साथ न्याय हो पाएगा. फातिमा शेख को उनके साहस और समाज सेवा के लिए नमन.