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Friday, 20 December, 2024
होमसमाज-संस्कृतिकश्मीर की वो लंगड़ी रानी जिसने एकलव्य की तरह सीखी युद्ध कला और गजनी की विशाल सेना को 44 मिनट में धूल चटाई

कश्मीर की वो लंगड़ी रानी जिसने एकलव्य की तरह सीखी युद्ध कला और गजनी की विशाल सेना को 44 मिनट में धूल चटाई

दिद्दा एवं दुर्जन के बीच युद्ध छिड़ गया. वह हार गया और उसे तुरंत ही हिरासत में ले लिया गया और राजा के समक्ष तुरंत ही पेश किया गया.

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नरवाहन भी दिद्दा को पसंद करने लगा था, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह उसके दोस्त की पत्नी थी, इसलिए भी कि वह एक औरत के रूप में वे उनकी इज्जत करने लगा था. ऐसा लगने लगा था कि दिद्दा के करिश्मे से प्रभावित होना नामुमकिन था और नरवाहन इससे अछूता नहीं था. अचानक उसे ऐसा एहसास हुआ, जिससे नरवाहन प्रसन्नचित्त हो गया और उत्साह में अपनी उँगलियाँ बजाने लगा. दिद्दा एवं वल्जा दोनों ही उलझन में पड़ उसे देखने लग गए.

नरवाहन ने कहा, ‘अभिनवगुप्त. ’दिद्दा ने भी दोहराया, ‘अभिनवगुप्त?’

‘नरवाहनजी, क्या आपको ऐसा लगता है कि वह मेरी मदद करेंगे? ऐसा ही था तो उन्होंने चंद्रलेखा की मदद क्यों नहीं की?’ हालाँकि वह भी उनसे प्रार्थना कर सकती थी, यहाँ तक कि एक रानी होने की हैसियत से उन्हें आज्ञा भी दे सकती थी और तो और यहाँ तक कि राजा भी उनसे यह कह सकते थे. अभिनवगुप्त राजा को तो कभी न नहीं कहेंगे या वह कह देंगे?’ दिद्दा ने नरवाहन की आँखों में आशा की एक किरण देखी.

नरवाहन ने उनसे कहा, ‘हाँ, वह चंद्रलेखा को ‘न’ कह सकते हैं और राजा को भी. ऐसा कोई भी नहीं है, जो उनसे उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करा सकता है. यहाँ तक कि फाल्गुन ने भी ऐसा करने की कोशिश की, पर वह सब नाकामयाब रहे.’

‘उन्होंने कोशिश की और वह असफल हो गए! तब तो मैं जरूर प्रयास करूँगी.’

दिद्दा अपनी जगह से उठी और वह उत्साह में खो गई. वह नरवाहन की ओर तेजी से गई और उत्साहवश उसका हाथ पकड़ लिया और उससे कहा कि वह उसे अभिनवगुप्त के पास ले चलें. नरवाहन दिद्दा के इस अतिउत्साह एवं मासूमियत को देखकर आश्चर्य में पड़ गया.

नरवाहन ने दिद्दा से कहा, ‘कोई भी ऐसे ही बिना आज्ञा लिए अभिनवगुप्त की कुटिया में नहीं जा सकता. फाल्गुन एवं चंद्रलेखा ने पूर्व में ऐसा किया था, पर हमें वैसा नहीं करना चाहिए, नहीं तो हम भी उनके क्रोध के भागी हो जाएँगे.’
दिद्दा समझ गई थी कि नरवाहन क्या कहना चाह रहे थे. अभिनवगुप्त कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे. पर वल्जा को अभिनवगुप्त के बारे में कुछ पता नहीं था. वल्जा यह समझ नहीं पा रही थी कि अभिनवगुप्त इस असंभव को कैसे संभव कर पाएँगे.

नरवाहन की बातों से परेशान होकर उन्होंने पूछा, ‘अभिनवगुप्त कौन हैं और वे इन सबमें हमारी मदद कैसे कर सकते हैं?’

यह सुनकर नरवाहन आश्चर्य में पड़ गए, ‘क्या आप मुझसे यह पूछ रही हैं कि अभिनवगुप्त कौन हैं? वे इतने महान् व्यक्ति हैं कि उनके बारे में बताने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं.’
दिद्दा ने उन्हें समझाया, ‘इस धरती पर जनमे वे सबसे महान् संत हैं. वे एक योगी हैं. वे स्वयं योगिनीभू हैं, अर्थात् वे स्वयं एक योगिनी के गर्भ से पैदा हुए हैं. वे भैरव के आशीर्वाद हैं, वे विशिष्ट आध्यात्मिक एवं बौद्धिक शक्तियों के साथ पैदा हुए हैं.’

वल्जा ने पूछा, ‘पर वे हमारी मदद कैसे कर सकते हैं?’

नरवाहन ने उनकी प्रशंसा में कहा, ‘उन्होंने सालों की भक्ति एवं ध्यान के कारण इन महान् क्षमताओं को प्राप्त किया है. वे कौल के बहुत बड़े अनुयायियों में से एक हैं. सिर्फ एक नहीं, अपितु पंद्रह से भी ज्यादा गुरुओं ने उन्हें अपने ज्ञान एवं शक्तियों का आशीर्वाद दिया है.’

