रामनाथ गोयनका अवार्ड समारोह में भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि पत्रकारिता गहरे संकट के दौर से गुज़र रही है. ऐसा बयान जब देश के सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति दे तो समझना जरूरी है कि संकट क्या वाकई में गहरा है. अगर है तो आखिर ये संकट है क्या?
एक समाज सूचनाओं से मजबूत बनता है. फर्जी सूचनाएं समाज की जिज्ञासाओं को मारते हुए उसकी नागरिकता खत्म करती चला जाती है. अब ये फर्जी सूचनाओं और नागरिकता का मेल कैसे हो गया? ये सवाल आप लोगों के ज़हन में जरूर आया होगा. फर्जी सूचनाएं इतना बड़ा संकट कैसे बन चली है कि देश के महामहिम भी इसके बारे में सोच रहे हैं और समाज को इसके खतरों के बारे में आगाह कर रहे हैं.
ऐसे ही सवालों और खतरों के बारे में वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की किताब ‘बोलना ही है’ में विस्तार से जिक्र किया गया है. यह किताब पिछले कुछ सालों के भारत की यथार्थ गाथा है जिसे तथ्यों के सहारे बुना गया है और समाज में नागरिक के भीड़ बनने की प्रक्रिया को बताया गया है.
जब किसी समाज में रहने वाले लोगों के बीच विश्वास कमज़ोर होने लगे या सुनियोजित तरीके से स्टेट के जरिए (यानी की वहां के लोगों के ही सहारे) कमज़ोर किया जाने लगे तो सबसे पहले जो चीज़ खतरे में आती है वो है- ‘नागरिकता’.
रवीश कुमार समाज को वर्तमान हकीकतों के बारे में बता रहे हैं और आने वाले भविष्य के लिए एक बेहतर भारत की कल्पना कर रहे हैं. जहां नफरतों की बेड़ियों से जकड़ा समाज न हो, गलत सूचनाओं से लैस समाज न हो, सांप्रदायिक होती सोच न हो बल्कि सही सूचनाओं से तैयार की गई जनता हो जो लोकतंत्र में एक अच्छा नागरिक बन सके. जो सवाल करने से डरता न हो, अपने आस पास होने वाली घटनाएं उसे बैचेन करती हों और एक नागरिक के तौर पर अपनी भूमिका निभाने को प्रेरित करती हो.
क्या हम बिना बोले रहने की कल्पना भी कर सकते हैं. इतने भर से हीं कई सवाल हमारे दिलो-दिमाग में उभरने लगते हैं. लेकिन फिर जब समाज में घटनाएं होती हैं तो हम क्यों नहीं बोल पाते. जब एक भीड़ तैयार होकर किसी अख़लाक, तबरेज़ अंसारी या सुबोध कुमार सिंह को मार देती है तब हम क्यों नहीं बोल पाते. क्या हम फर्ज़ी सूचनाओं से एक रोबो- पब्लिक में तबदील होने लगे हैं. शायद पूरी तरह नहीं लेकिन इसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. हमारी हर चुप्पी हमें रोबो बनाने की दिशा में ले जा रही है. हम ठीक वैसा ही करने लगे हैं जैसा कि कोई चाहता है. हम अपने विवेक के प्रति शून्य हो चले हैं.
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पिछले कुछ सालों में गलत सूचनाओं के जरिए एक सूचनाविहीन समाज का निर्माण हुआ है जो अपने साथ कई गंभीर खतरे लिए हुए है. पिछले कुछ सालों में जो देश में भीड़ तैयार हुई है जिसे सांप्रदायिक आधार पर तैयार किया गया है, हिंदू-मुस्लिम समुदाय के बीच लकीर खींच कर किया गया है…वो आने वाले समय में खतरनाक होगी. बल्कि इसके उदाहरण कई जगह दिखने भी लगे हैं. आप भारतीय मीडिया को ही देख सकते हैं और अगर इस पूरे पैटर्न को समझना चाहते हैं तो आपको काफी पढ़ना पड़ेगा.
पहले लोगों को छोटी-छोटी घटनाओं के जरिए सामान्य बनाया गया. जिससे उसे लगे कि ये जो कुछ भी हो रहा है वो तो सामान्य बाते हैं लेकिन इसके पीछे चल रही योजना बेहद खतरनाक है, जो भीड़ के रुप में आने वाले समय में तबाही मचाने वाली है. रवीश कहते हैं, ‘भीड़ का अपना संविधान होता है. अपना देश होता है, वो अपना आदेश खुद गढ़ती है. हत्या के लिए शिकार भी खुद चुनती है. मेरी राय में भीड़ बनने का मतलब है, कभी भी और कहीं भी हिटलर का जर्मनी बन जाना.’