दिद्दा ने फिर कहा, ‘उन्होंने अपने सबसे बड़े गुरु शंभुनाथ के आशीर्वाद से कौल अभ्यास के जरिए आध्यात्मिक मुक्ति पा ली है. शंभुनाथ ने उन्हें पाँचों तत्त्वों (अर्द्ध त्र्यंबक) के ऊपर अधिकार करना सिखाया है, हालाँकि यह विद्यालय त्र्यंबक की बेटी ने शुरू किया था. उन्होंने सिद्धि की आठों शक्तियों में प्रवीणता हासिल कर लीं. ये शक्तियाँ हैं—अणिमा—अपने को परमाणु में समाहित कर लेने की शक्ति; महिमा—स्वयं को अंतरिक्ष में विस्तारित करने की शक्ति; लघिमा—रुई के फाहे की तरह हलका हो जाने की शक्ति; गरिमा—संसार की सबसे भारी चीज की तरह स्वयं भारी हो जाना; प्राप्ति—संसार में किसी भी जगह घूमना; प्राकाम्य—सभी इच्छाओं की पूर्ति करनेवाली शक्ति; ईशित्व—किसी भी चीज को बनाने की शक्ति; वशित्व—सभी को आदेश देने की शक्ति.’

नरवाहन एवं वल्जा दोनों ही अपलक उसे देखते रहे. वे दोनों न सिर्फ अभिनवगुप्त के व्यक्तित्व से अपितु दिद्दा के अथाह ज्ञान भंडार से भी विस्मित थे. दिद्दा ने कहा, ‘इतना ही नहीं, वह सिर्फ सिद्धि ही नहीं, अपितु छहों शानदार आध्यात्मिक शक्तियों को भी प्रदर्शित करता है.’ ‘आध्यात्मिक शक्तियाँ?’

‘शिव के लिए अटूट भक्ति; मंत्र सिद्धि प्राप्त करना, पाँचों तत्त्वों पर अपना नियंत्रण रखना; कुछ भी चीज प्राप्त करने की शक्ति; सभी प्रकार के विज्ञान एवं कलाओं का संपूर्ण ज्ञान एवं उनपर पूर्ण अधिकार; और सभी प्रकार के दार्शनिक ज्ञान की सहज प्राप्ति.’

दिद्दा जब अभिनवगुप्त के बारे में बता रही थी तब वह अपने आसपास के वातावरण को भूल गई. वह आँखें मूँदकर अंतरिक्ष एवं समय की शून्यता को देख रही थी और ऐसा लगा कि वह अभिनवगुप्त एवं उनकी असीम आभा की ओर अपने आप खिंची चली जा रही है.

अभिनवगुप्त के बारे में सुनकर वल्जा आश्वस्त हो गई थी कि नरवाहन ने उन्हें सन्मार्ग पर जाने की सलाह दी है. वल्जा ने दिद्दा पर परोक्ष रूप से दबाव डालते हुए पूछा, ‘पर तुम किस तरह से उनके पास पहुँचोगी?’

दिद्दा ने उत्तर दिया, ‘जहर ही जहर को काटता है, अँधेरा ही अँधेरे को काटता है और ज्ञान ही ज्ञान का उत्तर है.’ दिद्दा का अपने विचारों पर नियंत्रण था और वल्जा को भी समझ आ गया कि दिद्दा के पास कोई-न-कोई योजना जरूर है.
दिद्दा ने कहा, ‘शास्त्रार्थ.’

नरवाहन आश्चर्य में पड़ गए और कहा, ‘आप होश में तो हैं?आप कैसे उस व्यक्ति को चुनौती दे सकती हैं, जिनके पास स्वयं ज्ञान का भंडार है, आध्यात्मिक प्राप्ति और शक्ति है? अगर आपने ऐसा किया भी, तो भी आप अपनी सारी आशाओं का दोनों हाथों से गला घोंट देंगी.’

दिद्दा ने कहा, ‘मैं जानती हूँ नरवाहनजी, यह आसान नहीं होगा, पर मेरे पास अब ये ही एक रास्ता बचता है. मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगी.’

नरवाहन ने अभिनवगुप्त तक यह संदेश पहुँचा दिया कि रानी दिद्दा उनसे मिलकर शास्त्रार्थ करना चाहती हैं. चौदह प्रमुख गुरुओं का ज्ञान पाकर भी अभिनवगुप्त में अभी भी ज्ञान पाने की इच्छा में कोई कमी नहीं थी. वे और ज्ञान पाने के पिपासु थे. उन्होंने भी तुरंत इस चुनौती को स्वीकार कर लिया और दिद्दा को मिलने के लिए बुलाया.

नरवाहन ने चैन की साँस ली कि अभिनवगुप्त ने कम-से-कम दिद्दा को मिलने के लिए बुलाया तो सही. अभिनवगुप्त दिद्दा की सुंदरता एवं उनकी चुनौती देने की हिम्मत को देखकर हतप्रभ थे. जब वे दोनों आपस में मिले, तो अभिनवगुप्त ने दिद्दा से कहा, ‘आप तीन साधारण से सवालों का जवाब दें, अगर आपने उन सवालों का सही से जवाब दे दिया तो मैं मान लूँगा कि तुम शास्त्रार्थ के लायक हो. ’दिद्दा ने कहा, ‘मैं तैयार हूँ, गुरु.’

अभिनवगुप्त ने अपना पहला प्रश्न किया, ‘जीवन क्या है?’ दिद्दा ने जवाब दिया, ‘मोक्ष प्राप्त करने के लिए किया जानेवाला संघर्ष और यात्रा.’

उन्होंने अपना दूसरा प्रश्न किया, ‘मोक्ष कौन प्राप्त करता है?’ दिद्दा ने कहा, ‘जो स्वयं को समझ जाता है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपनी आत्मा से मिल लेता है.’

फिर अभिनवगुप्त का अंतिम प्रश्न था, ‘कोई स्वयं को कैसे जान सकता है?’

दिद्दा ने जवाब दिया, ‘स्वयं को इच्छाओं से मुक्त करके, कर्म एवं कर्मफल की बेड़ियों से मुक्त होने पर ही कोई स्वयं को जान सकता है.’

अभिनवगुप्त उसके उत्तर से प्रभावित हुए और कहा, ‘दिद्दा, मैं तुम्हारे ज्ञान से प्रभावित हूँ. मुझे पता है कि तुम यहाँ एक उद्देश्य से आई हो. तुमने स्वयं को इस हेतु साबित किया है, इसलिए मैं तुमसे अब शास्त्रार्थ नहीं करूँगा. तुम जिस भी हेतु यहाँ आई हो, मैं तुम्हें उसकी प्राप्ति का आशीर्वाद देता हूँ, भगवान् शिव उसका ध्यान रखें.’
दिद्दा उनसे बस यही चाहती थी. उसकी आँखें खुशी के मारे चमकने लगीं और वह अभिनवगुप्त से आशीर्वाद लेने के लिए आगे झुकी. फिर वह संतुष्ट होकर अपने महल में वापस चली गई.

इसी बीच राजवैद्य सुषेन वहाँ दिद्दा की जाँच करने के लिए पहुँचे. जब वे राजमाता के साथ कक्ष से बाहर निकले, तो वहाँ चंद्रलेखा एवं फाल्गुन दोनों ही यह पूर्वाभास लिये बैठे थे कि दिद्दा की सत्ता का अब अंत होनेवाला है. राजवैद्य बहुत ही प्रसन्न थे. ऐसा कुछ तो नहीं था और अपनी दाढ़ी को हलके-हलके हाथों से सहला रहे थे. फाल्गुन उनके पास पहुँचे और उनका विचार जानना चाहा. फाल्गुन के चेहरे पर एक अजीब सी मुसकान थी, और वह कयास लगा रहा था कि उनके जीवन की काली अँधेरी रात अब जाने ही वाली है.

जब राजवैद्य ने यह घोषणा की कि दिद्दा सच में गर्भवती हैं, तो ऐसा लगा कि चंद्रलेखा एवं फाल्गुन के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो और उनके पैर काँपने लगे. राजमाता की खुशियों का ठिकाना न रहा और उन्होंने खुशी के मारे अपने गले का हार निकालकर राजवैद्य को उपहारस्वरूप दे दिया. उन्होंने नाचते हुए सेवकों को आदेश दिया कि मिठाई लाई जाए और पूरे साम्राज्य में बाँट दी जाए. यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई कि कश्मीर के साम्राज्य को उसका उत्तराधिकारी मिलनेवाला है.

राजमाता ने चंद्रलेखा को आदेश दिया, ‘महल में सब तरफ घी के दीये जलाए जाएँ, कश्मीर को एक नई तरह की रोशनी में नहाने दो, क्योंकि साम्राज्य को उसका उत्तराधिकारी मिलनेवाला है.’ इस मौके पर, फाल्गुन को ऐसा लगा कि अब राजगद्दी उसके हाथों से फिसलनेवाली है. उसके जीवनभर का सपना कि वह कश्मीर की राजगद्दी पर बैठकर राज करेगा, उसकी आँखों के सामने से गायब हो गया. चंद्रलेखा की आँखों से भी आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और वह गालों से होकर लगातार गिरे जा रहे थे. अपने को तिरस्कृत मान वह अपने कक्ष की ओर भागती हुई चली गई.

जब क्षेमगुप्त को यह समाचार मिला तो वे खुशी के मारे फूले न समाए. वे दिद्दा के कमरे में तेजी से गए, उसे गले लगाया और यह वादा किया कि वे दिद्दा की इच्छानुसार उसे सबकुछ देंगे, क्योंकि वह राजा एवं साम्राज्य को बहुत कुछ देने जा रही है.

शीघ्र ही दिद्दा राजमाता की दुलारी हो गई और राजा क्षेमगुप्त अब सातवें आसमान पर रहने लगे, हों भी क्यों न, क्योंकि दिद्दा ने उनके सपने को पूरा किया है. राजमाता ने अपनी बहू के आराम के लिए सारे इंतजाम कर दिए. अब वह स्वयं दिद्दा की हर इच्छाओं एवं जरूरतों का पूरा खयाल रखती थीं.

क्षेमगुप्त ने आदेश दिया कि रानी को एक पल के लिए भी अकेले नहीं रखा जाए; उनकी सेवा में हर समय पाँच-छह सेवक-सेविकाएँ हमेशा मौजूद रहें. उनके कक्ष को बहुत खूबसूरती से सजाया जाए और उसमें भगवान् श्रीकृष्ण एवं भगवान् शिव के सुंदर चित्र लगाए जाएँ. राजपंडित से प्रार्थना की गई कि वे हर दिन उनके पास जाकर उन्हें वेद, उपनिषद् व अन्य कहानियाँ सुनाएँ, जिससे गर्भ में पल रहे बच्‍चे के जीवन पर अच्छा गुणकारी प्रभाव पड़े. दिन-पर-दिन दिद्दा के प्रति उनके मन में प्यार बढ़ता गया.