सोचिए क्या हर शहर में ‘लव पार्क’ की कल्पना की जा सकती है. लेकिन ऐसी कल्पना करने की जरूरत ही क्यों पड़ी. जो समाज प्रेम के खिलाफ है वो एक बंद और कुंद समाज है. जहां बेहतरीन से बेहतरीन संभावनाएं दम तोड़ देती है. हमारे समाज में प्रेम करने के ख्याल से ही प्रेमियों में कई तरह के सवाल उठने लगते हैं. जाति से लेकर धर्म तक की बेड़ियां मानो जकड़ने को तैयार बैठी हों. अगर ऐसी कोशिश कोई कर भी ले तो इश्क के दुश्मन कई रूपों में सामने आते हैं. कभी वो सांप्रदायिक होकर तो कभी भीड़ का सहारा लेकर. ये हमारे समाज की हकीकत है. इसे समझने के लिए और तथ्यों के सहारे बूझने के लिए यह किताब एक बेहतरीन दस्तावेज़ है. जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है.
रवीश कहते हैं, ‘इश्क हमें इंसान बनाता है. जिम्मेदार बनाता है और पहले से थोड़ा-थोड़ा अच्छा बनाता है. जो प्रेम में होता है वह एक बेहतर दुनिया की कल्पना जरूर करता है. जो प्रेम में नहीं है वह अपने शहर में नहीं है.’
मुख्यधारा की मीडिया के कमज़ोर होते चले जाने पर एक नए तरह की वैकल्पिक मीडिया ने जन्म लेना शुरू कर दिया है. जो काम मीडिया के सहारे होना चाहिए था वो अब नागरिक कर रहे हैं जिसे नागरिक पत्रकारिता कहते हैं. रवीश कहते हैं, ‘मुख्यधारा की मीडिया एक सूचनाविहीन समाज बना रही है जहां उसके सिलेबस में जनसरोकार के मुद्दे है ही नहीं. बस वो दिन रात लोगों के मन में डर का माहौल बनाने में लगी है. ये डर का संसार सांप्रदायिकता के सहारे बनाया जा रहा है. हर रात मुख्यधारा की मीडिया लोगों को गलत सूचनाओं से कमज़ोर कर रही है. उसकी लोक होने की संभावनाओं को कुचल रही है. ये सब एक प्रायोजित तरीके से किया जा रहा है जिसे स्टेट का सहारा मिला हुआ है. अब पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं रह गया है बल्कि वो राजनीतिक दल का पहला खंभा हो चला है. ऐसे में सबसे ज्यादा जो नुकसान हो रहा है वो है देश के नागरिकों का. एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में हमेशा एक मरा हुआ नागरिक पैदा करता है. देश सही सूचनाओं से बनता है. फेक न्यूज, प्रौपगेंडा और झूठे इतिहास से हमेशा भीड़ बनती है.’
इस किसाब को पढ़ते हुए आप पिछले कुछ सालों में भारत में घटी उन घटनाओं से होकर गुजरेंगे जिसे आपने महसूस किया है. जिसपर हम सभी का ध्यान गया है लेकिन समय बीतने के कारण वो सब बातें अब हमारे ज़हन से धुंधली हो गई हैं. गुज़रे सालों में भारत किस रूप में गढ़ा गया है चाहे वो पत्रकारिता हो, बिज़नेस हो, राजनीति हो, इन सब बातों की पड़ताल करती है ये किताब.
जो लोग रवीश कुमार को देखते और सुनते आए हैं उन्हें इस किताब से मायूसी मिलेगी. क्योंकि जो भी उनके लेखों को रोजाना पढ़ते हैं उन्हें इस किताब में कुछ और नया नहीं मिलेगा. बल्कि उन तमाम लेखों और व्याख्यानों को एक स्थान पर संकलित कर इसे किताब का रूप दिया गया है. लेकिन जो रवीश की लेखनी को पहली बार पढ़ रहे हैं उनके लिए इस किताब में काफी कुछ है. ऐसे कुछ टर्म है जिसे सांस्थानिक शून्यता ने जन्म दिया है. जैसे गोदी मीडिया, रोबो पब्लिक और नागरिक पत्रकारिता.
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इस किताब को पढ़ते हुए आप मायूसी और नाउम्मीद होती हसरतों से गुजरेंगे कि क्या भारत वाकई में इतनी खराब हालत में है. इतनी सारी समस्याएं इस ढंग से पैठ जमा चुकी है. सांस्थानिक तौर पर हम शून्य हो चले हैं. राजनीतिक तौर पर भीड़ को बढ़ावा देने लगे हैं और भविष्य के लिए एक ऐसा भारत बनाने की दिशा में आगे बढ़ चले हैं जिसे अगर सुधारा नहीं गया तो स्थिति काफी खराब हो सकती है. ये सब कैसे हुआ है… ये तो किताब पढ़ने के बाद ही समझ पाएंगे.
किताब आखिर में एक ऐसी उम्मीद छोड़ जाती है जिसे पूरा करने का काम रवीश भारत के नागरिकों के सहारे ही होने की संभावना देखते हैं. उन्हें लगता है कि जब तक देश में नागरिक मजबूत नहीं होगा तब तक समाज में गहरे खतरे पैदा होते रहेंगे.
हम इन खतरों के प्रति सजग रहें और लोकतंत्र में एक बेहतर नागरिक बनने की हमारी लड़ाई जारी रह सके शायद यही इस किताब का मूल ध्येय है.
(‘बोलना ही है’ किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार इस किताब के लेखक हैं.)