पूरे साम्राज्य ने नई रानी के गोद-भराई कार्यक्रम का जश्न मनाया. पूरे साम्राज्य को रंगीन दीयों से सजाया गया और साम्राज्य के लोगों को इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया. हर कोई इस समय का इंतजार कर रहा था. अब वह दिन आ गया था और जल्द ही कश्मीर को अपना राजकुमार मिल जाएगा. राजमाता ने इस अवसर के लिए विशेष इंतजाम किए थे. उन्होंने विभिन्न साम्राज्यों से विभिन्न संत-महात्माओं को आमंत्रित किया कि वे उनकी बहू को अपना आशीर्वाद दें. उन्होंने हजारों गायें भेंट में दीं और यह प्रतिज्ञा की कि साम्राज्य के उत्तराधिकारी के जन्म के पश्चात् वे महायज्ञ करेंगी.

साम्राज्य में हर कोई मृदंग की धुन पर नाच रहा था. संगीतज्ञों ने सुंदर-सुंदर राग बजाए और औरतों ने नए बालक के स्वागत में पारंपरिक गीत गाए. सारी तैयारियों के बीच, क्षेमगुप्त दिद्दा की ओर प्यार भरी नजरों से देख रहे थे. उन्होंने दिद्दा का हाथ पकड़ा और उससे पूछा कि उसे और क्या चाहिए. दिद्दा ने अपना दूसरा हाथ उनके हाथ के ऊपर रखा और कहा, ‘हे राजन, आपने मुझे इतना प्यार एवं खुशियाँ दी हैं. मैं आपसे और क्या माँग सकती हूँ, पर एक चीज है, जो मैं आपसे आपकी जनता के हेतु माँगना चाहती हूँ.’

‘क्यों नहीं दिद्दा, तुम जो चाहो, मैं तुम्हें वह सबकुछ दे सकता हूँ.’
दिद्दा ने कहा, ‘अब मैं चाहती हूँ कि आपको ज्यादा गंभीरता से अपनी जनता का ध्यान रखना चाहिए. राजा सिर्फ अपनी जनता के लिए होता है. मैं चाहती हूँ कि आप उनके अच्छे राजा बनें, जैसे राजा राम और राजा विक्रमादित्य.’
राजा ने कहा, ‘दिद्दा, तुम चिंता मत करो और राजकाज का सारा भार मुझपर छोड़ दो, तुम अपने भीतर पल रहे बच्‍चे की देखभाल करो.’

‘अगर मैंने कुछ गलत कहा हो, तो मुझे माफ करें, पर मैं तो साम्राज्य की भलाई खासकर आपकी ही भलाई के बारे में कह रही थी. अगर आप इतना वादा नहीं कर सकते हैं, तो मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं भी कभी-कभार साम्राज्य में घूमकर आऊँ, जिससे मैं जनता के सुख-दुःख में उनके साथ रहूँ.’

राजा ने कहा, ‘दिद्दा, भगवान् बहुत दयालु हैं कि उन्होंने तुम्हें मेरे लिए भेजा. अपने गर्भ में बच्‍चे को पालते हुए, तुम अपनी जनता को नहीं भूली हो. एक रानी के साथ-साथ एक माँ के रूप में भी तुम्हारी क्षमताओं की मैं बहुत प्रशंसा करता हूँ. मैं वादा करता हूँ कि मैं तुम्हें ऐसा करने से कभी नहीं रोकूँगा.’

राजा ने शपथ ली. दिद्दा को जो चाहिए था, वह उन्हें मिल गया. हालाँकि, दिद्दा के मन में थोड़ी भी शांति नहीं थी. वे लगातार सोचे जा रही थीं, उनके दिमाग के घोड़े दौड़ रहे थे. उनके मन के भीतर यह चल रहा था कि वह ऐसे ही चीजों को हलके में नहीं ले सकतीं. दिद्दा साम्राज्य में एक पकड़ बनाना चाहती थीं, जल्द ही वे साम्राज्य के विभिन्न भागों में जाने लग गईं और नरवाहन उनके साथ होता था.

एक दिन जब वे शहर के भ्रमण पर निकली थीं तो उन्होंने देखा कि पूरा शहर खाली हो गया है. किसी ने भी उनका अभिवादन नहीं किया. किसी ने उनका नाम भी नहीं लिया. जब रानी ने नगर की इस स्थिति के पीछे का कारण जानना चाहा तो उन्हें पता चला कि राजा का एक पुराना सैनिक डाकू बन गया है. वह स्वयं को दुर्जन कहता है. वह और उसके आदमी लोगों को लूटते हैं, औरतों की इज्जत से खेलते हैं और जो भी उन्हें रोकने की कोशिश करता है, उन्हें मार डालते हैं. वह इतना खतरनाक था कि राजा के अपने आदमी भी उसे पकड़ नहीं पा रहे थे.

दिद्दा ने नरवाहन को बुलाया और कहा, ‘शहर के चौराहे पर लिख दो कि अगर दुर्जन फिर से यहाँ आया तो वह उसकी जिंदगी का अंतिम दिन होगा. यह रानी का अपनी प्रजा से एक वादा है.’

नरवाहन ने जवाब दिया, ‘पर रानी, आपको पता नहीं है कि वह कितना खतरनाक हो सकता है. मुझे लगता है कि आपको अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए.’ पर दिद्दा ने अपना फैसला बदलने से मना कर दिया और वह सूचना चौराहे पर चस्पाँ कर दी गई.

दुर्जन ने एक स्त्री खासकर रानी के द्वारा दी गई इस अपमान भरी चुनौती को स्वीकार किया. उसने जैसे ही यह सुना, वह तुरंत ही अपने दो-चार बदमाशों के साथ अगली शाम को वहाँ पहुँच गया. दिद्दा, नरवाहन एवं अपने दल के साथ पहले से ही उसका इंतजार कर रही थीं.

दिद्दा एवं दुर्जन के बीच युद्ध छिड़ गया. वह हार गया और उसे तुरंत ही हिरासत में ले लिया गया और राजा के समक्ष तुरंत ही पेश किया गया. साम्राज्य में हर जगह ‘रानी दिद्दा की जय’ के नारे लग रहे थे. लोग अब डर एवं दुर्जन के अत्याचारों से मुक्त थे.

राज्य की औरतें दिद्दा को धन्यवाद देने के लिए आईं. वे रानी के चारों ओर जमा हो गईं और रानी की सिर्फ एक झलक पाने के लिए खड़ी रहीं, क्योंकि रानी उनके लिए एक तारणहार एवं प्रेरणा बनकर आई थीं. साम्राज्य अपनी रानी की और ज्यादा इज्जत करने लगा. वे उनके लिए देवी बन गई थीं, जिसमें दुर्गा देवी के सारे गुण थे. उनका विश्वास था कि माता पार्वती ने उनके लिए धरती पर दिद्दा के रूप में जन्म लिया है, क्योंकि उनमें भी देवी जैसे ही सारे गुण हैं, जैसे—उन जैसी ही सुंदरता, साहस एवं बुद्धि. दिद्दा भी लोगों से जुड़ गई थीं और उन्हें त्वरित न्याय देने का वादा किया और अगर जरूरत पड़ी तो दोषी का सिर भी धड़ से अलग करने की शपथ ली.

उनका डर इतना खतरनाक हो गया कि अधिकारी भी दिद्दा की बात करने के डर से काँपने लगते थे. धीरे-धीरे उनके बहुत सारे दुश्मन हो गए और न सिर्फ उन्हें अपितु राजा को भी मारने की कई कोशिशें की गईं. वे तो बचीं ही, साथ ही अपनी चतुराई एवं बुद्धिमत्ता से उन्होंने राजा की भी जान बचाई.

वहीं दूसरी ओर फाल्गुन बुरी तरह से परेशान था. उसने यह महसूस किया कि इस तरह धीरे-धीरे दिद्दा उसे पूरी तरह से बिना काम का कर देगी. फाल्गुन ने क्षेमगुप्त एवं अन्य वरिष्ठ मंत्रियों के समक्ष इसका विरोध भी किया और यह बात सामने रखने की कोशिश की जो काम दिद्दा कर रही हैं, वह मंजूर नहीं होगा. मंत्रियों के दल ने इस बात की पुष्टि की कि दिद्दा के कामकाज से मंत्रियों का अपमान हो रहा है और ऐसे में कोई भी इन मंत्रियों का सम्मान नहीं करेगा.

क्षेमगुप्त, जो आसानी से अपने पक्ष में किए जा सकते थे, वे इस बात से गुस्सा हो गए और उन्होंने दिद्दा को यह आदेश दिया कि वे अब से सार्वजनिक कामकाज के मामले में दखल नहीं देंगी. वे चाहते थे कि दिद्दा अपने आनेवाले बालक के भविष्य के बारे में सोचें. नरवाहन भी सही समय का इंतजार कर रहे थे और क्षेमगुप्त भी इस बात के लिए मान गए कि वे भेस बदलकर राजधानी का भ्रमण करके आएँगे. इतने सालों में यह पहली बार हुआ कि राजा अपनी राजधानी में घूमने के लिए गए, क्योंकि उन्होंने अपने राजकाज और अपने शासन के बारे में कभी कोई अच्छी चीज पहले कभी नहीं सुनी थी. हालाँकि, उन्हें पता था कि उनकी जनता एक राजा के रूप में कभी भी उनकी इज्जत नहीं करती.

क्षेमगुप्त को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, जब उन्होंने लोगों के मुँह से अपने लिए बातें सुनीं. राजा बनने के बाद पहली बार उनकी आँखें गर्व से चमक रही थीं. क्षेमगुप्त ने सुना कि लोग उसके शासन की तारीफ कर रहे हैं और साथ ही यह भी सुना कि कैसे दिद्दा ने उनकी जिंदगी में अनूठा परिवर्तन किया है. उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि दिद्दा ने न सिर्फ राजा के दिल में, अपितु लोगों के दिल में भी जगह बनाई है.

हालाँकि दिद्दा के बढ़ते प्रभाव से उनके दुश्मन एवं बुरा चाहनेवाले बढ़ते जा रहे थे, जिसमें जाना-पहचाना नाम था प्रधान मंत्री फाल्गुन. हालाँकि, प्रधान मंत्री फाल्गुन ने यह सोच लिया था कि वे इतनी जल्दी हार नहीं मानेंगे.

एक दिन चंद्रलेखा ने उनसे पूछा, ‘पिताजी, अब हम क्या करेंगे?’ पिता फाल्गुन के जवाब से वह चकित रह गई. फाल्गुन ने कहा, ‘नहीं, अब मैं कुछ नहीं कर सकता. दिद्दा ने सारे खेल की बाजी अपने हक में पलट ली है. साम्राज्य का चक्कर लगाकर तो वह क्षेमगुप्त के और करीब आ गई है. अब यही हमारी किस्मत है. हमें अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए और इसी के साथ जीना पड़ेगा कि अब वो तुम नहीं हो जो राजा के दिल में रहती हो. दिद्दा ही असली रानी है और हमें उसे वही स्थान देना चाहिए. मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हमने उनके साथ जो भी किया है, उन सब चीजों के लिए उनसे माफी माँग लें. चलो, थोड़ी मिठाइयाँ ले जाएँ और राजा और रानी दोनों से माफी माँगें.’

चंद्रलेखा को यह विश्वास ही नहीं हुआ कि उसके पिता इतनी जल्दी हार मान लेंगे, पर उसने अपने पिता के निर्णय को मान लिया और दिद्दा के सामने माफी माँगने के लिए तैयार हो गई.

जब फाल्गुन एवं चंद्रलेखा दिद्दा के कक्ष में गए तो उन्होंने देखा कि दिद्दा क्षेमगुप्त के पास बैठी थी और क्षेमगुप्त दिद्दा के पेट पर हलकी-हलकी मालिश कर रहे थे. जब राजा ने उन्हें आते देखा तो वे सीधे बैठ गए और पूछा, ‘फाल्गुन, अब तुम दिद्दा की क्या शिकायत लेकर आए हो? इतना क्या जरूरी था कि तुम राजदरबार में मेरा इंतजार नहीं कर सकते थे?’
‘हे राजन, मुझे माफ करें. आज मैं किसी शिकायत के साथ नहीं आया हूँ, हाँ!

आज से पहले तक मैंने जो भी किया है, मैं आज आपसे उसकी माफी माँगने आया हूँ. अपनी बेटी के प्यार में मैं अंधा हो गया था, और मैंने दिद्दा को इस महल में स्वीकारा ही नहीं था. मैंने कभी भी उसकी इज्जत नहीं की, मैंने उसकी गोद-भराई के समय में भी उसे आशीर्वाद नहीं दिया था. मैं हमेशा अपनी बेटी के लिए आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता था जिसके लिए मैं आज स्वयं को दोषी मानता हूँ. मुझे इस बात का एहसास हो चुका है कि रानी दिद्दा कितनी दयालु एवं सहज प्रकृति की हैं. वे बहुत ही सुंदर हैं और उनमें साम्राज्य की देखभाल करने का साहस है और वे आपकी रानी बनी रहने का भी सारा हक है. यह मेरी गलती है कि मैंने उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया.’

वह अचानक क्षेमगुप्त के चरणों में गिर गया और माफी माँगने लग गया, ‘हे राजन्, मैं यहाँ आपसे एवं रानीजी से क्षमा माँगने आया हूँ. मैं समझ गया हूँ कि दिद्दा चंद्रलेखा की ही तरह है. अब मैं समझ गया हूँ कि मुझे दूसरी बेटी भी मिल गई है. मुझे माफ करके आशीर्वाद दें और मुझे आज्ञा दें कि मैं आप दोनों को इस साम्राज्य को एक उत्तराधिकारी देने की खुशी में मिठाई खिलाऊँ, और हम लोग एक नई शुरुआत कर सकें.’

जैसे ही राजा मिठाई के समीप आए, दिद्दा को यह महसूस हो गया कि कुछ तो गड़बड़ है. वे आगे बढ़ीं और दिखावा करती हुई फाल्गुन के पैर पर चढ़ गईं और फाल्गुन के हाथों से सारी मिठाई नीचे गिर गई.
उसने मुसकराते हुए कहा, ‘राजन्, मुझे माफ करें, लगता है मेरा पैर दरी में फँस गया.’

फाल्गुन को बहुत गुस्सा आया; क्योंकि दिद्दा अपना काम कर गईं और उसके इरादों पर पानी फेर दिया. वह गुस्से में कमरे से बाहर चला गया.

चंद्रलेखा कुछ भी नहीं समझ पाई, ‘पिताजी, आप तो उनके पास इतनी विनम्रता के साथ गए थे, अचानक आपको इतना गुस्सा क्यों आ गया?’

‘वह दिद्दा ही मेरे सारे दर्द का कारण है. मैंने कितनी अच्छी तरह से योजना बनाई थी, जिसमें राजा और दिद्दा दोनों ही उस जाल में फँस जाते. अगर उन्होंने मेरी दी हुई मिठाई खा ली होती, तो जहर खाकर दोनों मर गए होते. फिर उस गद्दी और मेरे बीच कोई नहीं होता. दिद्दा ने फिर से मुझे मात दे दी, अब मैं उसे छोड़ूँगा नहीं.’

फाल्गुन ने दिद्दा और उसके अजनमे बच्‍चे को कोख में ही मारने की कई बार कोशिश की, पर दिद्दा ने हर बार अपनी तत्परता और दिमाग का सही समय पर इस्तेमाल करते हुए दोनों की जान बचाई. उसने न सिर्फ फाल्गुन की हर योजना को मिट्टी में मिलाया, बल्कि क्षेमगुप्त की आँखों में अपने लिए और इज्जत कमाई.

जब यह खबर साम्राज्य में चारों ओर फैल गई कि रानी दिद्दा ने एक लड़के को जन्म दिया है, तो चारों ओर खुशी की लहर दौड़ पड़ी. दिद्दा ने अपना वादा निभा दिया और क्षेमगुप्त का भी सपना पूरा हो गया और उन्हें राजगद्दी के लिए अपना असली उत्तराधिकारी मिल गया है. कश्मीर और पूरा शाही साम्राज्य राजसी आयोजनों में डूब गया. इन सारे इंतजामों को करने के लिए करीब एक लाख घोड़े एवं करीब एक हजार हाथियों को अलग-अलग साम्राज्यों से मँगाया गया. पड़ोस के सारे साम्राज्यों से सभी शाही परिवारों को इस उत्सव का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया गया. आयोजित होनेवाले भोज के लिए साम्राज्य के विभिन्न भागों से सुस्वादु पकवान बनाने के आदेश दिए गए.

विश्व के विभिन्न भागों से विशिष्ट प्रकार के फूलों से साम्राज्य को सजाया गया. रानी को नहलाने के लिए उत्तर, दक्षिण, पश्चिम व पूर्व की विभिन्न सात पवित्र नदियों से जल लाया गया. उत्सव वाले दिन दिद्दा को सोने में तोला गया और वह सोना सारी प्रजा में बँटवा दिया गया. जच्‍चा-बच्‍चा को आशीर्वाद देने के लिए सारे प्रमुख पुजारियों को आमंत्रित किया गया. अभिनवगुप्त को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया, जो नवजात शिशु को अपना आशीर्वाद देने के लिए आए. साथ ही इस अवसर पर संपूर्ण विश्व से कलाकारों, गायकों, नृतकों को शाही दरबार में अपनी पेशकश देने के लिए बुलाया गया. महायज्ञ आयोजित करने के लिए एक हजार आठ यज्ञकुंडों का निर्माण किया गया. बच्‍चे के नाना सिम्हराज भीमशाह के साथ अपने नवजात नाती को देखने के लिए कश्मीर आए.

सिम्हराज और श्रीलेखा अपनी बेटी का वहाँ इतना नाम देख-सुनकर बहुत ही खुश हुए. अपने नाती को देखते ही सिम्हराज को लोहार साम्राज्य की वह रात याद आ गई, जब वह अपनी बेटी को मारने जा रहे थे. माता-पिता दोनों ने ही अपनी बेटी दिद्दा को गले लगा लिया और बहुत देर तक गले मिल रोते रहे. सालों से दिद्दा के मन में बैठे गुस्से को माँ-बाप और दिद्दा के आँसुओं ने मिल यों ही बहा दिया. मातृत्व ने दिद्दा के व्यक्तित्व को एक नया रूप दिया.

शाही राजा ने मार्तंड के पास नए राजकुमार के जन्म के उपलक्ष्य में भीमाकेशव नामक मंदिर बनाया और उस बालक का नाम अभिमन्यु रखा. प्रसिद्ध वीर योद्धा अर्जुन के पुत्र का नाम भी अभिमन्यु था.

पता नहीं नियति में क्या लिखा था, क्योंकि जिस पुत्र का नाम अभिमन्यु रखा गया था, वह कश्मीर साम्राज्य को इस विषम परिस्थिति में आगे ले जा पाएगा अन्यथा नहीं या वह अपनी माँ के जीवन में कुछ नवीन कर पाएगा या नहीं, इस बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. किस्मत ने अभी दिद्दा के साथ आँखमिचौली करना नहीं छोड़ा था.

दिद्दा पूरी तरह से राजकुमार के लालन-पालन में खो गई थीं. तभी जिंदगी ने एक नया पासा फेंका. क्षेमगुप्त का फिर से मन किया कि वह आखेट पर निकले, वह बहुत साल से शिकार करने नहीं गया था. दिद्दा एवं बालक अभिमन्यु दोनों ही इस विचार के विपरीत थे, पर उसे लग रहा था कि उसे चले जाना चाहिए, अपने आखेट दल के साथ वह उत्तर में अल्पाइन के जंगलों के लिए निकल पड़ा. एक दिन अचानक एक बड़ी सी शेरनी ने राजा की ओर झपट्टा मारा. हर कोई सकते में था. इतने विशाल जानवर को मारने के लिए उस समय कोई भी तैयार नहीं था. क्षेमगुप्त अकेले ही शेर से लड़ता रहा और कुछ ही देर में उसने उसे मार गिराया.

राजा बुरी तरह से घायल हो गया और उसकी हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई. उसे श्रीनगरम् से 50 किमी. पश्चिम की ओर बारामूला में क्षेममठ में रखा गया, जहाँ राजवैद्य उसकी देखभाल कर रहे थे. पर राजा की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई. राजा के सुरक्षाकर्मियों ने रानी के पास राजा की स्थिति बताने के लिए एक संदेशवाहक भेजा.

दिद्दा नरवाहन के साथ क्षेममठ में तुरंत आ गईं, जहाँ राजा का इलाज चल रहा था. शिविर के पास पहुँचकर अंदर जाना रानी के लिए बहुत कष्टप्रद था. रानी ने अपने पुत्र को छोड़ा और सीधे अंदर क्षेमगुप्त को देखने गईं, जो दुर्भाग्यवश अपनी अंतिम साँसें गिन रहे थे. शिविर में घुसते हुए जो कदम थे, उससे रानी की पूरी जिंदगी बदल जानेवाली थी और फिर उनके जीवन का हर क्षण दुखों से भरा था.

अपने पति को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त देख दिद्दा के हृदय में अजीब सा दर्द उठ रहा था. अपने दर्द से जूझते क्षेमगुप्त ने दिद्दा को देखा और उनके चेहरे पर एक अनमनी सी मुसकान फैल गई. वे दिद्दा को देखते रहे और दिद्दा के बगल में बैठने की कोशिश करने लगे. दिद्दा को समझ नहीं आया कि वह कैसे क्या करे, उसे यह समझ ही नहीं आया कि उसका दर्द राजा के दर्द से अधिक है अथवा नहीं? दिद्दा को बहुत ज्यादा चिल्लाने का मन किया, क्योंकि क्षेमगुप्त ही एकमात्र ऐसा पुरुष था, जो उस वक्त खून से लथपथ होने के बावजूद उसे बहुत प्रेम करता था.

क्षेमगुप्त ने ऐसा कभी भी नहीं सोचा होगा कि दिद्दा ऐसे टूट जाएगी. उस क्षण क्षेमगुप्त को वह सारे पल फिर से आँखों के सामने धुँधले से घूमने लगे कि कैसे वह दिद्दा से मिले, लोहारिन साम्राज्य में उसने कैसे समय बिताया, फिर उनकी शादी और वह सारी चीजें जो पिछले कुछ साल से वे साथ-साथ कर रहे थे. दिद्दा के साथ उन्होंने जिंदगी के सबसे अच्छे साल देखे.

क्षेमगुप्त दिद्दा के पास पहुँचना चाहते थे, पर पहुँच ही नहीं पाए और बीच में ही उनकी साँसों की लय टूट गई. दिद्दा का दिल बैठ गया और वह उस दर्द से व्याकुल हो गई, जब उसने देखा कि क्षेमगुप्त के हाथों से मांस गायब है. दिद्दा का चेहरा फक पड़ गया, उसने बहुत मजबूती के साथ अपने दाँत पीस लिये और उसकी आँखें खुली-की-खुली रह गईं और उनमें से आँसू लुढ़ककर उसके गालों पर गिरते रहे. उन क्षणों में उसने यह महसूस किया कि क्षेमगुप्त अपनी अंतिम साँसें ले रहे हैं. कुछ ही क्षणों में वह अपने हाथों से वह सब खो देगी, जो भगवान् ने उसे दिया था.

दिद्दा क्षेमगुप्त के पास गई और उनके हाथों में अपना हाथ रखा. दिद्दा के हाथ काँपने लगे, उनके रिसते गरम खून को छू दिद्दा का शरीर काँपने लगा. नरवाहन भी बहुत देर तक बाहर नहीं रुक पाया. उसने निर्णय लिया कि वह अभिमन्यु के साथ भीतर आएगा. एक मजबूत दिल होने के बावजूद नरवाहन वह दृश्य नहीं देख पाया और उसने अभिमन्यु को गले से लगा लिया.

क्षेमगुप्त ने बहुत ही कमजोर आवाज में दिद्दा से पूछा, ‘क्या तुम मुझे बचा नहीं सकती?’ यह उसका एक सीधा वाक्य भर नहीं था, बल्कि वह दिद्दा से जीवन की अभिलाषा लिये यह पूछ रहा था. दिद्दा को यह बात जल्दी समझ आ गई.
वह स्वयं को रोने से रोक नहीं पाई और उस दर्द को ज्यादा बरदाश्त भी नहीं कर पाई. उसे अपने पति को खोने का अपार दर्द था और वह दर्द चरम पर था. दिद्दा ने अपना सिर उठाकर भगवान् की ओर देखा, और अपनी मुट्ठी बाँधकर वह जोरों से चिल्लाई. वह इस तरह से पहले कभी नहीं रोई थी, उसे यह समझ ही नहीं आ रहा था कि वह इस बार किस प्रकार रोए, इसलिए वह विलाप करने लगी.

क्षेमगुप्त ने फिर कहा, ‘क्या तुम मुझे बचा नहीं सकती?’ पर इस बार यह कोई प्रश्न नहीं था.
राजा ने दिद्दा की उन बादाम सी आकृतिवाली खूबसूरत आँखों को, जो अभी सबसे बड़ी जंग लड़ रही हैं, को देखकर कहा, ‘दिद्दा, मुझे जाना होगा.’

उसने दिद्दा का हाथ पकड़ा और कहा कि एक राजा के रूप में उसे अपनी कमियाँ पता हैं. हालाँकि, उसे राजा नहीं बनाया जाना चाहिए, पर दिद्दा में उसे वह सारे गुण दिखते हैं, जो एक शासक में होने चाहिए.

उसने दिद्दा से कहा, ‘यह मेरी अंतिम इच्छा और अंतिम आदेश है और मेरा प्यारा नरवाहन इन सबका गवाह है. दिद्दा कश्मीर की गद्दी की संरक्षिका होगी और वह सुनिश्चित करेगी कि सिर्फ सक्षम शासक ही शासन करे. जिस समय तक अभिमन्यु इस लायक नहीं हो जाता, वह यह सुनिश्चित करेंगी कि साम्राज्य की अखंडता वैसे ही कायम रहे. कश्मीर को पहले ही कितने अंदरूनी शत्रुओं ने बरबाद कर दिया है, इसलिए उसे सावधान रहकर अभिमन्यु को एक वीर, बहादुर राजा बनाना होगा. और, अगर वह इस लायक नहीं बन पाया, तो उसे राजा मत बनाना…दिद्दा, तुम उसे राज करने मत देना.’

दिद्दा रोए जा रही थी और उसकी आँखों से गालों पर आँसू लुढ़क रहे थे. अपनी बंद आँखों से उसने कहा, ‘मेरे साथ ऐसा मत करो, मैं अभी युवती ही तो हूँ और मुझे आपकी आवश्यकता होगी.’
उसने बहुत प्यार से कई बार यह बात कही कि ‘मेरे साथ यह मत करो.’
फिर चारों ओर एक सन्नाटा छा गया, क्योंकि क्षेमगुप्त कुछ कह ही नहीं रहे थे.
डरी-सहमी दिद्दा ने जो कुछ भी हुआ, उसे समझे बिना फिर कहा, ‘मेरे साथ ऐसा मत करो….’ उसके भाग्य के अगले पन्ने बहुत ही कष्टकारी थे, जो चुपके से खुल चुके थे. संग्रामदेव का श्राप पूरा होता दिख रहा था.
नरवाहन स्वयं दुःख में डूबा था, पर वह रानी और राजकुमार दोनों को ही ढाढ़स बँधाने में लगा हुआ था.

(‘दिद्दा कश्मीर की योद्धा रानी’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 400₹ की है.)


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